लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा होने के बाद चुनाव में गिनती के बचे दिन ही रह गए हैं. ऐसे में सभी पार्टियां अपने वोट साधने की आखरी कोशिश में लग चुके हैं वही मुस्लिम वोट को अपने अपने पक्ष में करने के आखरी पायदान पर भी आ चुकें हैं. अगर मुस्लिम वोटों की बात करें तो कांग्रेस के अलावा राजद, सपा, बसपा, जदयू जैसी पार्टियां मुस्लिम वोटों का साथ पाना चाहती हैं.
जब मुस्लिम वोटों की बात आती है तो मुस्लिम औरतों के अधिकार वर्सेस वोटों को लेकर भी पिछले दिनों लम्बी राजनीति चली. पिछले दिनों मौजूदा केंद्र की भाजपा सरकार भी मुस्लिम महिला संरक्षण अध्यादेश के लिए यही किया.
दरअसल सुप्रीम कोर्ट में देश की पांच मुसलमान महिलाओं ने ‘तलाक़ ए बिदत’ यानी तीन तलाक़ के कानून को 2016 में चुनौती दी थी. तभी से भाजपा की सरकार इस बारे में सक्रिय हो गई. भीड़ हिंसा में हत्या को रोकने जैसे अन्य मुद्दों में कोताही बरतने वाली मोदी सरकार तीन तलाक़ मुद्दे को लेकर मुसलमान महिलाओं में पैठ बनाने का मौका तलाशने लगी.
इस मामले में बिहार की गया कॉलेज की राजनीतिक शास्त्र की शिक्षिका कायनात हुसैन का कहना है कि “संसद या राज्यों की विधानसभाओं में मुस्लिम महिलाएं ना के बराबर हैं. यहाँ तक कि आज भी मुस्लिम औरतों की ज़मात भले शिक्षा के थोड़ा आगे आया हो पर आज भी वो अपने अधिकारों की बात नहीं कर सकतीं।”
उन्होंने चुनाव को लेकर कहा कि “किसे वोट करना या ना करना उनका निजी अधिकार है. इसके साथ ही कायनात का कहना है कि केंद्र सरकार को मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक़ से ज्यादा आरक्षण aur शिक्षा की ज़रूरत है ताकि वो स्वम् अपने अधिकारों का निर्वाह कर सके.”
देखा जाए तो सभी राजनीतिक दल महिलाओं के हित की बातें खूब करते हैं लेकिन अधिकार देने की बात आते ही सभी पीछे खिसकने लगते हैं. संसद और विधानसभा में महिलाओं को आरक्षण देने का बिल वर्षों से लंबित पड़ा है. दस वर्षों से यूपीए की कांग्रेस सरकार हो या पांच वर्षों में भाजपा की एनडीए सरकार ने महिला आरक्षण बिल को पास करवाने का किसी भी सरकार ने प्रयास नहीं किया. वही तीन तलाक़ को लेकर मुस्लिम औरतों के हमदर्द होने को लेकर अध्यादेश ले आई.
मुस्लिम महिलाओं को लेकर लाया गया तीन तलाक़ विधेयक लोकसभा में पास होने के बाद राज्य सभा में लटक गया. इसी कारण सराकर को बिल लेकर बार बार अध्यादेश लाना पड़ा. इस साफ़ पता चलता है कि महिलाओं को लेकर राजनीतिक दल कितने गंभीर हैं.
पटना में सोशल वर्क की छात्रा हेरा फातिमा का इस लोकसभा चुनाव को लेकर कहना है “बड़े बड़े मंच पर नेता घोषणाएं करते है लेकिन अगले ही दिन सब भूल जाते हैं. अन्य क्षेत्रों में अधिकार दिलाने की बात करते हैं लेकिन राजनितिक क्षेत्रों में हक़ दिलाने की बात आते ही चुप्पी साध लेते हैं.”
हेरा का मानना है कि “मुस्लिम औरतों को वोट बैंक तक सीमित रख दिया जाए ऐसे अब मुमकिन नहीं है. उनका कहना है हमे अच्छे से पता है कि हमे किसे वोट करना है और क्यों करना है.”
बिहार के सासाराम कोर्ट में वकालत की ट्रेनिंग कर रही रुकैया इस्लाम का कहना है कि “पहले के मुकाबले अब सोशल मीडिया के ज़रिये महिलाओं में भी बाकी क्षेत्रों की के मुकाबले राजनीति समझ भी आने लगी है.”
उन्होंने कहा कि “केंद्र की भाजपा सरकार हो या राज्य के पार्टी फेस नीतीश कुमार, ये सभी राजनीतिक पार्टिया उज्वला योजना, अध्यादेश जैसे योजनाओं के सहारे उन तक पहुंचना चाहते हैं. लेकिन ये तब ही संभव है जब किसी योजना का लाभ उन तक पंहुचा हो.”
दरअसल अधिकरत मुस्लिम महिलाओं 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर अपने तमाम राजनीतिक पार्टियों से अपने सही अधिकरों के नज़र अंदाज़ करने का विरोध जताया वहीँ उन्होंने अपने वोट करने की भागीदारी को भी महत्वपूर्ण बताया।
बिहार AIMIM के युवा अध्यक्ष आदिल अहमद का कहना है कि वर्ष 2014 और 2019 में बहुत फ़र्क़ है. मुद्दा आधारित राजनीति देश में जगह बना चुकी है. 2014 के चुनाव के मुद्दे जहाँ अलग थें वहीँ इस बार 2019 के चुनावी मुद्दे अलग हैं. भाजपा को ये बात अच्छे से पता है कि नीतीश कुमार के बिना बिहार जीतना आसान नहीं। पिछले साल भाजपा के साथ मिलकर दोबारा गठबंधन करने के बाद जदयू दो मोर्चों पर कमजोर हो गई. संघ मुक्त नारा देने के बाद फिर भाजपा से मिलने पर वैचारिक स्तर पर जदयू को नुक्सान हुआ वहीँ आम लोगों में नीतीश कुमार की छवि घोर अवसरवादी की बनी.
पटना के रहमान 30 के फाउंडर ओबैदुर रहमान ने कहा कि चुनावी नारों में विकास-विकास की जो गूंज चारों तरफ सुनाई पड़ रही है, उसमें मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को भी अगर जगह मिल सके तो बेहतर होगा.”
उन्होंने कहा कि मुस्लिम औरतें कितना वोट करती हैं इससे ज्यादा ज़रूरी है उन्हें ससक्त बनाने के लिए सभी पार्टियों को आगे आना. अगर आंकड़ों की बात करें तो अल्पसंख्यक रिपोर्ट/ गोपाल सिंह कमेटी रिपोर्ट, सच्चर कमिटी की रिपोर्ट दोनों ही ने मुस्लिम औरतें गैर-मुस्लिम महिलाओं की तुलना में हर स्तर पर पिछड़ी होने की बात कही.
उन्होंने आगे कहा कि 2014 के मुकाबले 2019 की बात करें तो इस बार का चुनाव सभी चुनाव से अलग है. क्यूंकि इस का लोकसभा चुनाव किसी विचारधारा की नहीं बल्कि सही मुद्दे और अधिकारों का चुनाव है. फिर चाहे मुस्लिम महिलाओं का हो या दलित महिलाओं की.