सैय्यद परवेज़, TwoCircles.net के लिए
बदरपुर बॉर्डर से 473 नम्बर बस में चढ़ा. बस की पिछली एक ख़ाली सीट को देखकर वहीं बैठ गया. मैंने देखा कि मेरी दाहिनी ओर दो बच्चे और उन बच्चों के आगे की सीटों पर भी दो और बच्चे बैठे थे. उनकी उम्र लगभग 8-10 साल की लग रही थी. यह सभी काफ़ी मैले कपड़ों में थे. उनके साथ एक आदमी भी बैठा दिखा. उसके कपड़े भी काफ़ी मैले ही थे और उसने मैली कैप भी पहनी हुई थी.
लेकिन उसने सेविंग करा रखी थी. मूछें उसकी कुछ घुमावदार थी, जिसे वह बार-बार छू रहा था. बच्चे ज़्यादा कुपोषित-शोषित की प्रक्रिया में थे. उन्हें देखकर मैंने उस आदमी से पूछा —‘किसके बच्चे हैं?’ उसने कहा —‘दो तो मेरे हैं, दो मेरी खाला के हैं.’
मैंने उससे और उन बच्चों के नाम पूछे, तब उसने अपना नाम कल्लू और बच्चों ने क्रमशः गुल्लू, गोलू, गोल्डन और जित्ते बताया. बच्चे अपना नाम बताकर हंसने लगे.
मुझे लगा कि इन्होंने अपने नाम ग़लत बताए हैं. उस आदमी (कल्लू) से मैंने पूछा —‘कहां रहते हो?’ उसने कहा —‘बुढ़िया नाला’
बुढ़िया नाला फ़रीदाबाद, एनटीपीसी के नज़दीक स्थित एक पुराना पुल है, जिसे लोग बुढ़िया नाला कहते हैं. मैं जब फरीदाबाद में पढ़ रहा था तो इसके बारे में पता किया था. बुढ़िया नाला मूलतः एक ऐतिहासिक पुल है, जो कि मुग़ल-काल में निर्मित हुआ था. यह पुल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की सूची में भी है. इस कुछ समय पहले इसकी काफ़ी ख़राब हालत थी, लेकिन अब कुछ बेहतर है. पहले इस पुल के ऊपर से वाहन गुज़रते थे, लेकिन अब पुल के दोनों तरफ़ गेट लगाकर इसे बंद कर दिया गया है. सिर्फ़ पैदल यात्रियों के लिए ही ये पुल खुला हुआ है.
इस पुल के सन्दर्भ में कुछ किंदवंतियां भी हैं. कुछ लोगों का मानना है कि रात में इस पुल से गुज़रते वक़्त खुद को लूटे या मारे जाने का भय रहता है. मेरा एक मित्र अरविन्द जो एनटीपीसी के बग़ल में रहता है, उसने मुझे पुल के बारे में बताया था कि एक बुढ़िया इस पुल के नीचे रहती थी, जिसके दो बेटे थे उनकी सहायता से वह यात्रियों को लूटा करती थी.
खैर, जो भी हो उन बच्चों के बाल कहीं-कहीं से धूमिल गोल्डन कलर में दिख रहे थे. बस के एक अन्य यात्री ने उस आदमी (कल्लू) से पूछा —इन बच्चों के बाल अजीब क्यों दिख रहे हैं. उस कल्लू ने कहा —‘अरे यह तो डाई कराते रहते हैं.’
उनमें से तीन बच्चों के बाल आगे से ज़्यादा बड़े और पीछे से छोटे दिखे. लेकिन इन बच्चों की स्थिति दयनीय थी. उनके कान के अन्दर की गन्दगी, नाक, बाल, दांत, शारीरिक संरचना बिगड़ती हुई स्पष्टतः दिख रही थी.
मैंने उस आदमी (कल्लू) से पूछा —‘क्या काम करते हो?’ उसने कहा —‘हम कोठियों की तरफ़ जाकर कूड़ा बीनते हैं.’ उसने कुछ सेक्टर के नाम भी बताए. उसने अपनी आय के बारे में भी बताया —‘पैसा तो बहुत है, महीने में दस हज़ार तो हो ही जाते हैं.’
तब मैंने पूछा —‘क्या आप इन बच्चों को स्कूल भेजते हैं.’ इस पर उसने कहा —‘भेजते थे, यह सभी स्कूल से भाग आते हैं. मैंने थोड़ा क्रोधित होते हुए कहा —‘हद हो गई. 8-10 वर्ष का बच्चा स्कूल से भाग आएगा. तुम इन्हें समझाओ, न समझे तो दो थप्पड़ मारो, ठीक हो जाएंगे. मैंने उससे आगे कहा —‘इन्हें तुम स्कूल भेजना ही नहीं चाहते हो.’
इन बच्चों के दांत गुटखा खाने की वजह से पीले व मैले पड़े हुए दिखाई दे रहे थे. उस आदमी के दांत भी वैसे ही थे, उसके मुंह से बीड़ी की बदबू तेज़ी से आ रही थी.
बदरपुर मैट्रो स्टेशन के पास अक्सर मैं तीन-चार और बच्चों को देखता हूं, जो सुलोसन या अन्य नशे की चीज़ों को एक कपड़े में डालकर उसे सूंघते दिखते हैं. वही बच्चे मुझे कूड़ा बीनते और भीख मांगते हुए भी दिखते हैं. उस स्टेशन पर कभी-कभी एक औरत को देखता हूं, जिसके साथ लगभग दो वर्ष का बच्चा रहता है. वह एक जगह बैठकर भीख मांग रही होती है. उसके साथ उसका बच्चा भी राहगीरों को पकड़ लेता है.
उस बच्चे का मासूम चेहरा देखकर अपने बच्चे की याद आ जाती है. पर क्या उस बच्चे को पता है कि वह भीख मांग रहा है. इसी तरह दिल्ली के चौराहों पर 5-6 वर्ष का बच्चे बन्दर नाच करते हुए देखे जा सकते हैं. मैं इन्हीं ख़्यालों में डूबा हुआ था कि मेरी मंज़िल आ गई.
अब मैं पैदल ही अपनी घर की ओर चल पड़ा. लेकिन अब भी मेरे ज़ेहन में कौंध रहे थे कि मुझे उस आदमी (कल्लू) जो अपनी आय 10 हज़ार बता रहा था, क्या वो सच बोल रहा था. और उन बच्चों को तो देखकर प्रश्न ही नहीं उठता कि उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जो मूलभूत ज़रूरत है, उन्हें सही से मिल पा रही होगी. फिर तो शिक्षा की बात बेमानी सी लगती है. वे आम आदमी जो ठेला लगाते हैं, रिक्शा चलाते हैं, दिहाड़ी मजदूरी, डोमेस्टिक वर्करी करते हैं. उनके बच्चे जब नगर निगम स्कूलों में पढ़ने जाते हैं, तो वहां के शिक्षकों का व्यवहार क्या सम्मान जनक होता है? तब यह कूड़ा बीनने वालों के बच्चे वहां जाते होंगे, तो वहां से उनका भाग जाना स्वाभाविक ही लगता है.
फिर जब मस्तिष्क को ऊर्जा यानी अन्न ही नहीं मिलेगा, तो वह सुचारू कैसे होगा. तब स्वास्थ्य की बात भी बेमानी लगती है. इधर सरकार बेघर को अस्थायी रैन बसेरा बनाकर दे देती है. क्या उस रैन बसेरे में रहा जा सकता है. क्या वहां पर रहने वाले लोग और उनके बच्चे सुरक्षित हैं? सरकार उसके स्थायी प्रबन्ध के बारे में क्यों नहीं सोचती?
दिल्ली में रैन बसेरे जो मन्दिरों/मस्जिदों/दरगाहों के पास अस्थायी तौर पर बना दिए जाते हैं. वहीं पर झुग्गियां भी सड़कों को घेर कर बना ली गई हैं. हमारे नेता धर्म, जाति और लव जिहाद से उभर ही नहीं पा रहे हैं. क्या इन झुग्ग्यिों और रैन बसेरों में रहने वाले लोगों के बच्चे भी उनके जैसे ही विकसित हो रहे हैं. हमें अपने देश के बचपन बचाने की परवाह क्यों नहीं दिखती? क्यों देश से ग़ायब हो रहे बच्चों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. कम से कम उत्तर प्रदेश के आंकड़ें तो यही बता रहे हैं. बावजूद इसके कभी भी देश के लिए मुद्दा बना ही नहीं. आख़िर ऐसा क्यों?