दिवाकर, TwoCircles.net के लिए
नगालैंड और त्रिपुरा, ख़ास तौर से त्रिपुरा के चुनाव परिणाम से साफ़ है कि भाजपा की हिन्दुत्ववादी राष्ट्रीयता से निबटने के लिए विपक्ष को लंबी लड़ाई लड़नी होगी.
वैसे, लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की तैयारी भाजपा नेता जिस तरह फिर अचानक ज़ोर-शोर से कराने लगे हैं, उससे लगता है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले ही हो जाए. आश्चर्य नहीं कि लोकसभा चुनाव इसी साल कराने का फ़ैसला सामने आए. ऐसे में, विपक्ष को भी मुक़ाबले की तैयारी जल्द-से-जल्द शुरू करनी होगी.
हम लोगों ने अपने ही देश में राजनीति के कई दौर देखे हैं. इसलिए इस तरह का मुक़ाबला विपक्ष कर सकता है, इसमें शक की गुंजाइश नहीं है. तीन बातें उसे ध्यान में रखनी होगीः
1. यह बात गांठ बांधनी होगी कि विपक्ष का मुक़ाबला भाजपा से नहीं, इस बार संघ से है. हिन्दुत्ववादी राष्ट्रीयता उसका ही कंसेप्ट है और भाजपा उस एजेंडा को लागू कर रही है. यह कट्टरपंथी हिंदुत्व को साॅफ्ट चाशनी में इस तरह डुबो देना है कि अन्य सभी शक्तियां विरोधी दिखें. यही हो रहा है. इसलिए विपक्ष को पूरी शक्ति इस तरह की सोच के ख़िलाफ़ अभियान चलाने में लगानी होगी. राष्ट्रवाद की काट देशप्रेम है. इस अंतर को उभारना होगा कि देशप्रेम और राष्ट्रवाद दोनों अलग-अलग बातें हैं.
2. हारने पर ईवीएम को दोष देने की बात से लोगों को सहमत करना फिलवक्त लगभग असंभव ही है. ईवीएम को लेकर किसी तरह का संदेह हो, तो उसे चुनाव आयोग और कोर्ट में साबित करना होगा. दरअसल, चुनाव जीतने के लिए जीत की पूरी संभावना जनता को दिखनी भी चाहिए. अगर भाजपा विरोधी माहौल लोगों को दिखेगा, तब ही लोग विपक्ष की तरफ़ झुकेंगे. अब भी मतदाताओं की बड़ी संख्या ऐसी है जो इस तरह के किसी अभियान की प्रतीक्षा कर रही है.
3. पारंपरिक तरीक़े अपनाकर भाजपा को परास्त करना संभव नहीं है. लगातार नए उपाय खोजने होंगे.
इसकी तैयारी के लिए विपक्ष को कई जतन करने होंगे. ये क्या हो सकते हैं, इन पर उसे सोचना होगा.
पहली बात तो यही है कि उसे लोकसभा चुनाव की तैयारी अभी से करनी होगी. अगर ध्यान दें तो केन्द्रीय और अधिकांश राज्यों में सत्ता में रहने के बावजूद भाजपा पिछले एक साल से ही इसकी तैयारी कर रही है. विपक्ष के नेता अब भी परंपरागत ढंग से किसी विधानसभा चुनाव से साल-छह माह पहले अचानक एक्टिव दिखते हैं, जबकि भाजपा और संघ के लोग पहले से ही चुनावी मोड में हैं. यह लगभग पूरे देश में पूरे साल 365 दिन एक्टिव रहने-जैसा है. यही तरीक़ा विपक्ष को भी अपनाना होगा.
दूसरी बात कि भाजपा और संघ के लोग हर मौक़े पर सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग कर रहे हैं. कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की बात छोड़ दें तो विपक्ष के अधिकांश नेता अब भी पुराने तौर-तरीक़े का उपयोग कर रहे हैं. दूसरी तरफ़, प्रधानमंत्री ने तो खुले तौर पर अपने सांसदों से कहा है कि वे पारंपरिक मीडिया की जगह मोबाइल टेक्नोलाॅजी-आधारित मीडिया का अधिक से अधिक इस्तेमाल करें. यह फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम से भी अधिक वाट्सएप पर एक्टिव रहने वाली बात है. इससे हर मतदाता से सीधा संपर्क बनाने का आभास देने में मदद मिलती है.
तीसरी बात कि त्रिपुरा नवीनतम उदाहरण है. जहां तीन साल की ज़मीनी तैयारी कर भाजपा ने मतदाताओं को अपनी बातों पर यक़ीन दिलाने में सफलता हासिल की.
भाजपा अपने सहयोगी संगठनों के लोगों के ज़रिए हर राज्य में इस तरह की बूथ स्तर की तैयारी पिछले छह-सात साल से सघन रूप से करती रही है. मोबाइल टेक्नोलाॅजी के उपयोग पर ज़ोर देकर भाजपा इसी तरह हर घर में पहुंच जाती है. जब तक विपक्ष भी इस तरह की तैयारी नहीं करेगा, उसकी जीत मुश्किल ही रहेगी.
चौथी बात कि अटल बिहारी वाजपेयी के हाथ से सत्ता जाने के बाद भाजपा के पास भी कार्यकर्ताओं की कमी थी. भाजपा ने संघ और उसके तमाम सहयोगी संगठनों के ज़रिए एक ऐसा ग्रुप तैयार किया जो आज हर अच्छी बात को हवा में उड़ा देता है. इसमें तमाम क़िस्म के लोग हैं. विपक्ष के पास इस तरह की कोई शक्ति अभी नज़र नहीं आती क्योंकि सभी धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्र समर्थक, भाजपा विरोधी शक्तियां सभी लड़ाइयां अलग-अलग अपने-अपने ढंग से लड़ रही हैं. ये शक्तियां संगठित हो भी नहीं सकतीं, क्योंकि सबके अपने-अपने राजनीतिक एजेंडे हैं. 1977 में कांग्रेस के ख़िलाफ़ जनता पार्टी बनी थी, लेकिन इस तरह के अलग-अलग एजेंडे की वजह से ही वह बिखर गई. इसलिए इस तरह के प्रयोग का कोई अर्थ नहीं है. हां, ये शक्तियां जहां हैं, वहीं से राजनीतिक प्रहार करें, तब ही भाजपा को हराया जा सकता है.
असली सवाल यह है कि क्या विपक्ष की बातों से जनता सहमत हो रही है या होगी? दरअसल, जब तक मतदाता के बड़े वर्ग को यह विश्वास नहीं होगा कि विपक्ष मज़बूत है, वह उसके साथ नहीं आएगा. यह भावना 1977 की तरह पैदा की जा सकती है. उस वक़्त हर तरह की कांग्रेस विरोधी शक्तियां सड़कों पर यह बताने के लिए थी कि वह कांग्रेस के प्रतिरोध में हैं. इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक शक्तियों की प्रमुख भूमिका थी. यही काम अगर भाजपा विरोधी तमाम शक्तियां अपने-अपने ढंग से करें, तब ही जनता को भरोसा हो पाएगा कि वे जीत सकती हैं और उनके साथ जाया जा सकता है.
यह भी मानना ही होगा कि इस क्रम में ऐसे बहुत सारे लोग इकट्ठा होंगे जिनका राजनीतिक इतिहास नहीं होगा या फिर उनका संदेहास्पद इतिहास होगा. ऐसे लोगों पर भी यक़ीन करना मजबूरी होगी और उस गरल को पीना पड़ेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)