By अनुज श्रीवास्तव, TwoCircles.net
साल 2012. मुख्यमंत्री रमनसिंह के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी. बीजापुर ज़िले के सारकेगुड़ा गाँव में 28-29 जून की दरम्यानी रात सीआरपीएफ और पुलिस कर्मियों की एक संयुक्त टीम ने फ़ायरिंग में 17 आदिवासियों को मार दिया था. इसे एक नक्सली मुठभेड़ कह कर प्रचारित किया गया. पिछले दिनों जस्टिस वी के अग्रवाल की अध्यक्षता में बने न्यायिक आयोग ने इसकी रिपोर्ट पेश की जिसमें कहा गया कि मारे गाए आदिवासी नक्सली नहीं थे और उस रात नक्सली मुठभेड़ जैसी कोई घटना नहीं हुई थी.
पुलिस ने कहा नक्सली मुठभेड़
पुलिस ने कहा था कि ये एक नक्सली मुठभेड़ थी. वे रात में सर्चिंग के लिए निकले थे, नक्सलियों की बैठक चल रही थी. पुलिस ने ये भी कहा था कि नक्सलियों की तरफ से फ़ायरिंग शुरू हुई, जवाबी फ़ायरिंग में 17 नक्सली मारे गए और 6 पुलिसकर्मी घायल हुए.
ग्रामीणों का कहना इससे बिलकुल उलट
ग्रामीणों ने दावा किया कि वे ‘बीज पंडुम’ (बुवाई त्योहार) त्योहार की तैयारी तैयारियों के सम्बन्ध में बैठक कर रहे थे. कई गाँवों से लोग आए थे इसलिए बैठक खुले मैदान में चल रही थी. सुरक्षाकर्मी वहां आए और बिना किसी चेतावनी के अचानक फ़ायरिंग शुरू कर दी. फ़ायरिंग ख़त्म करने के बाद पुलिस ने लोगों की पिटाई भी की. अगले दिन सुबह एक और व्यक्ति को उसके घर में घुसकर गोली मार दी. घटना में 17 लोग मरे जिनमे 7 नाबालिग शामिल हैं. इसके आलावा 10 अन्य ग्रामीण घायल हुए.
रिपोर्ट आने में 7 साल लग गए
सारकेगुड़ा मुठभेड़ काण्ड की निष्पक्ष जांच के लिए 11 जुलाई 2012 को जबलपुर हाईकोर्ट से रिटायर्ड जस्टिस वी के अग्रवाल की अध्यक्षता में न्यायिक जाँच आयोग का गठन किया गया. कई बार जाँच आयोग के कार्यकाल की समय सीमा आगे बढ़ाई गई. इसी साल 30 जून को आयोग का कार्यकाल समाप्त हो रहा था लेकिन राज्य शासन ने आयोग के अनुरोध पर ये अवधि 3 महीना और बढ़ा दी थी. 2012 में हुई घटना की जांच रिपोर्ट अब जाकर 2019 में पूरी हो पाई है.
जाँच में पुलिस झूठी साबित हुई
78 पन्नों की इस रिपोर्ट से ये साफ़ ज़ाहिर होता है कि पुलिस द्वारा बताई गई नक्सली मुठभेड़ वाली कहानी झूठी और मनगढ़ंत थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि गांव वालों को प्रताड़ित किया गया और बाद में उन्हें काफी करीब से गोलियां मारी गईं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ऐसा लगता है कि सुरक्षाबलों ने हड़बड़ाहट में फायरिंग की. रात में कई घंटों की कथित मुठभेड़ के बाद एक ग्रामीण को अगली सुबह गोली मारी गई.
रिपोर्ट की कुछ अहम बातें
# रिपोर्ट से निष्कर्ष निकलता है कि घटना सरकेगुड़ा, कोत्तागुड़ा और राजपेंटा गाँव के बीच एक खुले मैदान में हुई. अतः सुरक्षाबलों की वो बात गलत साबित होती है जिसमें उन्होंने कहा था कि मुठभेड़ घने जंगल में हुई.
# रिपोर्ट कहती है कि ये प्रमाणित नहीं होता है कि इस घटना में मारे गए लोग नक्सली थे क्योंकि इस सम्बन्ध में पुलिस कोई संतोषजनक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाई.
# सुरक्षाबलों ने बयान में कहा कि उन्होंने जवाबी फ़ायरिंग की थी जबकि रिपोर्ट में ये साफ़ कहा गया है कि फ़ायरिंग एकतरफ़ा, केवल उराक्षबलों की तरफ से हुई.
# सुरक्षा बलों को लगी चोटों का गहराई से विश्लेषण करने के बाद, आयोग का निष्कर्ष है कि उनकी चोटें किसी अन्य के द्वारा दूर से फायरिंग के कारण नहीं हो सकती थीं, और संभवतः वे अपनी ही पार्टी के सदस्यों की क्रॉस फायरिंग के कारण हुई थी. जिस तरह की चोटें घायल सुरक्षा कर्मियों को आई हैं, वह दूर से फायरिंग के कारण नहीं हो सकती थी.
# पुलिस की जांच दोषपूर्ण है. छर्रों आदि का जब्ती नामा ठीक से नहीं बनाया गया था. जब्ती ज्ञापन में जब्त किए गए सामानों का पूरा विवरण नहीं है. इसके अलावा, जब्त की गई वस्तुओं को ठीक से सील नहीं किया गया था. इस प्रकार, जब्ती कानून के द्वारा स्वीकृत प्रक्रिया के अनुसार नहीं थी, जो अत्याधिक विलंब से और मानदंडों के अनुसार नहीं था.
# सुरक्षाबलों द्वारा की गई गोलीबारी आत्मरक्षा में नहीं थी. लगभग छह मृतक ग्रामीणों के सिर में बंदूक की चोटें थीं. मृतकों में से 11 को उनके धड़ पर गोली लगने की चोटें थीं. 17 में से 10 मृतकों को पीठ पर बंदूक की चोटें थीं, जो स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि सुरक्षा बलों ने आत्मरक्षा में गोली नहीं चलाई थी, बल्कि जब मीटिंग में मौजूद लोग गोलियां चलने के बाद घटना स्थल से भाग रहे थे, उस वक़्त उन पर गोली चलाई.” एक व्यक्ति को उसके सिर के ऊपर से गोली मार दी गई थी और बर्स्ट फायरिंग का भी सबूत है, हालांकि सीआरपीएफ ने इससे इनकार किया है.
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में कार्य करने वाले सामाजिक कारुकर्ता आलोक शुक्ला ने पिछली भाजपा सरकार पर इलज़ाम लगाते हुए कहा है कि “बस्तर में माओवादियों से मुठभेड़ के नाम पर किस तरह से निर्दोष आदिवासी मारे जा रहे हैं आज यह रिपोर्ट उस सच्चाई को बयान करती है. 2012 में सरकेगुड़ा में सुरक्षा बलों ने 17 निर्दोष आदिवासियों को मार दिया था और बेशर्म रमन सरकार इस मुठभेड़ को सही बताती रही. आज भी निर्दोष आदिवासी मारे जा रहे हैं.” आलोक शुक्ला ने सवाल उठाया है कि इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर रखते हुए सदन में चर्चा चर्चा होनी चाहिए थी जो नहीं की गई. दोषी पोलिस अधिकारियों और पूर्व मुख्यमन्त्री रमनसिंह पर FIR दर्ज होनी चाहिए.”
बस्तर के स्वतंत्र पत्रकार लिंगाराम कोड़ोपी ने कहा कि “वैसे तो ये जाँच रिपोर्ट आदिवासियों के पक्ष में है लेकिन ये सिर्फ एक रिपोर्ट है आदिवासियों को इससे कोई न्याय बिल्कुल नहीं मिला है. क्योंकि देर से मिला न्याय, न्याय नहीं अन्याय होता है.”
मानव अधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का कहना है कि “छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने मिट्टी की पूजा का त्यौहार मनाते समय 17 आदिवासियों को चारों तरफ से घेर कर गोलियों से भून दिया था. मारे गए लोगों में कई छोटे बच्चे थे. इस मामले में आदिवासियों की सबसे ज्यादा मदद करने वाली महिला वकील सुधा भारद्वाज आज जेल में बंद है. छत्तीसगढ़ के भाजपाई मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तब मीडिया को बताया था कि मारे गए लोग नक्सलवादी हैं और उन्होंने पुलिस पर हमला किया था. अब उस मामले की जांच रिपोर्ट आ गई है. जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि वहां कोई नक्सलवादी मौजूद नहीं था पुलिस ने चारों तरफ से गोली चलाकर निर्दोष आदिवासियों की हत्या की थी. भाजपा का हत्यारा मुख्यमंत्री रमन सिंह आपत्ति व्यक्त कर रहा है और कह रहा है कि जांच रिपोर्ट मीडिया को लीक क्यों करी गई इसे सिर्फ विधानसभा में ही पेश किया जाना चाहिए था. इस तरह के खेल पहले भी खेले जाते रहे हैं.”
आम आदमी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कोमल हुपेण्डी ने कहा कि “सारकेगुड़ा की घटना दिल दहला देने वाली बेहद शर्मनाक घटना थी, जहां मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया. इस हत्या से जुड़े सभी जिम्मेदार लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर सेवा से बर्खास्तगी की कार्यवाही की जानी चाहिए.”
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव संजय पराते ने पीड़ित आदिवासी परिवारों को 50-50 लाख रुपये मुआवजा देने की मांग करते हुए टिप्पणी की है कि “2012 की घटना की 7 साल बाद रिपोर्ट आना और दोषियों के लिए अब भी सजा का इंतज़ार करना, प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ संघर्ष कर रहे आदिवासी समुदायों के लिए न्याय पाने के लिए अंतहीन इंतजार करने जैसा है. इस स्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता.”
छत्तीसगढ़ के किसान व समाजवादी नेता नन्द कश्यप ने कहा कि “सरकार की जांच में ही जब यह बात कही गई है कि सारकेगुड़ा में गोलियों से भून दिए गए आदिवासी निर्दोष थे, नक्सल नहीं थे, यह सिद्ध करता है कि रमनसिंह सरकार आपराधिक साजिश के तहत सारे प्रदेश के आदिवासियों को फर्जी मुकदमे में फंसकर मुठभेड़ में मार रही थी सिर्फ इसलिए कि घने जंगलों के नीचे बहुमूल्य खनिजों को चंद कारपोरेट के हाथों सौंपा जा सके. रमनसिंह और उस समय के जिम्मेदार अधिकारियों को सजा मिलनी चाहिए.”
सारकेगुड़ा की हत्यारी रात शपथ पत्रों में
जब ये घटना हुई तब कई स्वतंत्र समूह भी ग्रामीणों से जाकर मिले और सच जानने की कोशिश की. उनमे से कुछ ग्रामीणों के बयान यहां प्रस्तुत हैं. हपका चिन्नू न्र कहा कि “फ़ोर्स ने चारों ओर से घेर लिया और कहा कि कौन हो. हम सब ने जोर से कहा कि हम जनता हैं, फिर भी फ़ोर्स ने किसी की नहीं सुनी, चारो तरफ़ से फायरिंग शुरू कर दी, और अफरातफरी मच गई.”
ग्राम पंचायत कोत्तागुड़ा की सरपंच इरपा कमला ने बताया कि “कुछ गाँव वालों और उनका खुद का बयान दबाब डाल के लिखवाया गया. कमला के मुताबिल पुलिस गाँव वालों से ज़बरदस्ती लिखवा रही थी कि बैठक में नक्सली आए थे.”
सारकेगुड़ा के बबलू का कहना है कि 28-29 जून को बासेगुडा थाने के गाँव कोत्तागुडा, सरकेगुड़ा और राजपेन्टा में तीन गाँव के लोगो की बैठक थी, बैठक में उसका छोटा भाई सारके रमला [25] भी गया था, वो शादी-शुदा और तीन साल के बच्चे का पिता था, उसके नाम राशन कार्ड भी था. मीटिंग में सिर्फ गाँव वाले ही थे, किसी के पास हथियार नहीं थे, सुबह थाने गए तो पता चला कि मेरा भाई मारा गया है.”
काका नागी ने कहा कि “मेरा पति सीधा सादा आदिवासी किसान था, 28 तारीख को वो त्यौहार की बैठक में गया था, उस रात फायरिंग हुई. उसने कभी नहीं सोचा था कि उसके पति की ऐसे मौत हो जाएगी. “जब मुझे उसका शव मिला तो उसके दोनों घुटनों के नीचे की हड्डिया कुचली हुई थी, छाती पर गोली के निशान थे, आँख और जांघ पे भी कुचलने के निशान थे.”
कोत्तागुड़ा की कमला काका ने कहा कि घटना की रात लगभग 9 बजे फायरिंग हुई, कई लोग घबरा के हमारे घर में घुस गए. घटना स्थल उनके घर से दूर था, सब रत भर तनाव में बैठे रहे. सुबह भी गोली की आवाज़ सुनाई दी. जब हम वहां गए तो वहां मेरे 15 साल के भतीजे राहुल काका की टूटी घडी पड़ी मिली. सवेरे थाने गए तो पता चला कि 17 लोग मारे गए हैं, जिसमें मेरा 15 साल का भतीजा काका राहुल भी था.”
ये कुछ बयान हैं जो सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पे ग्रामीणों ने शपथ पत्र में दिए थे.
छत्तीसगढ़ की पिछली सरकार पर सारकेगुड़ा जाँच को प्रभावित करने के आरोप भी लगते रहे थे. शुरुआत में मामले की स्वतंत्र जाँच करने की बजाए सिलेगार और चिम्लीपेटा के साथ जोड़कर संयुक्त जाँच की बात कही गई थी. सिलेगार और चिल्मिपेटा की घटनाये जंगरगुण्डा थाना की थीं, जबकि सारकेगुड़ा की घटना बासागुड़ा के अंतर्गत आती है. इससे जाँच में असर पड़ सकता था. आरोप लगे कि सम्बंधित गाँवों में फ़ोर्स का पहरा लगा दिया गया था ताकि ग्रामीण किसी से मिल न पाएं.
रिपोर्ट आने के बाद छत्तीसगढ़ के मानव अधिकार कार्यकर्ताओं ने उम्मीद जताई है कि अब दोषियों पर जल्द से जल्द कड़ी कार्रवाई की जाएगी. मांग ये भी उठ रही है कि इस तरह के अन्य मामलों पर भी कार्रवाई तेज़ की जाए.