बिहार नफ़रत के आगोश में है… और कौन हैं जो चैन से बंसी बजा रहे हैं

नासिरूद्दीन, TwoCircles.net के लिए

बिहार को नफ़रत की आग में झोंक दिया गया है. इसे फ़िरकावाराना फ़साद कहा जाए या दो पक्षों में टकराव या साम्प्रदायिक तनाव…


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लफ़्ज़ों पर आलिम जितनी चाहे, उतनी बहस करें. आम बिहारी जन के लिए यह नफ़रत, ख़ौफ़, हिंसा, तनाव, बेचैनी, नींद उड़ाने का दौर है.

वैसे, अब यह जानना लाज़िमी हो गया है कि आज़ादी के बाद बिहार साम्प्रदायिक हिंसा और तनाव की ऐसी गिरफ़्त में कब आया था? यह भी जानना उतना ही लाज़िमी है कि बिहार के कौन-कौन से ज़िले पिछले दो साल में साम्प्रदायिक तनाव से बच पाए हैं?

छोटी-मोटी झड़प जाने दें. फिर भी अगर लिस्ट बनेगी तो अब ऐसा लगता है कि बिहार के ज़्यादातर बड़े और अहम ज़िले इसमें शामिल होंगे. साल-दो साल की घटनाएं न याद आ रही हों तो फिलहाल छोड़ दें. पिछले छह महीने पर ही गौर करें. इस दौरान ही बिहार ने साम्प्रदायिक हिंसा के कई बड़े सामूहिक दौर देख लिए हैं.

बक़रीद, दुर्गापूजा, मुहर्रम, बारावफ़ात, सरस्वती पूजा, नव संवत्सर, रामनवमी और शायद अब हनुमान जयंती तक- इन सब मौक़ों पर बिहार में एक साथ कई ज़िलों में फ़िरकावाराना तनाव हुए हैं और अभी हो रहे हैं.

रामनवमी को गुज़रे कई दिन हो चुके हैं पर साम्प्रदायिक हिंसा और तनाव का दौर अभी गुज़रा नहीं है. इन लाइन को लिखे जाने के दौरान भी हिंसा की ख़बरें आ रही हैं.

कुछ लोगों को यह अस्सी के दौर की याद दिला रहा है. हालांकि, शायद अस्सी के दौर में भी बिहार के इतने ज़िलों में एक साथ, इतने कम वक़्त में साम्प्रदायिक टकराव या तनाव नहीं हुए थे.

दो साल में ज़िले दर ज़िले हिंसा की आगोश में

अलग-अलग ज़रियों से जुटाई गई जानकारी बता रही है कि पिछले दो सालों में बिहार के सीतामढ़ी, मधेपुरा, गोपालगंज, गया, नवादा, जमुई, मुज़फ़्फ़रपुर, वैशाली, सीतामढ़ी, छपरा, पूर्वी और प‍श्च‍िमी चम्पारण, कटिहार, अ‍ररिया, सुपौल, भोजपुर, बेगूसराय, सिवान, भागलपुर, पटना, औरंगाबाद, रोसड़ा, मुंगेर, नालंदा, अरवल, शेख़पुरा… में साम्प्रदायिक तनाव हुए हैं. हिंसा हुई है.

ज़ाहिर है, यह लिस्ट पूरी नहीं है. इनमें वे घटनाएं शामिल नहीं हैं, जो गो-रक्षा के नाम पर बिहार के कुछ ज़िलों में पहली बार सुनने और देखने में आईं.

जी, यही बिहार को नफ़रत की आग में झोंकने की कोशि‍श है. इसे अब सुनियोजित, संगठित साज़िश भी कहा जा सकता है. इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिए.

बिहार कभी भी इतना नफ़रती राज्य नहीं था. खान-पान में न रहन-सहन में और न ही एक दूसरे के साथ सामुदायिक रिश्ते में. बिहार की आबादी की बुनावट भी ज़्यादातर मिली-जुली रही है. मगर पिछले कई सालों से इस बुनावट के एक-एक धागे को बहुत ही मेहनत और करीने से अलग-अलग करने कोशि‍श की जा रही है.

विधानसभा चुनाव ने नफ़रती विकास का बीज बोया

यह कोशि‍श पहली बार बड़े पैमाने और खुले तौर पर तब देखने को मिली जब बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहे थे. चुनाव में गो-मांस, गोहत्या, पाकिस्तान, मुस्ल‍िम आरक्षण, मुस्ल‍िम वजीफ़ा… जैसे मुद्दे उछालकर, फैलाकर बिहार में नफरती विकास की राजनीति की बुनियाद डालने की कोशि‍श हो रही थी. मगर बिहार ने विकास की नफ़रती राजनीति की बुनियाद पर सर उठाना गवारा नहीं किया. उसने बहुत ही साफ़ आवाज़ में इसे नकारते हुए अपनी बात कही.

हालांकि, बिहार चुनाव के नतीजे आने के तुरंत बाद इस टिप्पणी को लिखने वाले ने हिन्दी में एक टिप्पणी लिखी थी. उसमें लिखा था, ‘नफ़रत की राजनीति, कभी बिहार का मुख्य स्वर नहीं रहा. नतीजे भी साफ़-साफ़ यही बता रहे हैं कि असहिष्णुता की राजनीति यहां नहीं चली. मगर क्या हमेशा ऐसा रहेगा, यह कहना मुश्किल है. पहली बार बिहार ने साम्प्रदायिक आधार पर इतना तीखा और सघन प्रचार देखा है. गाय, गोमांस, पाकिस्तान, धर्म के आधार पर आरक्षण, आतंक- ये सारी बातें, मुद्दे के रूप में उछाली गईं. एक नहीं, भाजपा के तीन-तीन विज्ञापन इसी वजह से चुनाव आयोग की आलोचना के शिकार हुए. ज़ाहिर है, इन सबका मक़सद साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण था. हालांकि ऐसे प्रचार का सीटों की संख्या पर असर भले न हुआ हो, लेकिन यह टोलों-टोलों तक पहुंचा. वोटरों की बड़ी तादाद भले ही भाजपा के इन मुद्दों के साथ नहीं गई, पर एक हिस्सा तो ज़रूर गया. भाजपा को मिले एक चौथाई वोट तो कम से कम से यही बता रहे. इसलिए ये मुद्दे भले ही इस चुनाव के साथ दबते दिखें लेकिन समाज में अविश्वास का बीज पड़ गया है. अगर इसे खाद-पानी मिलता रहा तो आज नहीं तो कल यह अंकुरित होगा. सवाल है, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर नफ़रत के इस बीज को अंकुरित होने से महागठबंधन कैसे रोकता है? यह न सिर्फ़ बिहार के लिए बल्कि पूरे देश के लिए अहम है. जैसे इस चुनाव के नतीजे अहम साबित होंगे.’

चुनाव में उठे मुद्दों ने माहौल को डरावना बनाया था. इसीलिए जीत के बाद एक अहम सवाल था कि क्या बिहार में डर की राजनीति पर अब विराम लगेगी? ध्यान रहे यह बात लगभग सवा दो साल पहले की है.

बेख़ौफ़ लहराता नफ़रत की बेल

मगर नई सरकार को सामाजिक ताना-बाना की चदरिया को मुकम्मल रखने के लिए जितना तवज्जो देना चाहिए था, उतना उसने नहीं दिया. बीज को खाद पानी मिलता रहा और वह फलता फूलता रहा. नफ़रती बोल, नफ़रती जुलूस, नफ़रती काम… चलते रहे.

… और महागठबंधन टूटने के बाद तो वह बेलगाम हो गया. इतनी तेज़ी से यह नफ़रती बेल लहराता चला गया कि अब उसे थामना मुश्कि‍ल हो रहा है. हालांकि, महागठबंधन टूटने के बाद से ही नफ़रत के साए के गहराने की आशंका होने लगी थी. मगर वह आशंका इतनी जल्दी, इतने भयावह रूप में परवान चढ़ेगी, यही सबसे ख़ौफ़नाक और परेशानकुन बात है. ऐसा नहीं था कि नफ़रत पहले नहीं फैलाई जा रही थी. मगर तब प्रशासन भी तेज़ी से कार्रवाई करता दिख जाता था.

बिहारी समाज को तहस-नहस करने की कोशि‍श

अब नफ़रत फैलाने वाले और उसकी फ़सल काटने वाले बेख़ौफ़ हैं. ये नफ़रत और हिंसा, बिहारी समाज को गहरा घाव देने वाला है. सड़कों पर उतरे लोगों के तेवर देखि‍ए. उस तेवर में नफ़रत की ताप देखि‍ए. उनकी चाल, उनके हाथ से उठते तलवार, हॉकी स्ट‍िक और मुँह से निकलते उद्घोष इसकी तस्दीक कर रहे हैं. ये सब आमजन को ख़ौफ़ज़दा करने वाले और उकसाने वाले हैं. ये पूरे समाज को हिंसक बनाने की कोशि‍श है… यह घरों, मुहल्लों, इलाक़ों, बाज़ारों, दोस्ती, मेलजोल को बांट कर अपनी बेलों को और ताक़त देगा.

बहुतों को यह बात बहुत ज़्यादा लग सकती है. आज़ादी के बाद शायद यह पहली बार हो रहा होगा, जब कुछ महीनों के अंदर बिहार में एक साथ कई जगह पर साम्प्रदायिक तनाव/हिंसा लगातार हो रही है. इन लाइनों को लिखते हुए कभी नालंदा में भगदड़ तो कभी मुंगेर में दुकान बंद कर भागते लोगों की ख़बर आ रही है. तो नवादा में हनुमान जी की मूर्ति के खंडित होने और उसका बदला लेने उतरे लोगों की तस्वीर दिख रही है.

नफ़रत के इस दौर ने भागलपुर, औरंगाबाद, रोसड़ा, मुंगेर, नालंदा, सिवान, नवादा, गया, शेखपुरा… को अपने आगोश में लिया है. कहीं दो पक्ष आमने-सामने आए. कहीं पथराव, तो कहीं आगजनी, कहीं गोली चली. मगर हर जगह अब ‘स्थि‍ति नियंत्रण में लेकिन तनावपूर्ण’ है.

बेबस नीतीश और ग़ायब शासन का इक़बाल

मौजूदा साम्प्रदायि‍क तनाव की बुनियाद इस महीने हुए लोकसभा और विधानसभा उप-चुनाव के नतीजे के साथ ही बनने लगी थी. अररिया में राष्ट्रीय जनता दल की जीत के बाद लगातार ऐसे बयान आए, जो अररिया और वहां की जनता के बारे में नफ़रती छवि बनाने वाले हैं. नफ़रत के नाम पर लोगों को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने वाले हैं. फिर एक वीडियो आया. पाकिस्तान आया. देश को टुकड़े करने का कहीं से नारा आया. फिर इस नफ़रती छवि को धारदार बनाने की कोशि‍श हुई. अभी यह सब ठंडा ही हो रहा था कि भागलपुर में एक जुलूस निकला. कहा गया कि यह ‘भारतीय नव वर्ष’ का जुलूस है. मगर इस जुलूस ने भारत के वासियों को जोड़ा नहीं. हंगामा और तोड़फोड़ हुई. फिर रामनवमी की तैयारी, रामनवमी का जुलूस और राम के नाम की आड़ में डराने, धमकाने और बांटने की कोशि‍श हुई. कोशि‍श कामयाब हुई. क्यों?

क्योंकि बिहारी प्रशासनिक निज़ाम को जैसी मुस्तैदी बरतनी चाहिए थी, उसने बरती नहीं. उसे ऐसी नफ़रत, हिंसा या हंगामे की आशंका नहीं थी, यह कहना और मानना बहुत ही मुश्किल है. ख़ासतौर पर जब उसके पास पिछले दो सालों के नमूने हों.

बिहार के सुशासन के प्रतीक के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस बार पूरी तरह बेबस दिख रहे हैं. वरना कोई वजह नहीं थी कि नफ़रत की बेल एक ज़िले से दूसरे ज़िले में फैलती रहे और पता न चले. सरकार कुछ असरदार क़दम न उठा सके.

जिसका फ़ायदा, वही तो नफ़रत की फ़सल बोएगा

पड़ोसी राज्य बंगाल में भी जो हो रहा है, वह कम ख़तरनाक नहीं है. इन दोनों राज्यों की पहचान नफ़रती/साम्प्रदायिक हिंसा वाले राज्यों के रूप में नहीं रही है. अब नफ़रत फैलाने वाले, नफ़रत की फ़सल बोने और काटने वालों की फ़ेहरिस्त में अपना नाम चढ़वाने के लिए अब यह भी बाकियों से टक्कर लेंगे.

ज़ाहिर है, इस फ़सल का फ़ायदा किसी न किसी समूह, गुट, व्यक्त‍ि या व्यक्त‍ियों के समूह या विचार को मिल ही रहा होगा. तब ही तो यह फैल रहा है और फैलाया जा रहा है. है न?

कैसा अनोखा सुशासन है? कैसा ज़बरदस्त विकास है? है न? (जारी…)

(नासिरूद्दीन पत्रकार हैं. झूठ, नफ़रत और हिंसा के ख़िलाफ़ लगातार लिख और काम कर रहे हैं.)

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