कोरोना पर हिंदू-मुस्लिम मत करो, सवाल पूछो

प्रभात शुंगलू

दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाके में तबलीग़ी जमात की बैठक के बाद जो लोग अपने अपने राज्य वापस लौटे थे, उनमें से नौ लोगों की कोरोना वायरस से मौत हो चुकी है। इनमें से छह लोग तेलंगाना के हैं, एक तमिलनाडू, एक कर्नाटक और एक जम्मू-कश्मीर से। दसवां शख्स विदेशी बताया जा रहा।

तबलीग़ी जमात के इस मरकज़ में देश के कोने कोने से ही नहीं बल्कि ब्रिटेन, फ्रांस, इंडोनेशिया, किर्ग़स्तान, मलेशिया जैसे देशों से भी लोग शिरकत करने आये थे। यानि ये सभी लोग और इनके संपर्क में आये वो तमाम लोग अब कोरोनो संक्रमण के संदिग्ध कहे जा सकते हैं, इनमे से कई कोरोना पौज़िटिव हो सकते हैं। और समय रहते ज़रूरी ऐहतियात और डाक्टरी सलाह नहीं ली तो इनकी जान पर भी बन सकती है।


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लेकिन हड़कंप इस बात से और भी ज्यादा है कि करीब तेरह सौ लोग निज़ामुद्दीन के इस मरकज़ में परसों तक थे। इनमें से साढ़े तीन सौ लोग आज की तारीख़ में दिल्ली के विभिन्न अस्पतालों में कोरोना जांच के लिये भेजे जा चुके हैं। इनमें से अब तक चौबीस लोग कोरोना पौज़िटिव पाये गये हैं। केजरीवाल सरकार ने दिल्ली पुलिस को मरकज़ के प्रमुख के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज करने के लिये गुज़ारिश की है।

इस बीच हो ये रहा है कि इस पूरे मामले को कम्यूनल ट्विस्ट देने की कोशिश की जा रही। इस पूरे प्रकरण को धर्म विशेष को नीचा दिखाने का ज़हर घोला जा रहा। जबकि अभी पिछले हफ्ते लाखों लोग जब दिल्ली से पलायन कर यूपी, बिहार पैदल अपने घर जा रहे थे, सड़कों पर इंसानों का सैलाब था, तब इस पूरे प्रकरण को प्रशासनिक कोताही, लापरवाही जैसे मापदंडों पर तौला जा रहा था। मोदी सरकार ने तो आज सुप्रीम कोर्ट को बताया कि दस में से तीन माइग्रेंट जो शहर से गांव जा रहे उनमें कोरोना के लक्षण मिलने की आशंका हो सकती है।

तो फिर सवाल ये उठता है कि निज़ामुद्दीन मरकज़ प्रकरण को फिर सांप्रदायिक ऐंगल से क्यों देखा जा रहा। ये कौन लोग हैं जो ये सांप्रदायिक रंग दे रहे और इनकी क्या साज़िश है।

लेकिन कुछ सवाल ज़रूर खड़े हो रहे हैं। जो आज पूछने ज़रूरी है। तबीलीग़ी जमात वालों से भी, लोकल प्रशासन, केजरीवाल सरकार और मोदी सरकार से भी सवाल पूछे जाने ज़रूरी हैं, और वो मैं पूछूंगा।

सबसे पहले सवाल तबलीग़ी जमात और मरकज़ के संयोजको से। ये बताइये कि जब पंद्रह मार्च को ये बैठक खत्म हो जाती है, तो इन लोगों को भेजने के इंतज़ाम क्यों नहीं होते, जबकि मालूम है कि देश में एक संक्रमण अपने पैर पसार रहा है। पंद्रह मार्च से २४ मार्च तक का एक ऐसा पीरीयड है जिसमें इनको वापस भेजा जा सकता था, ये लोग क्यों नहीं भेजे गये।

मरकज़ की तरफ से जो बयान आया है उसमें उनकी कहानी शुरू होती है, इक्कीस मार्च से। दूसरे दिन प्रधानमंत्री की पहल पर जनता कर्फ्यू लगाया गया था। मरकज़ निज़ामुद्दीन का कहना है कि चूंकि रेल सेवाएं बंद की जा चुकी थीं, इसलिये लोग रेल यात्रा नहीं कर पाये। फिर जनता कर्फ्यू लग गया, फिर दिल्ली सरकार ने तेईस मार्च से दिल्ली में लॉकडाउन की घोषणा कर दी, इसलिये लोग नहीं निकल पाये।

ख़ैर, फिर प्रधानमंत्री चौबीस मार्च को लॉकडाउन का ऐलान करते हैं। रात बारह बजे से लौकडाउन लागू होता है। लेकिन उसी दिन हज़रत निज़ामुद्दीन पुलिस मरकज़ बंद करने का नोटिस भेजती है। उसी दिन मरकज़ जवाब देता है कि देखिये पंद्रह सौ लोग तो निकल चुके है लेकिन क़रीब हज़ार लोग देश के विभिन्न राज्यों के और विदेशी भी अब भी मरकज़ में ही हैं। ये लोग मरकज़ के छह मंज़िला डौरमेटरी में रह रहे थे।

मरकज़ ने अपने बयान में कहा कि हमने तो सत्रह गाड़ियों के पास के लिये भी लोकल एसडीएम को दरख्वास्त की। गाड़ियों और ड्राइवर के सारे दस्तावेज़ भी पुलिस को सौंपे मगर प्रशासन उस दरख्वास्त पर बैठा रहा, कोई कार्यवाई नहीं की। अगले दो दिन मीटिंग का सिलसिला चलता रहा। मेडिकल टीमें भी पहुंची। फिर तैंतीस लोगों को राजीव गांधी कैंसर अस्पताल ले जाया गया जहां उनकी जांच हुई। बल्कि अठाइस मार्च को मरकज़ के पास एसीपी लाजपत नगर का नोटिस आता है कि लॉकडाउन है कोई बाहर निकला तो क़ानूनी कार्यवाई होगी। मरकज़ का कहना है कि उसने पुलिस को उनतीस मार्च को इसका जवाब भी भेजा। लेकिन फिर तीस मार्च आते आते ये फैल जाता है कि मरकज़ में कोरोना के मरीज़ आये हैं, और इस बैठक में शामिल दस लोगों की मौत हो चुकी है।

लेकिन इस पूरे बयान में मरकज़ अपनी कहानी का स्टार्टिंग प्वाइंट इक्कीस मार्च का रखता है। और यहीं पर सवाल खड़ा होता है कि आखिर १५ मार्च से इक्कीस मार्च के वक्फे में इन लोगों को भेजने के पुख्ता रास्ते क्यों नहीं निकाले गये। मरकज़ ने प्रशासन से मदद क्यों नहीं मांगी। खुद पहल क्यों नहीं की ताकि इन्हे जल्द से जल्द भेजा जाये। क्यों नहीं उसने प्रशासन को इत्तेला दी कि यहां पर अब एक हज़ार से भी ज्यादा लोग साथ रह रहे, जिनमें कई विदेशी भी हैं। इतनी बड़ी संख्या में विदेशियों का होना क्या ज्यादा घातक बना।

अब सवाल दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार से। कि आख़िर चौबीस मार्च से २७ मार्च का वक्फा क्यों गंवाया गया। उस बीच इन लोगों को भेजने के इंतज़ाम क्यों नहीं हुए, जैसे पलायन करने वालों के लिये दिल्ली यूपी बॉर्डर पर बसों का क़ाफ़िला लगा दिया गया था। क्या मरकज़ झूठ बोल रहा कि उसने सत्रह गाड़ियों का पास मांगा था। और ये सही है तो पास क्यों नहीं इश्यू किये गये।

यहां पर एक बात और। तेरह मार्च को दिल्ली सरकार दो सौ लोगों के जमावड़े पर बैन लगा देती है। फिर भी तबलीगी जमात की ये बैठक चलती रही और न तो दिल्ली सरकार और न ही केंद्र सरकार का ध्यान इस ओर गया कि निज़ामुद्दीम में तबलीगी मरकज़ में हज़ारों लोगों की बैठक चल रही। उसी दिन इस बैठक को रोका जा सकता था। ये बैठक मरकज़ खुद अपनी पहल पर भी रोक सकता था। वर्ना केजरीवाल प्रशासन खुद रोक देता। ऐसा नहीं हुआ। दोनों ज़िम्मेदार हैं।

तो सबसे पहले बड़ा सवाल ये है कि जिस बैठक में शिरकत करने सैंकड़ों विदेशी भारत आये तो ज़ाहिर है भारत सरकार की परमिशन से ही आये होंगे। इन लोगों को वीज़ा तो भारत सरकार ने दिया होगा। क्या एयरपोर्ट पर इनकी जांच हुई। इन्हेंं क्वारेनटाइन क्यों नहीं किया गया। ये किसकी चूक है।

इन हज़ारों लोगों को भारत की राजधानी दिल्ली में इतना बड़ा जमावड़ा, बैठक करने की इजाज़त दिल्ली या केंद्र सरकार ने दी। जब संक्रमण फैलने का खतरा था तो अव्वल तो तबलीग़ी जमात को इतनी बड़ी बैठक की परमिशन क्यों दी गई। इस बैठक को कैंसिल भी तो किया जा सकता था। क्या सरकार ने ये फैसला लेने में देर कर दी। दिलचस्प बात ये है कि इनमें से कई विदेशी मरकज़ की बैठक में हिस्सा लेने से पहले देश के दूसरे हिस्से भी घूमते रहे।

आपको यहां याद दिलाना ज़रूरी है कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने खुद चार मार्च को ट्वीट करके लोगों को बताया था कि कोरोना संक्रमण के चलते वो इस साल होली मिलन नहीं करेंगे। ये एक बड़ा संकेत था कि सरकार इस संक्रमण को अब गंभीरता से ले रही। लेकिन कई छोटे शहरों में होली की हुड़दंग की तस्वीरें, नाच गाना हमें देखने को मिला। हां, ये ज़रूर है कि तब कोई प्रशासनिक पाबंदियां नहीं लगाई गईं थीं।

सवाल तो ये भी पूछे जाने ज़रूरी हैं कि मार्च के तीसरे हफ्ते तक पार्लियामेंट में देश के सात सौ सांसद अपना काम करते रहे, देश के एक बड़े राज्य की सरकार को गिराने की साज़िश रची गई, ख़रीद फ़रोख़्त के इल्ज़ाम के बीच कई विधायक एक राज्य से दूसरे राज्य छुप्पन छुपाई के खेल खेलते रहे, सरकार गिरी, नये मुख्यमंत्री ने कॉन्फिडेंस वोट जीता, बधाइयां स्वीकारीं। मास्क लगाकर शपथ लेने विधानसभा पहुंचे। मोदी जी ने लॉकडाउन रात में लगाया, शिवराज चौहान ने उसी दिन वोट आफ कॉन्फिडेंस जीता।

किसी न किसी को तो इन सारे सवालों का जवाब देना होगा। क्योंकि न तो ये कोई मामूली संक्रमण है और न ही ये संक्रमण कोई मुरव्वत दिखाता है। ये जहां भीड़ देखता है वहां अटैक करता है। पिछले तीन महीनों में ये हज़ारों जान ले चुका है। ग़रीब अमीर किसी को नहीं बख्श रहा। अमरीका और यूरोप में भी इसने क़हर ढाया हुआ है। लेकिन जो लोग इस समस्या को सांप्रदायिक रंग दे रहे उनसे सिर्फ एक गुज़ारिश है, कोरोना फ़िरक़ास्त नहीं। वो पूरी मानव जाति का दुश्मन है।

(लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैंं)

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