भारत की जेलों में सबसे अधिक मुसलमान, एससी, एसटी समुदाय के लोग

वसीम अकरम त्यागी

रासुका के तहत जेल में बंद डॉक्टर कफ़ील ख़ान इलाहबाद हाईकोर्ट के आदेश बाद रिहा कर दिया गया. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि डॉक्टर कफील खान पर एनएसए के तहत कार्रवाई गैरकानूनी है। अलीगढ़ डीएम की तरफ से एनएसए की कार्रवाई आदेश गैरकानूनी है। कफील खान को हिरासत में लेने की अवधि का विस्तार भी अवैध है। कफ़ील ख़ान का परिवार पढ़ा लिखा है, सक्षम है, साधन संपन्न है, इसके बावजूद एक बेगुनाह को अपनी बेगुनाही साबित करने के लिये सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट तक जाना पड़ा, छः महीने तक जेल में रहना पड़ा। सोचिए जो परिवार सक्षम नहीं हैं, उन पर यह सिस्टम क्या क्या सितम नहीं करता होगा? एक बेगुनाह को छ महीने तक जेल में रखा गया, क्या यह अपने नागरिकों पर अत्याचार नहीं है? बेगुनाह को जेल में रखने वाले अधिकारियों, और अपना फर्ज़ भूलकर ‘ऊपर’ के आदेश का पालन करने वाले अफसर क्या नागरिकों पर ज़ुल्म नहीं कर रहे हैं? ऐसे अफसरों के ख़िलाफ कब कार्रावाई की जाएगी? अदालत को चाहिए कि नागरिकों को झूठे मामलों में फंसाकर जेल में रखने वाले अफसरों, सरकार के लोगों के खिलाफ सख्त सजा दे, जितने दिन भी कोई निर्दोष नागरिक जेल में रहा है, उसका मुआवज़ा उसे जेल भेजने वाले अफसरों, और सरकार के लोगों से वसूला जाए।


Support TwoCircles

सिर्फ इतने से खुश नहीं हुआ जा सकता कि नागरिक को बाइज्ज़त रिहा कर दिया गया, सवाल उससे आगे का है। सवाल यह है कि बेगुनाह होते हुए भी जेल में क्यों डाला गया?  हाल ही में आई 2019 की नेशलन क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बहुत डरावनी है। वह रिपोर्ट बताती है कि सरकारें अपने नागरिकों पर जुल्म कर रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ जेल में सजा भुगत रहे कुल लोगों का 21.7 प्रतिशत दलित हैं, जबकि जनसंख्या में उनका अनुपात सिर्फ 16.6 प्रतिशत है, यानि जनसंख्या में अपने अनुपात से करीब 6 प्रतिशत अधिक दलित जेल की सजा काट रहे हैं। 21 प्रतिशत दलित ऐसे हैं, जो बिना सजा के ही जेलों में हैं, जिन्हें अंडरट्रायल कहा जाता है। आदिवासियों के हालात भी बदतर हैं।  भारत में आदिवासियों का जनसंख्या में अनुपात 8.6 प्रतिशत है, लेकिन 13.6 प्रतिशत आदिवासी जेलों में सजा भुगत रहे हैं इनमें 10.5 प्रतिशत ऐसे हैं, जो बिना सजा के जेलों में ( अंडरट्रायल) हैं। यानि अपनी जनसंख्या में अपने अनुपात से 5 प्रतिशत अधिक आदिवासी जेलों में है।

मुसलमानों के हालात भी बदतर हैं। भारत में मुस्लिम आबादी 14.2 प्रतिशत ही है। लेकिन अंडर ट्रायल (बिना सजा) के जेल में बंद, मुसलमानों का प्रतिशत 18.7 है। यानि जनंख्या में अनुपात से 4.4 प्रतिशत अधिक। सजा काटने वालों का अनुपात 16.6 प्रतिशत है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जेलों में सजा काट रहे कुल लोगों का 51.6 प्रतिशत या तो दलित है, या आदिवासी या मुसलमान। जबकि जनसंख्या में इन तीनों का कुल अनुपात 39. 4 प्रतिशत है यानि जनससंख्या में अपने अनुपात से करीब 11 प्रतिशत अधिक दलित, आदिवासी और मुसलमान जेलों में हैं। हमारे सामने ऐसे भी कई मामले आए हैं जिसमें बेनुगाह होते हुए भी नागरिकों ने अपनी ज़िंदगी के चार से लेकर 25 साल तक जेल में बिताए हैं। ऐसा तो अंग्रेज़ों के समय में भी नहीं होता था, जबकि भारत ‘ग़ुलाम’ था, लेकिन अब हो रहा है। आज़ादी मिलने के बाद हो रहा है। क्या सरकार द्वारा नागरिकों पर किये जाने वाला यह ज़ुल्म बंद होगा? वोट बैंक, ध्रुवीकरण की राजनीति ने अपने ही देश के नागरिकों की ज़िंदगी को क़ैदखानों में तब्दील कर दिया है। बड़ी अदालतों ने थोड़ा भ्रम बनाकर रखा हुआ है, अगर यह भ्रम भी टूट गया तो काले और गौरे अंग्रेज़ों के शासन में फर्क ही महसूस नहीं किया जा सकेगा।

बीते कुछ वर्षों में भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में रासुका के मामले सामने आए हैं। यूपी सरकार ने छोटे मोटे अपराध के लिये भी रासुका का इस्तेमाल किया है। एक तरह से कहा जा सकता है कि सरकार निरंकुश होकर रासुका का इस्तेमाल कर रही है। बीते महीने पीस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अय्यूब सर्जन पर रासुका लगा दिया गया, उन पर आरोप था कि उन्होंने कथित तौर से एक संविधान विरोधी विज्ञापन उर्दू अख़बार में प्रकाशित कराया था। हाल ही में पूर्वी यूपी के मऊ के चार लोगों पर रासुका लगाया गया है, उन पर आरोप है कि उन्होंने सीएए विरोधी आंदोलन में उप्द्रव किया था। देखने में आया है कि यूपी सरकार ने रासुका को बहुत सामान्य बना दिया है. सीएए विरोधी आंदोलन के आंदोलनकारियों से लेकर विपक्ष के नेता अथवा असहमती की आवाज़ का गला दबाने के लिये उसका दुरुपयोग किया जा रहा है।

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE