हमें फ़ातिमा शेख़ को क्यों याद रखना चाहिए!

मानसी सिंह Twocircles.net के लिए 

महिलायों की शिक्षा जैसे क्रान्तिकारी क़दम की सराहना के लिए सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिबा फुले के बारे में पब्लिक डोमेन में बहुत कुछ लिखा गया है। परंतु इस चर्चा में यदि इतिहासकार किसी को भूल जाते हैं तो वह हैं फ़ातिमा बेग़म शेख़। इनके बारे में इतनी ही जानकारी उपलब्ध है जिससे इनके अस्तित्व की पुष्टि की जा सके उससे आगे इनका नाम ज्योतिबा फुले व सावित्रीबाई के जीवन के विषय में चर्चा करते हुए कहीं किसी छोटे से कोने में लिख दिया जाता है।


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फ़ातिमा शेख़ के विषय में तथ्यों का इतना अकाल पड़ा है कि इनकी जन्मतिथि के नाम पर भी एक तथाकथित बहस चलती रहती है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि आज यानि ९ जनवरी ही उनकी जयंती है। अब प्रश्न ये उठता है कि एक तरफ जहाँ सावित्रीबाई जयंती पर अंतराष्ट्रीय स्तर पर गूगल उन्हें अपना डूडल समर्पित करता है वहीं फ़ातिमा शेख़ का राष्ट्रीय स्तर तो दूर सामुदायिक स्तर पर भी कोई ध्यान नहीं है। जानकारी के अभाव में ही सही परंतु आज उनके जीवन के बारे में जितना हम जान सकते हैं उतना अच्छा है।

फ़ातिमा शेख़ अपने भाई मियां उस्मान शेख़ के साथ पुणे के भिड़ेवाड़ी इलाके में रहती थीं। ज्योतिबा फुले की निरंतर जातिवाद के खिलाफ चल रही ब्राह्मण विरोधी गतिविधियों के कारण जब ज्योतिबा फुले के पिता ने उन्हें घर से निकाला तब फ़ातिमा बी ने ही उन्हें अपने घर में आसरा दिया था। और उन्हीं के घर में वर्ष १८४८ में फुले दंपति ने महिलायों के लिए पहला विद्यालय शुरु किया था जिसमें  फ़ातिमा गाँव गाँव जा कर लोगों को उनकी बेटियों को शिक्षित करने के लिए प्रेरित करती रहीं। आगे चल कर दलितों को भी उसी विद्यालय में शिक्षा दी जाने लगी और उसमें उन्होंने बराबर का योगदान दिया।

समाज की पैतृक व्यवस्था से लड़ने से लेकर, बेटियों के अभिभावकों को उनकी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए घंटों तक परामर्श देने तक तथा जातिवाद के विरुद्ध एक नए समाज की स्थापना के प्रयास तक सभी जगह फ़ातिमा शेख़ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिसे पहचान कर स्वीकारने अति-आवश्यक्ता है।

फ़ातिमा शेख़ के योगदानों की अधिक चर्चा करने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि सावित्रिबाई फुले की कम सराहना की जानी चाहिए अपितु दोनों की उचित अभिस्वीकृति की जानी चाहिए। हालांकि फ़ातिमा शेख़ के विषय में बहुत अधिक शोध उपलब्ध है परंतु सामाजिक ज्ञान के आधार पर ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उनका संघर्ष कहीं अधिक कठिन रहा होगा। जातिवाद के विरुद्ध लड़ाई में जब वह ब्राह्मणों की सत्ता के खिलाफ साहस कर रहीं थी तब पूरा हिंदु समुदाय उनके विरुद्ध हो गया। साथ ही मुस्लिम महिलायों की मॉडर्न व वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा देने के उनके प्रयासों के कारण कट्टर मुस्लिम समाज भी उन्हें नहीं स्वीकार रहा था।

माना जाता है कि जब वह और सावित्रीबाई लोगों को शिक्षा के लिए प्रेरित करने हेतु इधर-उधर जाया करतीं थी तब कई बार लोगों ने उन पर पत्थर बरसाए और कई बार गोबर फेंका गया। एक ओर जहाँ डॉ.  भीम राव अंबेडकर अपनी किताब ‘शुद्रों की खोज’ ज्योतिबा फुले को समर्पित करते हैं तो वहीं दूसरी ओर फ़ातिमा शेख़ का नाम बहुजन  आंदोलन से भी ग़ायब है। फ़ातिमा शेख़ पहली महिला शिक्षिका होने के साथ-साथ पहली मुस्लिम शिक्षिका भी थीं , जहाँ एक ओर मुस्लिम महिलायों के लिए पहला स्कूल 1848  में ही फ़ातिमा शेख़ द्वारा शुरु कर दिया गया था वहीं सर सय्यद ने मुस्लिमों की शिक्षा के लिए पहली नींव 1875  में रखी थी जिसे बाद में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के नाम से जाना गया परंतु फ़ातिमा शेख़ के योगदान की गिनती सर सय्यद के मुक़ाबले दूर दूर तक नहीं की जाती।

(मानसी सिंह प्रशिक्षु पत्रकार है) 

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