जल-जंगल-जमीन, भेदभाव की सरकारी नीतियां के खिलाफ उतरे सैकड़ों दलित-आदिवासी

फ़हमीना हुसैन, TwoCircles.net
पिछले साल दो अप्रैल को हुए भारत बंद के बाद फिर देश में भारत बंद रहा। 5 मार्च को होने वाले इस बंद में दलितों के अलावा आदिवासी संगठनों का भी इस बार समर्थन मिला है। इस भारत बंद को बिहार के राजनीतिक पार्टी राजग, और बिहार के झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, और वामपंथी दलों का भी समर्थन मिला।
पिछले बंद एससी एसटी एक्ट को लेकर हुआ था, तो इस बार के मुद्दों की बात करें तो पहला आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने का जो हालिया आदेश सर्वोच्य न्यायालय ने दिया, उसकी जगह अध्यादेश लाए केंद्र सरकार, दूसरा 13 पाइंट रोस्टर के कारण आरक्षण व्यवस्था लगभग ख़त्म को चुकी।
सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार के रिंकु यादव और रामानंद पासवान ने कहा कि बहुजनों ने ऐलान कर दिया है कि संविधान व सामाजिक न्याय विरोधी सवर्ण आरक्षण के खिलाफ निर्णायक लड़ाई है, सवर्ण आरक्षण दलितों -आदिवासियों-पिछड़ों के आरक्षण पर हमला है।
झारखण्ड जमशेदपुर में प्रदर्शनकारियों की माने तो वो आदिवासियों का विस्थापन कर सरकार हम से हमारी जमीन और रोजगार छीनकर शहरों में आने को मज़बूर कर रही जहाँ हम जैसे आदिवासी अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान के मज़दूर बनने को मज़बूर हैं।
जागृत आदिवासी दलित संगठन के लोगों ने नरेगा में मजदूरी के बाद मजदूरी का भुगतान नहीं होने की बात कही। पिछले काफी समय से नरेगा में राशि आवंटन में कमी की गई है और मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान भी पिछले दस महीनो  से नहीं हुआ।
बंद में कई बहुजन समूह भी शामिल रहे,  इनका आरोप है कि 13 प्वाइंट रोस्टर के लाए जाने से एससी, एसटी और ओबीसी उम्मीदवारों का विश्वविद्यालयों के विभागों में नियुक्ति नहीं पाई है। जिसको लेकर राष्ट्र प्रगति पार्टी के नीरज कुमार और सामाजिक न्याय आंदोलन के सौरव कुमार ने कहा कि देश के बहुजनों ने नरेन्द्र मोदी सरकार से भारत बंद में उतरकर साफ कह दिया है कि वह अविलंब 13 प्वाइंट रोस्टर के खिलाफ 200 प्वाइंट रोस्टर के पक्ष में अध्यादेश लाए।
उच्च शिक्षण संस्थानों की नियुक्तियों में 13 प्वाइंट रोस्टर की जगह 200 प्वाइंट रोस्टर लागू करने की मांग के अलावा विभिन्न मुद्दों पर भारत बंद बुलाया गया है। दलित संगठनों का कहना है कि शैक्षणिक व सामाजिक रूप से भेदभाव, वंचना व बहिष्करण का सामना नहीं करने वाले सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रद्द होना चाहिए। इसके साथ ही उनका कहना है कि आरक्षण की अवधारणा बदलकर संविधान पर सरकार हमले बंद करे। उनकी मांग है कि देश भर में 24 लाख खाली पदों को भरा जाए।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने बीती 13 फरवरी को एक बेहद अहम फैसला सुनाते हुए 21 राज्‍यों को आदेश दिए हैं कि वे अनुसूचित जनजातियों और अन्‍य पारंपरिक वनवासियों को जंगल की ज़मीन से बेदखल कर के जमीनें खाली करवाएं। कोर्ट ने भारतीय वन्‍य सर्वेक्षण को निर्देश दिए हैं कि वह इन राज्‍यों में वन क्षेत्रों का सर्वेक्षण कर के कब्‍ज़े की स्थिति को सामने लाए और इलाका खाली करवाए जाने के बाद की स्थिति को दर्ज करवाए।
वनाधिकार अधिनियम को इस उद्देश्य से पारित किया गया था ताकि वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक नाइंसाफी को दुरुस्‍त किया जा सके। इस कानून में जंगल की ज़मीनों पर वनवासियों के पारंपरिक अधिकारों को मान्‍यता दी गई थी जिसे वे पीढि़यों से अपनी आजीविका के लिए इस्‍तेमाल करते आ रहे थे।
रांची के सामाजिक कार्यकर्त्ता आलोक कुजूर का कहना है “झारखंड में देशी-विदेशी पूंजीपतियों द्वारा जल-जंगल-जमीन की आक्रामक लूट ,राजकीय दमन और सांप्रदायिक उन्माद-उत्पात,सामाजिक न्याय व संविधान पर हमले के खिलाफ सामाजिक संगठनों व जन संगठनों ने लगातार मोर्चा लिया है.जुझारु आंदोलन-अभियान चलाने के साथ दमन का मुकाबला किया है। जनता के आक्रोश-आकांक्षा को मजबूती से बुलंद किया है। केन्द्र व राज्य सरकारों के खिलाफ जनता के पक्ष से असली विपक्ष की भूमिका निभाई है।”
उन्होंने बताया कि इन चार-पांच सालों में भाजपा के द्वारा दमन और लूट झारखंड में दो जगहों पर सबसे ज्यादा हुआ है। पहला खूँटी और दूसरा गोड्डा। इस समय हमलोगों का मानना है कि सामाजिक संगठनों तथा जनांदोलनों को सिर्फ मूकदर्शक नहीं बने रहना चाहिए। 

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE