औरंगज़ेब और दारा शिकोह की पारंपरिक छवि बदलने की कोशिश है ये नई किताब

यूसुफ़ अंसारी, twocircles.net

जब कभी मुग़ल काल के बादशाहों का ज़िक्र होता है तो औरंगज़ेब और दाराशिकोह बरबस ही एक आमने-सामने खड़े  दिखते हैं। तीसरा बड़ा किरदार है शाहजहां, एक बेटे की जिसके तरफ़ झुकाव ने दूसरे बेटों को बाग़ी बना दिया। देश का एक बड़ा वर्ग औरंगज़ेब की सेना बना दिखता है दूसरा दारा शिकोह की। दोनों ही एक दूसरे में अपने-अपने चश्मे के हिसाब से हीरो और विलेन ढूंढ लेते हैं। जिस के लिए औरंगज़ेब हीरो है उसके वो उतना बड़ा हीरो हैं कि जिसके सामने मुग़ल काल के सारे बादशाह बौने नज़र आते हैं। वहीं दारा शिकोह को असली हीरो मानने वाले उसे बहुत बड़े दार्शनिक के रूप में पेश करते हैं।


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मुग़ल काल के ये दो किरदार हमेशा से पूरब-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण की तरह एक दूसरे के मुख़ालिफ़ खड़े रहे हैं। जनता के बीच इन दोनों का ऐसाी ही छवि है। इसी छवि को तोड़ने की कोशिश की है पत्रकार अफसर अहमद ने अपनी किताब के ज़रिए। किताब का शीर्षक है “औरंगज़ेबः नायक या खलनायक- सत्ता संघर्ष”। इस किताब में अफ़सर अहमद ने दस्तावेज़ी सुबूतों के साथ बहुत ही साफ़गोई से अपनी बात कही है। औरंगज़ेब और दारा शिकोह के किरदारों का तुल्नात्मक विश्लेषण करते वक़्त लेखक ने निष्पक्ष रहने की पूरी कोशिश की है। ऐसा वो इस लिए कर पाए क्योंकि उन्होंने मुग़लकाल की इन घटनाओं को पत्रकार की नज़र से देखा है इतिहासकार कार की नज़र नहीं।

औरंगज़ेब और दारा शिकोह के बीच सत्ता संघर्ष की कहानी

औरंगज़ेब और दारा शिकोह के बीच सत्ता संघर्ष की ऐसी कहानी है जिसमें कोई एक किरदार न तो नायक है और न ही खलनायक। सब अपनी जगह जितने बड़े नायक हैं, उतने ही बड़े खलनायक भी। राजसत्ता का यह संघर्ष मान-सम्मान, बदला, छल, कपट, साज़िश, विद्रूपता, लालच, वीभत्सता और क्रूरता जैसे मानव जीवन के कई रंगों को रेखांकित करता है। यह एक ऐसी कहानी है जिसमें भाई भाई का न हुआ, बेटा बाप का न हुआ और बाप बेटों का नहीं हुआ। इसमें राजा बनने की चाह अपनों का ही सर क़लम करवाती है, जिसमें खून के ही रिश्ते एक दूसरे के ख़ून को प्यासे हैं। ये कहानी है अब से क़रीब साढ़े तीन सौ साल पहले मुग़लकाल की। जिसमें दो बड़े किरदार हैं। औरंगज़ेब और दाराशिकोह।

 पारंपरिक चश्मा उतारने की कोशिश

लेखक अफ़सर अहमद ने अपनी किताब में प्रमाणिक तथ्यों से दोनों वर्गों के ऐसे चश्मों को उतारने की कोशिश की है। बहुत रिसर्च के बाद लिखी गई यह किताब औरंगज़ेब को बहुत अच्छा मानने वालों को उसकी साज़िशों, क्रूरताओं से रूबरू कराती है वहीं दाराशिकोह में नायक खोजने वालों को उसके छल-कपट और लालच से भी रू-ब-रू करवाती है। लेखक ने किसी किंवदंती से नहीं बल्कि मुग़लकाल के शाही फ़रमानों और पत्रों के ज़रिए इन किरदारों के चरित्र चित्रण किया है। उनकी ग़फ़लतों और नफ़रतों से पर्दा उठाने की भरपूर कोशिश की है। इस किताब में आगरा से दिल्ली और दक्कन तक की यह कहानी आपको ज़मीनी हक़ीक़त से मिलाने की कोशिश करती है, जिसमें संबंधों के कई उतार-चढ़ाव हैं। जिसमें लालच है, इमोशन है और एक दूसरे से उतना ही भय है।

क्या औरंगज़ेब शाहजहां से नफरत करता था?

कई इतिहासकार इन दोनों किरदारों में से किसी एक तरफ झुके दिखते हैं, लेकिन यहां लेखक ठहरा पत्रकार तो उसने इसमें अपने पत्रकारीय सरोकार पिरोने की पूरी कोशिश की है। यह एक किताब फैक्ट चेक है। जिसमें इस सवाल का जवाब लेखक ने शाहजहां को लिखे गए औरंगज़ेब के शाही ख़त से देने की कोशिश की है।

औरंगज़ेब इस पत्र में अपने पिता को लिखता है, “मैने बार-बार अपनी स्थिति को साफ़ करने की कोशिश की है कि आगरा मार्च करने के पीछे आपको सत्ता से अलग करने की कोई मंशा नहीं थी। अल्लाह मेरी इस बात का गवाह है कि ऐसे दोषपूर्ण और अपवित्र विचार कभी मेरे मन में नहीं आए। आप जब बीमार हुए तो सबसे बड़े बेटे दाराशिकोह, जिसमें मुसलमान होने जैसे कोई लक्षण नहीं हैं, ने सत्ता अपने हाथ में ले ली और नास्तिकता और कही सुनी बातों को बढ़ावा दिया। दारा को बाहर करना मैं अपनी धार्मिक जिम्मेदारी मानता हूं। जैसा कि सरकार (शाहजहां) पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर और बिना राजनीतिक हालात पर विचार किए दारा की इस सोच का साथ देने लगे, तब मैंने उसके ख़िलाफ़ जिहाद का ऐलान किया।”

लेखक ने साफ़ किया है कि औरंगजेब के लिए पिता शाहजहां को नज़रबंद रखना उसकी रणनीतिक मजबूरी थी। उसके ख़िलाफ़ शाहजहां की लगातार की गई साज़िशों ने उसके इस डर को और पुख़्ता कर दिया था कि पिता को नज़रबदी से हटाना उसके लिए घातक साबित होगा।

क्या औरंगज़ेब ने दारा का सिर क़लम करवाया?

औरंगज़ेब पर एक बड़ा आरोप है कि उसने अपने बड़े भाई दाराशिकोह के साथ बहुत बुरा सुलूक़ किया। उसका सिर क़लम करवाया। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा था? दरअसल दारा के आख़िरी समय के बारे में अलग-अलग इतिहासकारों ने अपने ढंग से लिखा है। निकोलो मनुच्ची और बर्नियर जैसे इतिहासकारों ने काफ़ी कुछ बाजार से सुनी सुनाई बातों के आधार पर लिखा। दरअसल उनकी किसी सरकारी दस्तावेज़ और फ़ैसलों तक सीधी पहुंच नहीं थी। दूसरी ओर मुत्सईद ख़ान जिन्होंने मासिर-ए-आलमगीरी लिखा और दूसरे बड़े लेखक उस दौर के थे वो थे ख़फ़ी ख़ान जिन्होंने मुंतख़ाब-उल-लुबाब लिखा। दोनों ने दारा शिकोह का सिर काटे जाने की घटना को कहीं नहीं लिखा। लेखक ने सभी वे विचारों को न सिर्फ़ अपनी किताब में जगह दी है बल्कि एक चार्ट के ज़रिए तुलनात्मक अध्यन भी किया है।

 

 

किताब में देश के अलग-अलग संग्रालयों में रखे शाहजहां, औरंगज़ेब और दारा शिकोह से जुड़े दस्तावेज़ को फ़ोटो भी शामिल किए है। अपने दावों को पुख़्ता करने के लिए लेखक ने किताब में फ़ारसी में लिखे कई फ़रमान को फोटो भी इस्तेमांल किए हैं। किताब की भाषा शैली आम फ़हम है। आम बोलचाल में इस्तेमाल होने वाले शब्द किताब पढ़ने को रवानगी देते हैं। पत्रकार ने ख़बर लिखने की अपने कला का बख़ूबी इस्तेमाल किया है। किताब को इवेको पब्लिकेशंस ने छापा है। इसकी क़ीमत 300 रुपए है। कुल मिलाकर यह एक प्रमाणिक एताहासिक जानकारियां देने वाली किताब है।

 

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