By राकेश दर्रो, TwoCircles.net
यह कहना गलत नहीं होगा कि आदिवासी संस्कृति का हिस्सा नहीं है दीपों का पर्व दीपावली क्योंकि बस्तरिया आदिवासी दीपावली पर्व ना मना कर देवारी पर्व ( दिवाड़ पंडुम ) मनाते हैं। आदिवासियों का यह देवारी पर्व रामकथा और लक्ष्मी पूजा से हटकर आदिवासी संस्कृति, रीती – रिवाज, परंपराओं पर आधारित है। जिसमे नई फसल और खेती – किसानी के हमसफ़र गाय – बैल, भैस, बकरियो की पूजा कर खिचड़ी खिलाया जाता है।
आदिवासी गाँवो में देवारी पर्व से पहले ‘चरु’ और ‘बिदा’ जैसे परम्परा है। जिसे आदिवासी लोग देवारी पर्व से कुछ दिन पहले मनाते हैं देखा जाय तो आदिवासी समुदाय में देवारी पर्व ‘चरु’ और ‘बिदा’ परम्परा से शुरू होता है। चरु परम्परा में गांव के लोग खेतो के बीच जाकर खेतो में रहने वाले देवी – देवताओ और गांव के पूर्वजो के साथ साथ खेतो में खड़ी फसल की पूजा करते है। गांव में ‘चरु’ से पहले खेतो के बीच उपजने वाले फसल जैसे कई मौसमी फल, कन्द – मूल, सब्जियाँ, दाल का सेवन नही करते जिसे चरु के दिन से उपयोग में लाना शुरू किया जाता है।
गांव में बीज पंडुम ( बीज त्यौहार ) के बाद गोबर से आँगन की लिपाई – पोताई निषेध किया जाता है जिसे चरु के बाद पुनः शुरू कर दिया जाता है क्योंकि इस समय अधिकत्तर खेतो की फसल पक कर तैयार होने को रहता है इस लिए कोठार ( धान मिंजाई करने की जगह ) की लिपाई – पोताई जरुरी होता है। चरु के कुछ दिन बाद ‘बिदा’ की परम्परा होती है आदिवासियों का मानना है बीज पंडुम के दिन जंगल के जगली जानवरो को काबू किया जाता है ताकि जंगली जानवर गांव को किसी तरह से आहात न पहुंचाए जिसे बिदा परम्परा में स्वतंत्र कर दिया जाता है और साथ ही बीज पंडुम के बाद गांव में आए अनेक प्रकार की बिमारियों को बिदा परम्परा के अनुसार गांव के सीमा से बाहर कर दिया जाता है। ताकि गांव निरोग्य रहे। आदिवासी लोग बीमारियो को “रहू – राही की संज्ञा देते है।
बिदा परम्परा के कुछ दिन बाद देवारी पर्व ( दिवाड़ पंडुम ) मनाया जाता है। इस त्यौहार में आदिवासी समुदाय कम अवधि वाले धान के फसल ( हरुना धान ) को काट कर उसके चावल से खिचड़ी बनाकर सम्मानपूर्वक गाय – बैलो को खिलाते हैं और साथ ही गाय – बैलो को चराने वाला चरवाह ( राऊत ) का भी सम्मान करते है। क्योंकि आदिवासी समुदाय में गाय – बैल आदिवासियों के पूरक हैं। इस लिए साल भर की मेहनत से खुश होकर लोग देवारी पर्व मानते है और इस प्रकृति से हमेशा उन पर कृपा बने रहे और अच्छी फसल की कामना करते है। आदिवासी समुदाय देवारी पर्व के बाद ही कद्दू, इमली, दाल और कन्द के कुछ प्रजातियों को सब्जी बनाने में प्रयोग करता है क्योंकि देवारी पर्व के आस पास ही ये कन्द – मूल, कद्दू , इमली, इत्यादि पकने की अवस्था में रहते है देवारी के बाद इन सभी चीजो का सेवन शुरू हो जाता है।
जंगल में पाए जाने वाला कन्द ( कांदा ) चाहे वह औषधि के रूप में प्रयोग किए जाने वाला हो या फिर खाने में प्रयोग किये जाने वाला हो उसे देवारी के बाद ही प्रयोग में लाते है ऐसा इस लिए क्योंकि देवारी के बाद पानी का स्तर इन कन्द – मूल में कम हो जाता है जिससे औषधि वाला कन्द का गुण पुनः वापस आ जाता है और खाने में प्रयोग लाये जाने वाली कंद की स्वाद और भी बढ़ जाता है। आदिवासी समुदाय का मानना है की देवारी पर्व के बाद ही कड़क ठण्ड का आगमन होता है जिससे शरीर में कई बदलाव आते है और उसी बदलाव को देखकर आदिवासी समुदाय इस समय ज्यादातर कन्द – मूल का प्रयोग खाने में करता है।
आदिवासी समुदाय गाय – बैलो को खिचड़ी खिलाता है उस खिचड़ी में कन्द – मूल, कुछ दाल के प्रजातियों को भी स्तेमाल करता है ये सारे कन्द और दाल मौसमी होते है जो देवारी पर्व के आस – पास पक कर तैयार हो जाते है। इस लिए इस पर्व को पहली फसल पक जाने की ख़ुशी में मनाया जाता है और लोकनृत्य गाकर नाचा जाता है। देवारी के रात खेतो में दिए जलाये जाते हैं ताकि फसल को हानि पहुँचाने वाले किट – पतंगे जल का मर जाए। पर वक्त के साथ – साथ देवारी पर्व में कहीं कहीं बदलाव नजर आता है।
आदिवासी संस्कृति के जानकर ‘माखन लाल सोरी’ कहते है की – कोयतोर समुदाय दिवाड़ पंडुम ( देवारी पर्व ) मनाते है इस पंडुम में साल भर की मेहनत के उपज फसल की वयस्क अन्न को किसानी के हमसफ़र गाय – बैल को खिचड़ी खिलाया जाता है और सामूहिक लोकनृत्य किया जाता है। दिवाड़ पंडुम पूर्णतः प्राकृतिक रूप से मेहनत को सम्मान कृतज्ञता व्यक्त करने की रूढ़ि परम्परा है परन्तु समुदाय में परसंस्कृतिकरण का प्रभाव दिखाई दे रहाँ है इसका परिणाम कोयतोर समुदाय व् प्रकृति के अनुकूल नही है।