फहमीना हुसैन, TwoCircles,net
वैसे कहने को तो उर्दू बिहार में ऑफिशियली सेकंड लैंग्वेज यानी सरकारी दूसरी ज़बान हैं लेकिन आज भी ये कहीं कोने में अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही हैं. होना तो बहुत कुछ चाहिए जैसे हर नाम प्लेट उर्दू में, ज़रूरी कागजात उर्दू मे, एप्लीकेशन उर्दू में ली जाये और उसका जवाब भी उर्दू में दिया जाये, उर्दू की पढने और पढ़ाने के तमाम सहूलियतें हो लेकिन उर्दू बिहार में खुद कागजों से बाहर नहीं निकल पाई.
उर्दू टीचर्स की कमी, पढने और पढ़ाने वाले दोनों नहीं मिलते, नयी नस्ल भी इससे दूर और रही सही कसर सरकार के सौतेले रवैये ने पूरी कर दी हैं.
सरकारी आंकड़ो की माने तो बिहार में इस समय उर्दू शिक्षकों की कुल संख्या 39000 है, कुल मदरसे 3587, जिनमे से अनुदानित 1942 और गैर अनुदानित 1645 हैं.
लेकिन इन गिनतियों के बावजूद उर्दू पनप नहीं पा रही हैं.जमात-ए-इस्लामी हिन्द बिहार के अध्यक्ष मोहम्मद नजरुज्ज़मा ने बताया कि आज कल राजनीतिक कारणों की वजह से उर्दू को मुसलमानों की और हिंदी को हिन्दुओं की भाषा माना लिया गया है. जिसकी वजह से स्कूल कॉलेज तक में उर्दू को लगातार नज़र अंदाज़ किया जा रहा है.
इस मामले में जमात इस्लामी हिन्द के स्थानीय अध्यक्ष रिजवान साहब कहते हैं, “उर्दू किसी मज़हब की जुबान नहीं हैं. हिन्दुस्तान की जबान है ये अलग बात है कि आज भी अगर उर्दू भाषा में कहीं काम के लिए उर्दू में एप्लीकशन देने तो लोग लेने से मना कर देतें हैं. बैंक, स्कूल या किसी भी दफ्तर में उर्दू दरख्वास्त लेना तो दूर देखना भी पसंद नहीं करतें हैं”.
हालात हमेशा से ऐसे न थे. कभी बिहार में उर्दू का भी बोलबाला था. गया कॉलेज के ज़ियाउल अंसारी कहते हैं,”देश हो या राज्य सभी जगह उर्दू की हालत निचले पायदान पर है. आज स्कूल में उर्दू के शिक्षक ना के बराबर हैं. बीस साल पहले तक कक्षा एक से ग्रेजुएशन तक सारी किताबें उर्दू में उपलब्ध होती थी लेकिन अब उर्दू भाषा की किताबें भी कोर्स कंम्प्लीट होने पर मिलती हैं. सरकार की तरफ से उर्दू किताबों की छपाई सबसे लेट होने कीवजह से छात्रों को देर से मिलती हैं. यही वजह हैकि समय पर किताब- शिक्षक ना होने से बच्चे उर्दू के बजाय हिंदी माध्यम मे ज्यादा हैं.
उर्दू ज़बान को नौकरी से न जोड़ना भी इसके गिरने का एक बड़ा कारण हैं. गया निवासी, सादिक इस्लाम (२३) ने उर्दू और मौलवी की पढाई की है. लेकिन वो बेरोजगार हैं क्यूंकि बिहार में उर्दू जुबान वालों के लिए नौकरी नहीं है. ” जब तक राज्य स्तर की प्रतियोगिता परीक्षाओं में उर्दू को अनिवार्य नहीं किया जायगा तब तक उर्दू जुबान वालों को शायद ही सरकारी नौकरियों के लिए कोई फायदा मिल पाएगा,” सादिक बताते हैं.
सरकार के आंकड़ो के मुताबिक 2013 के स्पेशल टी ई टी में जिन 16882 उर्दू शिक्षकों ने परीक्षा पास की थी, उनमें से भी 3882 शिक्षकों की अब तक नियुक्ति नहीं हो पायी है. साथ ही वर्तमान के आकड़ों के मुताबिक इस वक्त सिर्फ 39 हजार उर्दू शिक्षक की कार्यरत हैं, इनमें से भी बड़ी संख्या अस्थायी शिक्षकों की है जो मानदेय पर विद्यालयों में कार्यरत हैं.
इस्लामिया पब्लिक स्कूल के शिक्षक मोहम्मद आबिद अंसारी कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में उर्दू की स्तिथि की मॉनिटरिंग नहीं होने से इस भाषा का पठन-पाठन लगभग बंद हैं. बच्चों को किताबें नहीं मिल रहीं हैं. ज्यादातर स्कूलों में उर्दूसिर्फ एक भाषा सप्लीमेंट्री के तौर पर पढ़ाई जाती है. जब तक उर्दू को तकनीकी शिक्षा से जोड़ा नहीं जायगा तब तक कुछ भी संभव नहीं है. दसवीं बोर्ड के प्रश्न पत्र उर्दू में भी छपने चाहिए.
बिहार में उर्दू मीडियम से उस्तानिया, फोकानिया की पढाई को मान्यता दी गयी है.
इस मामले में बिहार के सासाराम की रहने वाली 26 वर्षीय यास्मीन फातिमा कहती हैं कि उन्होंने 2015 में फोकानिया का इम्तिहान पास किया था. उसके बाद आगे की पढाई के लिए जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में डिस्टेंस एजुकेशन के तहत मास्टर्स में उर्दू से अप्लाई किया लेकिन एड्मिसन नहीं मिल पाया. वहां के अधिकारी ने बताया कि यहाँ उस्तानिया-फोकानिया को मान्यता नहीं दी जाती है, ये डिग्री केवल राज्य स्तर तक ही मान्य है.
अब आगे पढाई ना कर पाने की वजह से बहुत से स्टूडेंट्स हायर एजुकेशन नहीं ले पाते और अच्छी नौकरी नहीं मिलती. ऐसे हालात के लिए सिर्फ सरकारें ज़िम्मेदार नहीं हैं. नयी नस्ल भी उर्दू नहीं पढना चाहती हैं. बिहार के एक उर्दू अख़बार में काम करने वाले मुमताज़ अहमद का मानना है कि उर्दू अब सिर्फ सियासी भाषा हो चुकी है. अंग्रेजी और हिन्दी के मुकाबले युवाओं का रूझान उर्दू की तरफ कम है. हिंदी पत्रकारिता के मुकाबले उर्दू पत्रकारिता ना के बराबर है.
हाँ, एक बात ज़रूर हैं. उर्दू अभी भी गरीब मुसलमानों के पास बची हैं. शायद उसकी एक वजह ये भी हैं कि वो महंगे अंग्रेजी मीडियम स्कूल में अपने बच्चो को नहीं भेज पाते और मोहल्ले में खुले हुए उर्दू मीडियम के मदरसे ही उनका सहारा हैं. इसके अलावा जिसके पास पैसा हैं वो सीधे अंग्रेजी मीडियम स्कूल की ओर जाता हैं.