इस किताब की कहानी, मेरे जैसे हज़ारों-लाखों लड़कों की कहानी है

अब्दुल्लाह मंसूर, TwoCircles.net के लिए

उस दिन अख़बार की सुर्खियां खून से सनी थी. तमाम अख़बार चीखचीख के कह रहे थे कि दिल्ली, अहमदाबाद, बंगलुरु और उत्तर प्रदेश की सड़कों पर सीरियल ब्लास्ट करके तबाही मचाने वाले आतंकी “जामिया” के छात्र थे और सभी आज़मगढ़ के रहने वाले थे.


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टेलीविज़न चैनलों पर एंकर चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि जामिया आतंकवाद की नर्सरी है और आज़मगढ़ “आतंकगढ़” है.

शाम होते-होते इस मान्यता को हमारी मीडिया ने जनमानस के मस्तिष्क में स्थापित कर दिया. कूप-मंडूप भारतीय मध्य वर्ग को जामिया का हर छात्र आतंकवादी नज़र आने लगा. जुलेना और मसीहगढ़ के मकान मालिक जामिया छात्रों से अपने रूम खाली करवाने लगे.

जिनके साथ ये सब घटित हो रहा था. वे सभी जामिया के Ordinary छात्र थे. बस यही कहानी है ‘An Ordinary Man’s Guide to Radicalism‘ किताब की. इस किताब के लेखक नेयाज़ फ़ारुक़ी बिहार के गोपालगंज से आए एक Ordinary Man ही थे.

नेयाज़ फ़ारूक़ी के ज़रिए लिखी ये किताब मेरे जैसे कई लड़कों की कहानी है, जो उस वक़्त जामिया के छात्र थे.

नेयाज़ फ़ारुक़ी जामिया स्कूल से ही जामिया के साथ जुड़े हुए थे. अपनी इंटर की परीक्षा पास करके बायो-साइंस में दाख़िला ले लिया. जामिया में हॉस्टल की कमी के कारण हर छात्र को हॉस्टल नहीं मिलता. नेयाज़ फ़ारुक़ी को भी नहीं मिला. ऐसे में उन्होंने खलीलुल्लाह मस्जिद के क़रीब बटला हाउस में एक रूम लिया.

ये पूरा इलाक़ा मुस्लिम बाहुल्य है. इसी कारण बहुसंख्यक इसे “छोटा पाकिस्तान” कहते हैं.

बटला हाउस में रहने वाले हर छात्र को बिजली, मच्छर और मकान मालिक के चिक-चिक से दो-चार होना पड़ता है, पर बटला हाउस की रातें बहुत हसीन होती हैं. बिस्मिल्लाह होटल की चाय और पहलवान कि लस्सी का कोई जवाब नहीं. और जब बात रमज़ान महीने की हो तो क्या कहने. जब तक दुकानें बंद नहीं होती, छात्र बटला हाउस की सड़कों और गलियों में बेफ़िक्र घूमा करते हैं और दिन में देर उठते हैं. पर जिस दिन सुबह की क्लास होती है, जामिया जल्दी उठ कर जाना पड़ता है.

उस दिन भी नेयाज़ फ़ारूक़ी को जल्दी उठकर जामिया जाना पड़ा था. जामिया पहुंचते ही पता चला कि बटला हाउस में एनकाउंटर हुआ है और शायद अभी तक चल रहा है. नेयाज़ को ये भी पता चला कि एनकाउंटर उसके रूम के पास ही कहीं हुआ है और इसमें जामिया के छात्र शामिल हैं.

सभी के अन्दर एक बेचैनी थी. किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था. अगले कुछ दिनों में जामिया के कुछ बच्चों की गिरफ़्तारी भी शुरू हो गई. पकड़े गए आरोपियों को मीडिया के सामने पेश किया गया. पर उनके चेहरे को काले कपड़े की जगह (जैसा आमतौर से होता है) लाल रंग के अरबी रुमाल से ढ़का गया था. जिससे आसानी से आरोपियों के धर्म का पता लगाया जा सके.

मीडिया रिपोर्टिंग ने जामिया के हर छात्र को potential terrorist रूप में पेश करके बहुत ही आलोचनीय बना दिया था. हर रोज़ ख़बर मिलती थी कि कुछ छात्रों को पुलिस ने बटला हाउस, शाहीन बाग़ आदि जगहों से उठाया है. लोगों ने खुद को अपने कमरों में क़ैद कर लिया था. सड़कों पर स्वघोषित कर्फ़्यू नज़र आता था.

नेयाज़ को भी लगा कि उसे भी पकड़ा जा सकता है. वह रात दो बजे घर से लाए हुए अपने बक्से को खोलकर देखता है कि ऐसी कोई चीज़ तो उसके पास नहीं है, जिससे शक हो कि वह भी आतंकवादी है.

नेयाज़ ने भी कई बार सोचा कि दिल्ली छोड़कर भाग जाए, पर उसके अंदर एक डर था कि कहीं उसे फ़रार आतंकवादी के शक में पकड़ न लिया जाए. ऐसे डर और आतंक के साए में ख़बर मिली कि जमिया के वाईस चांसलर मुशीरुल हसन ने अंसारी ऑडिटोरियम में छात्रों की एक मीटिंग बुलाई है. साथ ही ये भी ख़बर मिली कि जामिया के जो छात्र आतंकवाद के “आरोप” में पकड़े गए हैं, उनका मुक़दमा जामिया की ओर से लड़ा जाएगा.

सोमवार के दिन 10 बजे जामिया के एम.ए. अंसारी ऑडिटोरियम में हम जमा हुए. मुशीर साहब स्टेज पर आए और पहली बात ये कही कि इस वक़्त मैं आप सबका गार्ज़ियन बनकर आया हूं, आप अपने घर से दूर यहां मेरी अमानत/सरपरस्ती में हैं.

ऐसा लगा कि कोई है, जिसको हमारी फ़िक्र है. यूं तो मुस्लिम पहचान की राजनीति करने वाले सैकड़ों लोग मुस्लिम समाज में मौजूद है, पर उस वक़्त किसी के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी कि जो आगे आ सके. आतंक के साए में फटकार के सच कहने के लिए नैतिक साहस की ज़रूरत होती है. और ये साहस मुशीर साहब ने दिखा दिया.

और हां, आज के प्रधानमंत्री और उस वक़्त के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंच से ये ऐलान कर दिया था कि जामिया और उसके वीसी को सबक़ सिखाने की ज़रूरत है. हर न्यूज़ पेपर और न्यूज़ चैनल पर ‘संघी गुंडे’ मुशीर साहब के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले हुए थे कि कैसे इस वीसी की हिम्मत हुई जो टैक्स के पैसे से ‘आतंकवादियों’ का केस लड़े?

यहां ये याद रखने की ज़रूरत है कि मुशीर साहब का कोई राजनीतिक लाभ नहीं था. इन छात्रों का केस लड़ने या जामिया छात्रों के साथ खड़े होने में और न ही बाद में उनको इसका कोई ऐसा लाभ मिला.

मैं यहां उस लाभ की बात कर रहा हूं, जिसके लिए हमारे समाज के बहुत से नेता और स्वयंसेवी काम करते हैं. एक बात और याद दिलाने की है कि ये वही जामिया था, जिसने 90 के दशक में मुस्लिम कट्टरपंथियों के बहकावे पर मुशीर साहब पर जूते चलाए थे. उस वक़्त मुशीर साहब की ग़लती ये थी कि उन्होंने कहा था कि “सलमान रुश्दी के किताब का जवाब किताब होना चाहिए, प्रतिबंध नहीं.” 

बटला हाउस की घटना ने न सिर्फ़ नेयाज़ फ़ारुक़ी को बल्कि जामिया के हर छात्र को ये अहसास दिला दिया था कि उसे इस आधार पर पकड़ा जा सकता है कि वह मुस्लिम है और जामिया में पढ़ता है. यानी बस ये दो कारण ही काफ़ी किसी को आतंकवादी साबित करने के लिए. इस डर ने पहली बार जामिया छात्रों को उनकी स्थिती समझाई.

उस वक़्त जामिया छात्रों से सवाल किया जाता था कि उनको पुलिस पर भरोसा क्यों नहीं है? तो इसके दो जवाब तब भी थे और अब भी हैं. पहला पुलिस को मुसलमानों पर कितना भरोसा है? अगर भरोसा होता तो जामिया प्रशासन को कम से कम विश्वास में लेकर ये कार्यवाही की जाती. दूसरा अगर झूठे आरोप में किसी भी मुस्लिम नौजवान को पकड़ा गया तो कब उनको छोड़ा जाएगा, इसका कोई निश्चित उत्तर है प्रशासन के पास?

अभी मालेगांव में भारतीय मीडिया और पुलिस द्वारा घोषित आतंकवादियों को अदालत ने तक़रीबन 6-7 साल बाद बाईज़्ज़त बरी कर दिया. कुछ लोग 14 व 20 साल बाद आतंकवाद के मामले से रिहा हो रहे हैं. उनकी ज़िन्दगी के उन सालों की क्षतिपूर्ति कैसे होगी? जिन पुलिस वालों ने इन नौवजवानों पर झूठे आरोप लगाकर चार्जशीट फ़ाइल की थी, क्या उन पर कार्यवाही होगी? क्या आज तक किसी पुलिस अधिकारी पर इस बिना पर कोई कार्यवाही हुई है? उनके घर वाले (और वो खुद) एक आतंकवादी के रिश्तेदार के रूप में जो यातनाएं झेली हैं, उसका मुआवज़ा क्या होना चाहिए? ऐसे ढ़ेर सारे सवाल हैं जिनके जवाब कभी नहीं दिए जाएंगे, न सरकार की ओर से न प्रशासन की ओर से. पर इसका परिणाम क्या होगा ये सोचने वाली बात है.

आज आलम यह है की पूरे हिन्दुस्तान में कहीं से भी जब किसी मुस्लिम युवक को पुलिस आतंकवादी कह कर उठाती है तो मुस्लिम समाज से पहली प्रतिक्रिया ये आती है कि बेचारे निर्दोष को उठा लिया. अब 6-7 साल जेल में यूं ही रखेंगे.’ ये प्रतिक्रिया बहुत स्वभाविक है.

ये प्रतिक्रिया ये भी बताती है कि मुस्लिम समाज का सरकार/प्रशासन पर कितना भरोसा है और सरकार और प्रशासन ने भरोसा क़ायम रखने के लिए क्या किया है? अगर सरकार और प्रशासन चाहते हैं कि भरोसा क़ायम हो तो उन अधिकारियों पर कार्यवाही की जाए. मुस्लिम समाज का भरोसा जीतने के लिए सरकार को पहल करने की आवश्यकता है.

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