यादें राहत इंदौरी: पहली बार मुजफ्फरनगर में पढ़ा था आल इंडिया मुशायरा,250 रुपए मिला था मेहताना

आसमोहम्मद कैफ।Twocircles.net 

राहत इंदौरी ने जब शायरी पढ़नी शुरू की थी तो वो अपना नाम राहत केसरी लिखते थे। इंदौर से बाहर  कहीं पहली बार वो मुशायरा पढ़ने गए थे तो वो जगह  मुजफ्फरनगर थी। 1980 में नुमाइश में आयोजित एक मुशायरे में वो इंदौर के उस समय के मशहूर  शायर नूर इंदौरी के साथ आएं थे। 30 साल के राहत कुरैशी उस समय इंदौर में छोटे-मोटे मुशायरे पढ़ने लगे थे। मुजफ्फरनगर के मुशायरा बहुत बड़ा था। इसमे तमाम बड़े शायर मौजूद थे।इसमे संगीतकार नौशाद,अहमद फ़राज़ और बशीर बद्र जैसे शायरों की शिरकत थी।


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राहत ज़ब पढ़ने आएं तो लोग उन्हें देखकर हंसने लगे। उनके क़रीबी साथी और मुज्जफरनगर के मशहूर नाज़िम रियाज़ साग़र बताते हैं “ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वो अजीब से हुलिए में थे और पहली बार कोई आल इंडिया मुशायरा पढ़ रहे थे,उन्होंने बड़ी सी पेंट पहनी हुई थी और चौड़े कॉलर की शर्ट पर उनके बेहद बड़े-बड़े बाल और भी अजीब बने रहे थे। जब वो माइक पर पाए आएं तो लोग हंसने लगे उन्हें लगा कोई मज़ाहिया शायर है मग़र जब उन्होंने पहला मिसरा पढ़ा तो पूरा पंडाल चहक उठा, लोगों ने शोर मचा दिया। ‘फ़िर पढ़ो-फ़िर पढ़ो’ का शोर गूंजने लगा। उन्होंने पढ़ा “मयकदे वीरान रातों के हवाले हो गए, 

जितने पीने वाले थे अल्लाह वाले हो गए, 
दूर थे सियासत से तो हम भी साफ थे,
कोयले की खान में पहुंचे तो हम भी काले हो गए! 

उसके बाद उन्होंने चार बार यह मिसरा पढ़ा “

क़ब्र के पत्थर के नीचे थी मेरी अय्याशियां!
और मेरे आमाल का साया मेरे बच्चों पे था!

अब  लोगों की समझ मे आ चुका था जिसे वो मज़ाहिया शायर समझ रहे थे वो जड़ तक गहराई लिये हुए है। इस मुशायरे में संगीतकार नौशाद, अहमद फ़राज़,क़तील सिफाई, बशीर बद्र और साधना खोटे जैसे शायर मौजूद थे। उन्हें 150 ₹ के मेहताना पर बुलाया गया था मगर आयोजकों ने उन्हें 250 ₹ दिए। इसके बाद अय्यूब बदर ने उन्हें सहारनपुर बुलवाया और हमने खतौली। उनकी शोहरत लगातार बढ़ती रही।”

रियाज़ सागर बताते हैं इसी मुशायरे से अनवर जलालपुरी के निज़ामत के हुनर की शुरुवात हुई थी। पहले निज़ामत बॉलीवुड की कोई अभिनेत्री कर रही थी मग़र हूटिंग के बाद वो हट गई। तब अनवर जलालपुरी आएं और मुशायरे जगत के विश्व विख्यात नाज़िम बन गए। इस मुशायरे ने हिंदुस्तान को दो अज़ीम शायर दिये। दोनों उस दिन युवा थे। अब दोनों इस दुनिया से रुखसत हो चुके हैं।

70 साल के राहत इंदौरी ने इसके बाद 30 साल तक मुशायरे जगत में एक ख़ास अंदाज के साथ बादशाहत की। रियाज़ बताते हैं वो कभी दाद नही मांगते थे वो कहते थे” जागते रहना पता नही मैं कब अच्छा शेअर कह दूं”। बहुत बड़े शायर और बेइंतहा शौहरत होने के बावूजद वो नोजवान शायरों की अच्छी शायरी पर दाद देते थे जबकि दूसरे बड़े शायर ऐसा करने में कंजूसी बरतते थे। रियाज़ सागर बताते हैं कि वो मुझे छोटा भाई मानने थे और अक़्सर मुझसे झगड़ा करते थे मगर इसमे बहुत अधिक अपनापन होता था।

मुजफ्फरनगर के उस यादगार मुशायरे के आयोजक हाजी अरशद राही बताते हैं उनका नाम लिस्ट में देखकर हमनें पूछा था कि यह कौन साहब है ! हमें बताया गया कि क़ाबिल इंक़लाबी नोजवान है। उसके बाद वो ही पहली पसंद बन गए वो हक़ और सच बात करते थे। किसी से मुत्तासिर नही थे और कभी भी सरकारी शायर नही बने। अरशद राही बताते हैं कि उसके बाद हमनें उन्हें 10 बार बुलाया। मुजफ्फरनगर के लोगो को उनका मिज़ाज भा गया था। वो भी इंक़लाबी और सुनने भी। यहां के लोग जुल्फों और होंठो पर सुनना पसंद नही करते थे। लोग सच्ची बात पसंद करते थे और सच्ची बात कहना राहत साहब की खूबी थी।

राहत इंदौरी का सबसे मशहूर कलाम

हमारे सर की फटी टोपियों पर तंज न कर,

हमारे ताज अजायबघरों में रखें है”

पहली बार मुजफ्फरनगर में ही पढ़ा गया था। अरशद राही बताते हैं “1984 में इस्लामिया कॉलेज के मैदान में उन्होंने यह पढ़ा था।अजीब मंजर था। मदरसे के तलबा पागल हो गए थे।

काफ़ी देर तक सिर्फ शोर मचता रहा,बड़े बड़े शायर उनसे चिढ़ने लगे थे। मगर मुजफ्फरनगर के लोग कहते थे कि मुशायरों में तो राहत हो चाहें कोई और हो या न हो!
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