नासिरूद्दीन , TwoCircles.net
मुसलमान महिलाओं के साथ ऐसा ही हो रहा है. जब भी वे अपने साथ मज़हब के नाम पर होने वाली नाइंसाफ़ियों के बारे में आवाज़ उठाती हैं, तुरंत चारों ओर से उनका गला दबोचने की कोशिश शुरू हो जाती है. कोई कहता है, यह वक़्त सही नहीं है. कोई कहता है कि ये मसले को बढ़ाचढ़ाकर पेश कर रही हैं. कोई मुसलमानों का ‘अंदरूनी’ मसला बताने लगता है. कोई इन्हें किसी साजिश का हिस्सा बताता है… इन सबके बावजूद भी जब वे चुप नहीं होती हैं तो सदियों से आज़माया नुस्ख़ा इस्तेमाल किया जाता है. कहा जाता है- यह सब मज़हब विरोधी है. ग़ैर इस्लामी है. ग़ैर शरई है.
तीन दहाई पहले शाहबानो के साथ यही हुआ था और शहनाज के साथ भी. दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक मजलिस की इकतरफ़ा तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह के खिलाफ़ अपील करने गई महिलाओं के साथ भी ये सारे तरीके अपनाए गए. मगर वे डिगी नहीं और तलाक़ के इस ज़ालिमाना तरीके को सुप्रीम कोर्ट ने एक बार और ख़त्म कर दिया.
मगर तीन तलाक के इस फैसले के बाद भी इंसाफ़ के लिए जद्दोजेहद कर रही स्त्रिियों की जिंदगी आसान नहीं हुई है. ऐसी ही एक महिला बरेली की निदा ख़ान हैं. उनकी शादी धार्मिक मामलों में भारतीय मुसलमानों के बड़े हिस्से की रहनुमाई करने वाले एक बड़े ख़ानदान में हुई. मगर जल्द ही उनकी शादीशुदा जिंदगी में हिंसा ने अपनी जगह बना ली. जब उन्होंने आवाज़ उठाई तो वे इकतरफा तलाक की शिकार हो गईं. मगर उन्होंने चुप रहना गवारा नहीं किया. कट्टरवादी ताक़तों को यह कहाँ रास आता.
जो लोग बरेली को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि निदा के लिए बरेली में यह कितना मुश्किल काम रहा होगा. उनकी शिकायत नहीं सुनी गई. एफआईआर दर्ज नहीं हुई. मशक्कत के बाद कोर्ट के ज़रिए एफआईआर दर्ज हुई. फिर उनके केस को खारिज कराने की कोशिश तेज़ हुई. जब वे किसी तरह चुप नहीं हुईं तो वही नुस्ख़ा अपनाया गया. उनके नाम से नहीं लेकिन उन्हें और उन जैसों को ही निशाना बनाते हुए मरकज़ी दारुल इफ़्ता, बरेली से एक फ़तवा आया. फ़तवा देने वालों ने बताया कि हलाला जैसी चीजों पर जो सवाल उठा रहे हैं, वे ग़ैर शरई बात कह रहे हैं. फ़तवे में कहा गया कि ऐसी बात करने वाले काफि़र है. तमाम मुसलमान पर यह लाजि़म है कि उनका मुकम्मल बॉयकॉट करें. उससे बातचीत.. उसके साथ खान-पान सब बंद कर दें. अगर बीमार पड़े तो देखने न जाएँ. मर जाए, तो जनाज़े में शरीक न हों, और न इसकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ें और न ही कब्रिस्तानमें दफ़न होने दें.’ प्रेस को बताया गया कि निदा की मदद करने वाले, उससे मिलने-जुलने वाले वालो मुसलमानों को भी इस्लाम से ख़ारिज किया जाएगा.
मज़लूम के साथ यह कैसा इंसाफ हुआ?
यह सामाजिक बहिष्कार है. इसे हम अपनी ज़बान में हुक्का-पानी बंद कर देना भी कहते हैं. यह तो सज़ा है. बर्बर सज़ा. हालाँकि, यह तो कबीलाई-सामंती युग की पहचान हैं. ऐसे किसी भी बहिष्कार की जगह इंसानी कद्रों की इज़्ज़त करने वाले तहज़ीबयाफ़्ता समाज में नहीं हो सकती है. यही नहीं, यह तो संविधान के उसूलों के ख़िलाफ़ है. असंवैधानिक और ज़ालिमाना है. मज़हब की आड़ में ऐसे ज़ुल्म की इजाज़त इस धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक मुल्क में कैसे दी जा सकती है? मगर क्या यह फ़तवा वाक़ई में धर्म को बचाने के लिए दिया गया था?
इस फतवे का वक्त भी ग़ौर करने लायक है. यह फतवा निदा के मामले में कोर्ट की सुनवाई के ठीक पहले आया था. कोर्ट में मामला क्या है… मामला यह है कि निदा घरेलू हिंसा से बचाने वाले क़ानून के तहत अपने अधिकार माँग रही है. उनके पूर्व पति का कहना है कि चूँकि उन्होंने तलाक दे दिया है, इसलिए वे किसी भी अधिकार को पूरा करने के लिए मजबूर नहीं है.
इस फतवे को इस पसमंज़र में भी देखना जरूरी है. निदा के पूर्व पति की हिफाज़त के लिए धर्म का आड़ लिया जा रहा है. हालांकि कोर्ट ने बहुत साफ कहा है कि घरेलू हिंसा से बचाने वाला क़ानून सब पर लागू होता है. कोर्ट की लड़ाई अभी जारी है.
अभी इसकी तपिश ठंडी नहीं पड़ी थी कि एक साहेब ने मुसलमान महिलाओं के हक़ की आवाज उठा रही निदा और फ़रहत नक़वी की चोटी काटने वाले को इनाम देने का एलान एक फ़तवे के जरिए कर दिया. फ़तवा देने वाले शख़्स मुईन सिद्दीकी हैं. वे ऑल इंडिया फ़ैज़ान-ए-मदीना नाम के गुमनाम तंज़ीम के मुखिया हैं. ये वक़्त-वक़्त पर इस्लाम की हिफ़ाज़त के नाम पर यों ही फ़तवे देते रहते हैं.
ध्यान रहे ये दोनों फ़तवे, महज़ कागज़ी लफ़्ज़ नहीं हैं. ये अपने हक़ों की लड़ाई लड़ रही महिलाओं और उनके साथ खड़े सभी लोगों के ख़िलाफ़ उकसाने वाले शब्द हैं. यह लोगों को उकसा रहे हैं कि वे ऐसे सभी लोगों के साथ हिंसक तरीके से पेश आएँ. इसी हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए मज़हब का नाम लिया जा रहा है ताकि हिंसा करने वाले को किसी तरह के गुनाह का अहसास भी न हो. उसे यह हिंसा धार्मिक कर्म लगे. बल्कि धर्म को बचाने में उसका ज़ाती योगदान दिखे. प्रेस को फ़तवे का ब्योरा देने वाले मुफ़्ती साहेब को देख और उनकी बातें सुनकर, इस बात का अहसास और भी शिद्दत से होता है.
तो क्या मज़हब के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा के लिए उकसाना जायज़ है?
निदा खान ने इन फतवों के पसमंज़र में अपनी जान की हिफ़ाज़त के लिए एफआईआर दर्ज करायी तो अब हमले और तेज़ हो गए हैं. मगर यह सवाल महज़ निदा या फ़रहत जैसी महिलाओं का नहीं है. यह उन सबका सवाल है और होना चाहिए जो मज़हब के नाम पर होने वाली नाइंसाफि़यों के आगे सर झुकाने को तैयार नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट में हलाला और बहुविवाह के खिलाफ याचिका दायर करने वालों में एक फ़रज़ाना को भी जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं. कभी निदा हैं, तो कभी फ़रहत और फ़रज़ाना तो कल कोई और होगा. ऐसा बॉयकॉट संविधान के मुख़ालिफ़ है, यह बात जितनी ज़ोरदार तरीक़े से कही जा सकती है, कही जानी चाहिए. इस बीच कुछ लोगों को इसी आधार पर मुसलमानों को खलनायक की तरह पेश करने का मौका मिल गया है. यह भी कहा जा सकता है कि ऐसे लोग एक-दूसरे के हितों के मुहाफि़ज़ हैं. मगर एक बात समझ से परे हैं कि जिन लोगों पर संविधान की हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी है, वे क्यों हाथ-हाथ पर धरे बैठे हैं?
इस मामले में तो एफआईआर भी दर्ज़ है. अगर एफआईदर्ज़ न हो तब भी तो नागरिकों की हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी सरकार की है. खुलेआम इस तरह की धमकी दी जाती रहे तो क्या सरकारें एफआईआर का इंतज़ार करेंगी?
उसी फ़तवे में दो वाक्य हैं- अल्लाह एक ज़र्रा भी ज़ुल्म नही फ़रमाता, अल्लाह बंदों पर ज़ुल्म नहीं करता है. मगर अल्लाह के नाम पर उनके बंदों ने क्या किया? ये वाक्य तो उन पर भी उतना ही लागू होता है.
मज़लूम पर ही जुल्म हो, यह तो इस्लाम की राह नहीं है. दीन-ए-हक़ नहीं है… इसके बरअक्स, मज़लूम महिलाओं के हक़ में खड़ा होना ही दीन-ए-हक़ है. तो क्या हम निदा या फ़रज़ाना जैसी महिलाओं के हक़ में खड़े होंगे?