मध्यप्रदेश में ‘गोरखपुर’ की तरह बच्चों की हो रही है मौत, मगर सरकार व मीडिया ख़ामोश

जावेद अनीस, TwoCircles.net के लिए


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दुर्भाग्य से गोरखपुर की घटना कोई इकलौती घटना नहीं है. इससे पहले भी देश के अनेक हिस्सों में इस तरह की घटनाएं होती रही हैं. पूर्व में हुई घटनाओं से हम सीख हासिल सकते थे, लेकिन हमने  कभी भी ऐसा नहीं किया है. हमने तो जवाबदेही को एक दूसरे पर थोपने और हर नए मामले को किसी हिसाब से रफ़ा-दफ़ा करने का काम किया है.

मध्यप्रदेश भी पिछले कई दशकों से बच्चों के लिए क़ब्रगाह बना हुआ है. एक तरफ़ तो बीच-बीच में गोरखपुर की तरह होने वाली घटनाए हैं तो दूसरी तरफ़ भूख और कुपोषण से होने वाली मौतों का अंतहीन सिलसिला, तमाम ढोंगों और ढकोसलों के बावजूद इसकी प्रेत-छाया दूर होने का नाम ही नहीं ले रही है.

इसी साल 21 जून को इंदौर के शासकीय महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय (एमवाय हॉस्पिटल) में भी कुछ इसी तरह की घटना हुई थी, जहां 24 घंटे में 17 लोगों की मौत हो गई थी, इसमें चार नवजात बच्चे भी शामिल थे. यहां भी मामला ऑक्सीजन सप्लाई ठप होने का ही था.

हैरानी की बात यह है कि हॉस्पिटल में जिस प्लान्ट से 350 मरीज़ों तक ऑक्सीजन सप्लाई की  कमान 24 घंटे सिर्फ़ एक व्यक्ति के हाथ में रहती है. यानी वह कहीं चला जाए या रात में सो जाए और इस बीच ऑक्सीजन ख़त्म हो जाए तो सप्लाई रुक जाने का ख़तरा बना रहता है.

जैसा कि हमेशा से होता आया है. यहां भी अस्पताल प्रशासन और मध्यप्रदेश सरकार ने इन मौतों को सामान्य बताया था और पूरी तरह से घटना को दबाने और पूरे मामले की लीपा-पोती में जुट गए थे.

अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों के अनुसार उस रात एमवाय अस्पताल की मेडिकल गहन चिकित्सा इकाई, ट्रॉमा सेंटर और शिशु गहन चिकित्सा इकाई ऑक्सीजन की आपूर्ति कुछ देर के लिए बंद हो गई थी, जिसकी वजह से यह मौतें हुईं.

प्रशासन इस इन मौतों को सामान्य बताता रहा और बहुत ही संवेदनहीनता के साथ कुतर्क देता रहा कि एमवाय अस्पताल में तो हर रोज़ औसतन 10-15 मौतें होती ही हैं.

एमवाय हॉस्पिटल का ही एक दूसरा मामला मई 2016 का है, जब ऑपरेशन थियेटर में ऑक्सीजन की जगह एनिस्थीसिया (निश्चेतना) के लिए इस्तेमाल की जाने वाली नाइट्रस ऑक्साइड गैस दे दिया गया था. इसकी वजह से दो बच्चों की मौत हो गई थी.

बाद में अस्पताल प्रशासन की गई जांच में पता चला कि ऑपरेशन थिएटर में जिस पाइप से ऑक्सीजन आनी चाहिए, उससे नाइट्रस ऑक्साइड की आपूर्ति की जा रही थी.

ऑपरेशन थिएटर में गैसों की आपूर्ति और इनके पाइप जोड़ने का काम करने वाली एक निजी कम्पनी के हवाले था, जिसके ख़िलाफ़ भारतीय दंड विधान की धारा 304-ए (लापरवाही से जान लेना) के तहत मामला दर्ज करके पूरे मामले को दबाने की कोशिश की गई.

बाद में स्वास्थ्य अधिकार मंचने इस मामले में गठित जांच समिति पर सवाल उठाते हुए आशंका जताई थी कि चूंकि इस मामले की जांच करने के लिए गठित जांच समिति के सभी पांच डॉक्टर एमवाय हॉस्पिटल से जुड़े हैं, इसलिए वे अस्पताल के दोषी स्टाफ़ को बचाने के लिए जांच के नाम पर लीपा-पोती कर सकते हैं.

खैर जांच के लिए गठित समिति ने पाया था कि कि पाइप लाइन में लीकेज भी है, जिसका मेंटेनेंस किया जाना चाहिए. लेकिन लापरवाही की हद देखिए कि एक साल से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद यह काम भी पूरा नहीं किया जा सका है. जबकि इसी की वजह से पिछले साल हादसा हुआ था.

वहीं मध्य प्रदेश के लिये कुपोषण कई दशकों से एक ऐसा कलंक बना हुआ है जो पानी की तरह पैसा बहा देने के बाद भी नहीं धुला है. कुपोषण के सामने विकास के तथाकथित मध्यप्रदेश मॉडल के दावे खोखले साबित हो रहे हैं. ज़मीनी हालात चुगली करते हैं कि मध्यप्रदेश ‘‘बीमारु प्रदेश’’ के तमग़े से बहुत आगे नहीं बढ़ सका है.

तमाम योजनाओं और बजट के बावजूद मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर में पहले और कुपोषण में दूसरे नंबर पर बना हुआ है. कुपोषण का सबसे ज्यादा प्रभाव आदिवासी बाहुल्य ज़िलों में देखने को मिलता है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफ़एचएस —2015-16) के अनुसार मध्यप्रदेश में 42.8 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. एनुअल हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) के मामले में मध्यप्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है, जहां 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्म-दिन नहीं मना पाते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही है.

यह हाल तब है जबकि इस अभिशाप से मुक्ति के लिए पिछले 12 सालों से पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है. पिछले पांच सालों में कुपोषण मिटाने के लिये 2089 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. सवाल उठता है कि इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी हालात सुधर क्यों नहीं रहे हैं?

मामला चाहे गोरखपुर का हो, इंदौर का या फिर भोपाल का. इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों की पहली कोशिश यही रहती है कि किसी भी तरह से इसे नकार दिया जाए. यह महज़ लापरवाही या अपनी खाल बचा लेने का मामला नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध उस राजसत्ता और व्यवस्था की प्रकृति से है, जो अपने आपको ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन’ होने का दावा करता है.

सबसे बुनियादी बात तो यह है कि इन त्रासदियों के लिए ज़िम्मेदार उन लोगों की जवाबदेही सीधे तौर पर तय हो, जिनके पास सब कुछ तय करने का अधिकार है और जब एक बार जवाबदेही तय हो जाए तो उसे कड़ाई से लागू भी किया जाए.

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