किसकी विचारधारा बेहतर है —नीतीश की या लालू की?

खुर्रम मल्लिक, TwoCircles.net के लिए

बिहार में अभी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. समूचा बिहार आज आग के ढेर पर बैठा हुआ है. और सुशासन बाबू ख़ामोश हैं. न उनकी कुर्सी हिल रही है और ना ही उनके लब हिल रहे हैं.


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ये वही बिहार है, जहां लालू के समय अडवाणी जैसे ‘हिंदुत्व के मसीहा’ को भी अपनी अकड़ी हुई गर्दन झुकानी पड़ी थी. लेकिन आज एक ख़ास राजनीतिक दल के नेता बड़े आराम से नीतीश के शासन में आपत्तिजनक व भड़काऊ नारे का प्रयोग करते हुए खुलेआम आराम से घूम रहे हैं. कुछ असामाजिक तत्व अपने ज़हरीले बयानों से राज्य का माहौल ख़राब कर रहे हैं और सरकार मौन नज़र आ रही है.

एक लालू के तथाकथित ‘जंगल राज’ का दौर था, जिसमें उन्होंने राज्य को ‘दंगा मुक्त’ बनाने की हर संभव प्रयास किए और वो काफ़ी हद तक सफ़ल भी हुए. दूसरा नीतीश कुमार का दौर था, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर ‘विकास’ की सड़क पर ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की गाड़ी दौड़ाई.

एक समय तक तो यह कारगर रही, लेकिन फिर अचानक ‘विकास’ के उस सड़क में दरारें पड़ने लगीं. जगह-जगह गड्ढे होने लगे. ऊंची-ऊंची इमारतों, दुकानों को आग के हवाले किया जाने लगा. एक ख़ास वर्ग के लोगों को मारा-पीटा जाने लगा…   

हाँ! मुझे उस विकास से नफ़रत है, जिसकी मंज़िल विनाश हो. क्योंकि सरकार यह सारे ‘विकास’ जनता के लिए ही तो करती है, लेकिन जब वही जनता उस विकास को देखने के लिए जीवित ही नहीं रहेगी तो फिर क्या फ़ायदा? फिर काहे का विकास? काहे की सरकार?

ज़रा सोचिए! उस विकास का क्या फ़ायदा, जहां अच्छी सड़कें तो हों, लेकिन उस पर चलने वाली गाड़ी ही ना हो. जहां अच्छे बाज़ार तो हों, लेकिन वहां से ख़रीदने वाला ग्राहक ही ना हो. जहां अच्छे-अच्छे होटल तो हों, लेकिन कोई खाने वाला ही ना हो. अच्छे और सुंदर घर तो हों, लेकिन उसमें रहने वाला कोई इंसान ही ना हो.

यक़ीनन लालू यादव के दौर में ‘विकास’ नहीं था, लेकिन विनाश भी तो नहीं था. लोगों के दिलों में साम्प्रदायिक आधार दरारें तो नहीं थी. इतना ज़्यादा हिन्दू-मुसलमान तो नहीं था. फिर यह भी देखना होगा कि वो दौर क्या था. केन्द्र सरकार की ओर से विकास के लिए कितना फंड मिलता है. राज्य के खाते में कितना राजस्व आता था. 

यक़ीनन शाम ढलते ही लोग अपने अपने घरों में दुबक जाया करते थे, लेकिन हालात तब भी इतने भयावह तो नहीं थे. और अब तो यह माहौल हो गया है कि आप बड़े आराम से अपने घरों में सोए हैं, लेकिन अचानक से पता चलता है कि आप का शहर दंगे की चपेट में है, और आप बेबसी की मूरत बनकर सिर्फ़ मन ही मन कुढ़ते हैं.

यक़ीनन सड़कें तो चकाचक हो गई हैं, लेकिन इन नेताओं ने लोगों के मन को तो मैला कर ही दिया है. अब ज़रूरत इस बात की है कि इसी मैले मन में पलते विचारों को जड़ से ख़त्म कर दिया जाए. नहीं चाहिए ऐसा विकास जिसमें इंसानियत ही ख़त्म हो जाए. भाईचारगी ही बाक़ी न रहे.

कहते हैं कि कोई भी ‘विचारधारा’ एक ऐसा पौधा होती है, जिसकी फ़सल आप वैसी ही काटेंगे जैसा आप बोएंगे. विचारों पर सहमती या असहमती दर्ज कराना हर व्यक्ति का अपना निजी मामला है. लेकिन शायद मुझे हर ऐसी विचारधारा से सख़्त नफ़रत है, जो विकास के रास्ते होते हुए विनाश पर ख़त्म होती हो. फिलहाल बिहार में यही विचारधारा पनप रही है.

यह अचानक से उत्पन्न नहीं हुई है. इसे पहले पैदा किया गया है, फिर इसकी परवरिश की गई है, फिर यहां जवान हुई और इसकी जवानी का लहू इतना गरम है कि यह समूचे बिहार को लहुलहान कर देना चाहती है.

ज़रा ग़ौर से सोचिए! अगर एक व्यक्ति झूठ को सच बनाकर लोगों के मन को बदल सकता है, तो क्या हम सच को सच बनाकर उस झूठ का पर्दाफ़ाश नहीं कर सकते हैं? अगर वह अपने झूठ को सच बनाने में इतनी मेहनत कर सकता है, तो क्या हम सच को सच बनाने का प्रयास नहीं कर सकते हैं?

अवश्य कर सकते हैं. याद रखिए कि सच ही असल और अटल हक़ीक़त है. झूठ का शीशा कितना ही साफ़ और चमकीला क्यूं ना हो, सच की एक हल्की सी मार से वह चूर-चूर हो जाएगा. शर्त है कि उसे सच के हथौड़े से मारा जाए.

तो आईये और एकजुट हो जाएं ऐसी हर विचारधारा को कुचलने के ख़ातिर, जो हमें विकास के बहाने विनाश की ओर ले जा रहे हैं. आईए, हम खुद से वादा करें कि हम ऐसी हर विचारधारा से अपनी आख़िरी सांस तक लड़ते रहेंगे और बिहार से इसे सदा के लिए दफ़्न कर देंगे.

(लेखक पटना में एक बिजनेसमैन हैं. और ये उनके खुद के विचार हैं.)

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