रियल बिहार : “हम घर से बाहर कम ही निकलते हैं। गांव के लोग डोमनी-डोमनी कहकर बुलाते हैं” !

बिहार चुनाव: बिहार के मुसलमानों को क्यों पसंद नहीं है नीतीश कुमार का विकास- ग्राउंड रिपोर्ट

प्रतिभाशाली रिपोर्टर मीना कोतवाल इस समय बिहार में है और Twocircles.net के लिए ग्राऊंड रिपोर्ट कर रही है। मीना की रिपोर्टिंग के केंद्र में इस बार डोम आएं है। डोम जाति बिहार में छुआछूत और इंसानी भेदभाव की सबसे बड़ी मिसाल है। मीना की यह रिपोर्ट एक तरफ़ मानवता के लिए शर्मिंदगी की वजह बनती हैं वहीँ अंदर से झकझोर देती है….


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मीना कोतवाल की बिहार से Twocircles. net के लिए पढ़िए यह रिपोर्ट

सड़क किनारे एक परिवार बांस छिलने का काम कर रहा है। वे इससे टोकरी बनाने का काम करता है। ये परिवार गांव से दूर एक सड़क किनारे रहता है। परिवार में लगभग पंद्रह लोग है। इस सड़क से रोजा़ना हजारों लोग आते जाते हैं। लेकिन इन पर किसी की नज़र नहीं जाती। अगर नज़र जाती भी है तो वो सिर्फ देखकर उन्हें भूलने के लिए और फिर उसी सड़क पर वे आगे निकल जाते हैं। यहां किसी आम इंसान तो दूर की बात नेता लोगों को इनके वोट तक की जरूरत नहीं। परिवार में जितने भी लोग थे उनमें से केवल एक ही व्यक्ति का वोटर आईकार्ड बना हुआ था। जबकि परिवार में पांच लोगों की उम्र वोट देने लायक है।  “हम घर से बाहर कम ही निकलते हैं। गांव के लोग डोमनी-डोमनी कहकर बुलाते हैं, कहते हैं ये तो सुअर चराते हैं ’’ये शब्द हैं चन्दा कुमारी के, जो बांस छिलते हुए ही बात कर रही हैं। चंदा पहले शरमाती हैं और बोलने से कतराती हैं। लेकिन जैसे ही पूछा जाता है कि आप गांव क्यों नहीं जाती है और इधर अलग से क्यों रहती हैं तो वो बताती हैं कि गांव वाले उनसे किस तरह बात करते हैं।

चंदा को सही से अपनी उम्र भी नहीं पता लेकिन वो बताती हैं कि उनकी यहां कोई सहेली नहीं हैं। वो ज्यादा पढ़ी भी नहीं हैं। वे बहुत ही छोटी उम्र से टोकरी, पंखा, कोठी, छठ में इस्तेमाल होने वाले बांस का सामान बना रही हैं, लेकिन इनको सही से अपनी उम्र का नहीं पता। अपने भाई की तरफ इशारा करके बताती हैं कि इसकी उम्र से ही वो ये सब काम कर रही हैं। चंदा के भाई की उम्र लगभग दस साल की थी।चंदा की भाभी वहीं एक चूल्हे पर कुछ बना रही थी। उनका नाम गुड़िया है और वे गर्भवती हैं, जिनके चेहरे से पता चल रहा था कि वे ज्यादा उम्र की नहीं रही होंगी, लेकिन उन्होंने पूछने पर बताया कि यह उनका चौथा बच्चा होने वाला है। जब पूछा कि इतनी गरीबी में इतने बच्चे क्यों तो इस सवाल पर वे पहले थोड़ा शरमाई और फिर कहा कि ये सवाल आप हमारे पति से पूछिए हमको नहीं पता है।

चंदा के घर में उनके भाई, पिता, माता और दादा से भी बात हुई। लेकिन किसी के पास ये जवाब नहीं था कि वे इस तरह रहने के लिए मजबूर क्यों हैं, क्यों सरकार उन्हें नहीं पूछती, क्यों उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। 21वीं सदी यानि आजादी के पूरे सात दशक बाद अगर कोई ये कहे कि जातिवाद आज भी मौजूद है तो शायद आप में से कई लोग इस पर विश्वास भी ना करें। ज्यादातर लोगों का मानना है कि अब जातिवाद खत्म हो गया है। लेकिन इन लोगों में कौन शामिल हैं, इन पर एक बार ध्यान देना जरूरी है। क्या ये सवाल उनसे पूछा गया है जो अपनी जाति का दंभ नहीं भूल पा रहे हैं! क्या ये ज्यादातर लोग शहरों में रहते हैं! या क्या इन्होंने कभी उस जाति के लोगों से बात करने की कोशिश की है जिनसे सच में ये सवाल पूछने की जरूरत है!

तब शायद सवाल करने वाले और जातिवाद को खत्म बताने वालों को जवाब मिल जाए!  वैसे तो पूरा  देश ही इस बीमारी से ग्रस्त है लेकिन बिहार में जातिवाद बहुत अंदर तक गहराया हुआ है।यहां हम बिहार की बात इसलिए भी कर रहे हैं क्योंकि बिहार में चुनाव शुरू हो चुके हैं। बड़े-बड़े नेता और पदाधिकारी ये बात मानने को तैयार ही नहीं कि आज भी जातिवाद कितनी बड़ी समस्या है। इसलिए भी वे अपने घोषणा पत्र में इसे शामिल नहीं करते। हमने चुनावी मौसम में ना केवल डोम समाज के लोगों से बात की बल्कि जातीय स्तर पर कई निचली जाति से बात करने की कोशिश की और सबका एक ही सा जवाब था।

इसी तरह मैं एक दूसरे गांव में भी गई, जो मोतीहारी जिले में ही है। वहां भी मैं एक डोम परिवार से मिली। इनके घर भी गांव से बाहर बसे हुए थे। समस्याओं के नाम पर इनकी भी वही सब परेशानी थी। ना कोई नेता आता है, ना उन नेताओं के इनके वोट की जरूरत है, ना कोई राशन कार्ड है, ना कोई वोटर आई कार्ड। बाढ़ आती है और उसमें फंसते हुए सब दिखते हैं लेकिन ये नहीं। गांव में इनके लिए कोई जगह नहीं, स्कूल में अमूमन खाना-पीना सब अलग से और कई लोग छूते तक नही हैं!

ढ़ाका विधानसभा के एक गांव में जाते हैं तो वहां भी महिलाएं-पुरुष बांस छिलने और उससे टोकरी बनाने का ही काम कर रहे थे। बच्चे अपनी धुन में खेल रहे थे। एक जगह गोल और लम्बी सी कई झोपड़ी बनी हुई है, जिसमें पास जाने पर पता चलता है कि इनके अंदर सुअर बंधे हुए थे।

एक महिला अपना काम कर रही है लेकिन जैसे ही उनसे पूछा जाता है कि आप इस बार किसे चुनना चाहती हैं और क्या पहले चुने हुए नेताओं ने आपकी समस्याएं दूर की? तो वे इस पर काफ़ी गुस्से में बोलती हैं कि किसी सरकार ने कुछ नहीं किया।

वे कहती हैं, मोदी जी कुछ नहीं किया। हम बाढ़ में फंसे हुए थे, भूखे-प्यासे थे, रहने के लिए जगह नहीं थी लेकिन कोई पूछने नहीं आया। हम स्कूल में रह रहे थे। बच्चों को गोद में उठा कर रख रहे थे। ईंटों पर खाना बनाना पड़ रहा था। लेकिन किसी को हमसे कोई मतलब नहीं था।

इतने में उस महिला की आंखों में आंसू आ जाते हैं और रुआंसा होते हुए बोलती हैं, हमारे बच्चों को स्कूल से कई बार भगा दिया जाता है। खाना नहीं दिया जाता है, अलग से पत्तल में दिया जाता है। पानी वाली खिचड़ी मिलती हैं उसे भी पत्तल में दिया जाता है जबकि और सब बच्चों को थाली में दिया जाता है, पानी भी घर से पीकर जाना पड़ता है नहीं तो पूरा दिन प्यासा ही रहना पड़ता है। महिला की बातों में गुस्सा साफ दिखाई दे रहा था, वे बार बार कह रही थी की हमारे कुछ कहने से भी क्या फर्क पड़ने वाला है। सरकार किसी की भी बन जाए लेकिन हमें कोई नहीं पूछता।ये हालात केवल डोम समुदाय के साथ ही नहीं थे। बल्कि अमूमन मुसहर जाति, चमार दुसाध, आदि सबके साथ हैं। मुसहर जाति यानि वो जाति जो खाना ना होने पर मजबूरन चूहे खाते हैं। मजबूरी के कारण चूहे का सेवन करना अब जाति की पहचान बन गई है। इस समुदाय के लोगों ने बताया कि ऊंची जाति के लोग इन्हें छूना भी पसंद नहीं करते।

इस समुदाय के एक व्यक्ति को जब पता चलता है कि हम उनके गांव में उनका हाल और समस्याएं जानने आए हैं तो वे कहीं से आए और गुस्से में बताने लगे कि उनके समुदाय के साथ छोटी जाति की वजह से क्या कुछ होता है। उन्होंने बताया कि उनके बच्चों को स्कूल में अलग बैठाया जाता है। अलग से खाना दिया जाता है। वे घर से एक थाली लाते हैं और दिखाते हुए कहते हैं कि ये देखिए, इसी छिपा (थाली) में बच्चा लोगों को खाना दिया जाता है, जो ये घर से लेकर जाते हैं। अगर जिस दिन घर से नहीं ले जाते हैं तो उन्हें पत्तल में खाना दिया जाता है।

वे आगे गुस्से में कहते हैं कि यहां जातीये भेदभाव इतना है कि बड़का जात का लोग हमारे घर में नहीं आते हैं और ना साथ में खाते हैं। हालांकि वे ये भी बताते हैं कि हमारे गांव के लोग सब मिल जुल कर रहते हैं। यहां यादव आदि लोग रहते हैं जिनके साथ हमारा उठना बैठना भी है। लेकिन हमारे हमसे कोई भी दूसरी जाति के लोग शादी नहीं करते हैं।

दलित समुदाय की राधा कुमारी एक सरकारी स्कूल में काम करती हैं, वे बताती है कि मेरे सामने भी हमारी जाति के बच्चों को अलग बैठाया जाता है, अलग खाना दिया जाता है। अगर हम इसकी शिकायत करते हैं तो हमें भी उल्टा-सीधा बोला जाता है। कई बार बच्चों के माता-पिता मेरे पास आते हैं कि आज उनके बच्चे को मारा, अलग बैठाया गया, खाना नहीं दिया गया आदि। लेकिन मैं उनसे ये भी नहीं कह पाती कि मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सकती क्योंकि मैं असमर्थ हूं।

राधा ने हमें ये भी बताया कि कई बार बच्चे अगर एक दूसरे से छू लेते हैं यानि बड़ी जाति के और छोटी जाति के बच्चे एक दूसर को छू लेते हैं तो छोटी जाति वाले बच्चों की इस वजह से पिटाई तक हो जाती है। वहीं साथ में खड़े दुसाध जाति से आने वाले एक बुजुर्ग ने बताया कि बड़ी जाति के लोग हमसे नफरत करते हैं. हमारे बच्चों को पसंद नहीं करते. हमारे नाम पर वोट लेते हैं लेकिन हमारी ही नहीं सुनते।

जाति का दंभ आज भी बदस्तूर बना हुआ है। लेकिन बड़े-बड़े दावा करने वाले नेता और राजनीतिक पार्टियां ना इन्हें जाति से ऊपर उठ कर देख पाती हैं और इनके मुद्दे उनके लिए कोई मायने रखते हैं। बिहार को जातिवाद का गढ़ भी कहा जाता है। कहा जाता है यहां सबसे ज्यादा जातिवाद फैला हुआ है। बिहार में चुनावी माहौल चल रहा है। एक चरण के चुनाव 28 अक्टूबर को चुके हैं और अभी अगले तीन और सात नवंबर को होने हैं, जिसका परिणाम दस नवंबर को आना तय हुआ है। इस बार मेौजूदा सरकार को ही मौका मिलेगा या जनता सरकार बदलेगी ये दस तारीख को साफ हो जाएगा।

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