शरजील इमाम, TwoCircles.net के लिए
जब भी उपमहाद्वीप के इतिहास की कोई मुस्लिम राजनीतिक हस्ती अकादमी या बॉलीवुड के कारण चर्चा में आती है तो भारतीय समाज में उस मुस्लिम शासक के चरित्र पर वाद–विवाद एक नए सिरे से शुरू हो जाता है.
दक्षिणपंथी संगठन मिथकों और किंवदंतियों के आधार पर मुस्लिम शासकों की ‘बर्बरता‘ के बारे में अपना दुष्प्रचार शुरू कर देते हैं. उसके बाद उदारवादी अक्सर इस विषय पर अपना प्रचार चालू करते हैं जिसमें मुस्लिम शासकों को “गैर–इस्लामी एवं सभ्य” अथवा “इस्लामवादी एवं रूढ़िवादी” में से एक के रूप में चित्रित किया जाता है.
कोई मुस्लिम शासक जितना कम इस्लामिक होगा उतना ही ज़्यादा वह उदारवादियों को भाता है. उपमहाद्वीप के इतिहास के सबसे सफल कमांडरों में से एक अलाउद्दीन ख़िलजी आजकल स्पॉटलाइट में है, फ़िल्म ‘पद्मावत‘ के कारण जो कि उसके बाद के दौर में लिखे गए एक महाकाव्य पर आधारित है.
इस फ़िल्म में ख़िलजी का चित्रण बिल्कुल हिन्दू दक्षिणपंथी मॉडल के अनुरूप एक बर्बर मुस्लिम बादशाह के तौर पर किया गया है. हालांकि कुछ मुद्दों पर हिंदू भावनाओं के भी चोटिल होने की बात सुनने में आई है. नारीवादियों को भी इस फ़िल्म पर आपत्ति है.
इस हिन्दू दक्षिणपंथी हमले ने इतिहासकारों को एक बार फिर मुस्लिम शासकों पर लिखने और उनके बारे में लोक–प्रचलित कथानक का खण्डन करने के लिए प्रेरित किया है.
हरबंस मुखिया ”अलुद्दीन खलजी, एक सुल्तान हू डिड नॉट केयर अबाउट प्रोफेट मोहम्मद एंड शरिया‘ नामक एक लेख में इस्लाम के ख़िलाफ़ ख़िलजी के दृष्टिकोण पर चर्चा करते हैं.
‘पद्मावती‘ द्वारा प्रतिपादित दृष्टिकोण का खंडन करते हुए मुखिया कहते हैं:
“जहां तक हम अलाउद्दीन के व्यक्तित्व और जीवन को जानते हैं, महिलाओं के पीछे पड़ जाना उसके शौक़ों में नहीं था.”
वह भन्साली द्वारा गढ़ित ‘मुस्लिम और जंगली‘ के बजाए ख़िलजी को ‘सभ्य और गैर–धार्मिक‘ व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं. हालांकि, ख़िलजी को एक धर्म-निरपेक्ष नेता के रूप में चित्रित करने के अतिउत्साह में मुखिया ने कुछ वैसा ही किया है जैसा कि भंसाली कर रहे हैं —ख़िलजी को एक भौण्डे छायाचित्र में सीमित कर देना और इस्लाम की उसकी समझ को एक अप्रमाणित लोककथा के आधार पर व्याख्यायित करना.
आम तौर पर, इस तरह के एक लेख से इतिहास के एक छात्र को परेशान नहीं होना चाहिए. मुस्लिमों के बारे में कई प्रकाशन काल्पनिक सिद्धांतों पेश कर रहे हैं और हर एक का जवाब देना हमारी क्षमता के बाहर है. फिर भी, मुखिया एक सम्मानित इतिहासकार है इसलिए उनकी तरफ़ से ‘अच्छे मुस्लिम‘ का चित्रण जटिल विषय है जिसे सावधानी से समझा जाना चाहिए.
मुखिया जो कहते है, वो क्यूं कहते हैं?
इस लेख में ख़िलजी के इस्लाम के प्रति रवैये के संदर्भ में दो साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं. सबसे पहले शरीयत का मुद्दा:
…एक बार अलाउद्दीन ने धार्मिक विद्वानों को अपनी उपस्थिति में बुलाया और उनसे बताया कि वह क्या कर रहे हैं, हर बार उनसे पूछा गया कि क्या ये शरीअत के अनुसार है और हर बार बेबाक बहादुर क़ाज़ी ने कहा :- “नहीं, आप जो कर रहे हैं वो शरीअत के निषेधों का पूरी तरह से उल्लंघन करता है.” चिंतित, सुल्तान ने घोषित किया कि उन्होंने जो कुछ किया वह राज्य के सर्वोत्तम हित में था और उसे परवाह नहीं कि वह शरीअत के अनुसार है या ख़िलाफ़.
दूसरा साक्ष्य एक किंवदंती है जिसमें ख़िलजी दिल्ली के कोतवाल से पूछते हैं:-
…क्या वह पैग़म्बर मुहम्मद की तरह एक नया धर्म स्थापित कर सकते हैं? उनके विचार में मुहम्मद ने अपने चार भरोसेमंद साथी की सहायता से इस्लाम की स्थापना की थी और इतिहास में अमर हो गये था; वह भी, एक विशाल साम्राज्य बनाने के बाद और अब ज़्यादा कुछ करने को नहीं रह गया तो एक नये धर्म को स्थापित करना चाहता है, क्योंकि उसके पास भी चार बहुत भरोसेमंद साथी हैं.
उपरोक्त उदाहरण मुखिया की थीसिस का समर्थन करने में विफल रहते हैं.
पहली बात तो ये है कि मौलवियों के विरोध के बावजूद शरीयत की विभिन्न संहिताओं को नज़रअंदाज़ करने का काम तो अधिकांश मुस्लिम शासकों ने किया है.
जहांगीर भारी शराबी के तौर पर प्रसिद्ध है. उसने शेख़ सिह्रंदी क़ैद कर रखा था क्यूंकि शेख़ बादशाह के सामने दण्डवत प्रणाम करने को ग़ैर–इस्लामी क़रार देते थे. फिर भी जहांगीर की इस्लाम के बारे में उदार समझ पर एक लेख के लिए ‘जहांगीर ने पैग़म्बर की परवाह नहीं की थी‘ का शीर्षक उपयुक्त नहीं है. क्यूंकि जहांगीर ने केवल इस्लाम को राज्य के धर्म के रूप में बहाल किया बल्कि उनके संस्मरणों ने बार–बार खुदा की मदद का उल्लेख भी आता है और उसके शाही पुस्तकालय में क़ुरान पर टिप्पणियों के साथ–साथ पैग़म्बर के जीवन-चरित्र भी बड़ी मात्रा में इकट्ठे किए गए थे.
इसलिए मुखिया द्वारा गढ़े गए एेसे शीर्षक से राजा के विचारों की वास्तविकता की बजाए लेखक की अपनी वैचारिक समझ की झलक दिखाई देती है. इसके अलावा इस तरह के दृष्टिकोण इस्लामी न्यायशास्त्र की जटिल प्रकृति और प्रचलित ‘शरिया’ के नाम पर न्यायव्यवस्था के बारे में इस्लाम के भीतर की बहसों को नज़रअंदाज़ करके एक ग़लत समझ पेश करते हैं.
दूसरा साक्ष्य भी अत्यधिक संदिग्ध है. यह ज़ियाउद्दीन बरनी के लेख से उद्धृत किया गया है, जो लगभग आधी शताब्दी बाद लिखा गया था और जिसे कई इतिहासकारों द्वारा दोहराया गया है.
विद्वानों ने इसकी प्रमाणिकता पर सवाल उठाया है, जैसा कि बनारसी प्रसाद सक्सेना ने ख़िलजी पर अपने निबंध में लिखा है. वह इसे महज़ अफ़वाह कहते हैं, जिसे मध्यकालीन और आधुनिक इतिहासकारों द्वारा ‘लापरवाही पूर्वक‘ बरनी से नक़ल किया गया था. सक्सेना का तर्क है कि ख़िलजी का इरादा किंवदंती में उल्लेखित चार दोस्तों में से एक ज़फ़र खान से छुटकारा पाने का था, ना कि उनकी मदद से एक नया धर्म स्थापित करने का.
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यद्यपि ख़िलजी ने शुक्रवार को कभी धार्मिक बैठक नहीं की और ‘उलेमा या उनके विरोधियों में कोई दिलचस्पी नहीं ली‘, उन्होंने खुद को “मुस्लिम और जन्मजात मुस्लिम” घोषित किया और अपने समकालीन निज़ामुद्दीन औलिया की पवित्रता में आस्था प्रकट किया. सक्सेना आगे हमें याद दिलाते हैं:
बरनी हमें ये बताते नहीं थकते कि “अलाउद्दीन कभी मुस्लिम उलेमा से नहीं जुड़े थे, और इस्लाम में उनका विश्वास सामान्य अशिक्षित और अज्ञानी के विश्वास की तरह दृढ़ था.” ऐसा कोई मनुष्य एक नया पंथ कैसे बना सकता है? बरनी ही इस आधारहीन गप्प का एकमात्र स्रोत है.
इस तरह यह किंवदंती ख़िलजी को एक बेवकूफ़ इंसान के तौर पर पेश करती है जो पैग़म्बर के पूरे प्रोजेक्ट को महज़ चार साथियों की मौजूदगी के बराबर समझता है.
दरअसल, ये क़िस्सा ख़िलजी के ख़िलाफ़ उलेमा वर्ग के दुष्प्रचार का हिस्सा प्रतीत होता है, जो कि उसके द्वारा शरिया के उल्लंघन से नाखुश थे.
हम इसकी तुलना जहांगीर के बारे में प्रचलित किंवदंतियों से भी कर सकते हैं जिनमें सिहृंदी की गिरफ्तारी नाटकीय रूप से पेश की जाती है और जहांगीर के सामने लाए जाने पर दण्डवत प्रणाम करने से बचने के उनके चतुर प्रयासों और इंकार का बहुत बढ़ा–चढ़ा कर वर्णन किया जाता है. जहांगीर के संस्मरणों में मौजूद गूढ़ कथानक से स्पष्ट हो जाता है कि इन किंवदंतियों को शब्दश: लेना दरअसल एक विचारधारात्मक अवस्थिति और शोध की एक ग़लत कार्यप्रणाली है. ख़िलजी के समय की विरोधाभासी कथानक कथाएं भी मौजूद हैं —उदाहरण के लिए, इतिहासकार वस्सफ़ सुल्तान के कई अभियानों का कारण ‘इस्लामी‘ जोश मानते हैं. अगर हम इसे एक अतिशयोक्ति मान कर खारिज करते हैं, तो अन्य किंवदंतियों पर विश्वास करने का भी कोई आधार नहीं हो सकता है.
ख़िलजी का शासनकाल 20 वर्ष का था, लेकिन इस्लाम के प्रति उसके रुख को मुखिया एक किंवदंती मात्र में समेट देते हैं. इसके अलावा, शीर्षक भी भड़काऊ जोड़ा गया है कि ख़िलजी ने “पैगंबर की परवाह नहीं की“
ऐसे आरोप अकबर के ख़िलाफ़ भी लगाना मुश्किल होगा, जिन्होंने कि कथित रूप से एक नया धर्म शुरू किया. अकबर ने विभिन्न धर्मों को समझने की कोशिश की और दीने इलाही में मोहम्मद का अनुकरण किया. बिना किसी ठोस सबूत के यह नहीं कहा जा सकता कि वह “पैग़म्बर की परवाह नहीं करता था.”
एेसा लगता हैं कि लेख में उल्लिखित स्रोतों को गंभीरतापूर्वक नहीं पढ़ा गया है और कल्पना की कोई भी उड़ान एेसे शीर्षक को जायज़ नहीं ठहरा सकती.
विकृत नज़रिया और ग़लत पहचान
लेकिन यह कोई नई बात नहीं है —मुस्लिम इतिहास को समझने की काफ़ी समय से यही शैली रही है. कांग्रेस युग के राष्ट्रवादी इतिहासकार इसमें अग्रणी थे, जिसमें मुख्यधारा के इतिहासकारों ने भी अपना योगदान दिया है. अकबर की महिमा की तरह, पाठ्यपुस्तकों में वो लोग नायकों के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं जो इस्लाम को किनारे करते हुए प्रतीत होते हैं.
जिसने जितनी स्पष्टता से इस्लाम को नकारा वो इन इतिहासकारों की नज़र में उतना ही अधिक प्रगतिशील बन गया. अकबर इस शैली का सबसे बड़ा उदाहरण है. इस विचारधारा के परिणामस्वरूप मुग़ल इतिहास की एक ग़लत समझ और औरंगज़ेब की एक खलनायक के तौर पर पहचान स्थापित की गई है. इतिहास की विचारधारात्मक समझ को प्राथमिकता देने वाले कई विद्वान धर्म के विरोध को प्रगतिशीलता का दूसरा नाम समझते हैं, और खुद को मुसलमान कहने वालों की आन्तरिक धार्मिक बहसों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करते हुए ‘इस्लाम‘ के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार के विरोध के चिह्न का जश्न मनाया है.
आमतौर पर एक मुस्लिम जब तक खुद को मुस्लिम मानता है तब तक वह मुस्लिम ही होता है और एेसा कोई भी निर्विवाद प्रमाण नहीं है कि ख़िलजी या अकबर ने मुसलमानों के रूप में अपनी पहचान से इनकार किया. धर्म के ख़िलाफ़ ‘प्रगति‘ का कथानक और आधुनिक ‘धर्मनिरपेक्षता‘ को यह आधुनिकता पूर्व इतिहास पर थोपना कई दशकों से चला आ रहा है.
यह मुख्यधारा के वामपंथी कथानकों में बहुतायत से मौजूद है. लेकिन उदार और राष्ट्रवादी प्रवचनों में इसने और अधिक भयावह रूप ले लिया है. वर्तमान संदर्भ में, यह अल्पसंख्यकों की धार्मिक और राजनीतिक हस्तियों की भर्त्सना करने के काम आता है, और ‘धर्मनिरपेक्षता‘ के पक्ष में इस्लाम को अस्वीकार करने वालों की प्रशंसा करता है. इस प्रकार के अध्ययन कांग्रेस के उन दावों को भी सही ठहराने के काम आते हैं जिसमें वो खुद को और भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष‘ साबित करना चाहती है. (अनुवाद —नाश साक़ी)
(लेखक आईआईटी मुंबई से कम्प्यूटर साईन्स के स्नातक हैं और अभी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आधुनिक इतिहास के रिसर्च स्कॉलर हैं.)