मायावती का नाम सुनते ही दिल और दिमाग पर छा जाती है एक दलित महिला की पहचान, जिसने छाप छोड़ दी है लगभग हर व्यक्ति के मस्तिष्क पर. हां वो छाप व्यक्ति के नज़रिए के हिसाब से बदल सकती है, चाहे वो मायावती के हित में सोचे या नहीं. लेकिन एक महिला होने के बावजूद क्या आसान रहा होगा मायावती का आम नागरिक से ख़ास बनने का सफर, वो भी तब जब वो चमार जाति से ताल्लकु रखती हों.
इस देश में ये वो जाति है जिसे सम्मान से ना देखा जाता है, ना ही पुकारा जाता है! इस जाति पर आपको गालियां मिल जाएगी लेकिन इस जाति को सम्मान से देखने वाला मुश्किल से ही ढूंढने पर मिल पाएगा! मायावती बहुत ही सामान्य परिवार से ताल्लकु रखती थीं, जब 1977 में मान्यवर कांशीराम मायावती से मिले तब वे बामसेफ के अध्यक्ष हुआ करते थे. कांशीराम उन दिनों बहुजनों को एकजुट करने का काम कर रहे थे.
पहली मुलाकात में मायावती ने कांशीराम को बताया कि वो एक आईएएस ऑफिसर बनना चाहती हैं और यही उनके पिता भी चाहते थे. लेकिन कांशीराम ने उन्हें कहा कि वे चाहते हैं कि वो एक नेता बने ताकि कई आईएएस ऑफिसर उनके आगे पीछे रहें. मायावती को ये प्रस्ताव अच्छा लगा लेकिन इस प्रस्ताव के लिए उनके पिता तैयार नहीं थे और वे बेटी मायावती को एक आईएएस ऑफिसर के रूप में ही देखना चाहते थे. बेटी ने उनकी बात नहीं मानी और घर छोड़ने का फैसला किया.
मायावती हमेशा से अपने समाज के लोगों के लिए काम करना चाहती थी, चाहे वो आईएएस के रूप में करने का सपना रहा हो या एक नेता के रूप में. उस समय एक कुंवारी लड़की का घर छोड़ना, समाज के सामने कटघरे में खड़े होने से कम नहीं था. ख़ासकर वो समाज जिसका नज़रिया एक ख़ास जाति के प्रति नफ़रत रखता हो, ये वो समाज था जो महिलाओं को घर की दहलीज के अंदर ही रहने में अपनी इज्जत समझता था. मायावती ने उनके सामने घुटने नहीं टेके और हिम्मत से सामंती समाज का सामना किया.
दलितों के बारे में जब भी इतिहास लिखा जाएगा उसमें कांशीराम का नाम लिए बिना वो इतिहास कभी पूरा नहीं माना जा सकता. इस देश की संपदा-संस्थाओं पर आज भी तकरीबन एक ही वर्ग के लोगों का कब्जा है, इसके विरुद्ध ही उन्होंने छह हजार से अधिक जातियों/उपजातियों में बंटे लोगों को जोड़कर एक वर्ग, ‘बहुजन समाज’ में तब्दील करने का असंभव-सा काम शुरू किया.
यह काम कठिन तो था ही लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. लेकिन वो इस काम पूरी तरह सफल नहीं पाए, उन्होंने खुद ही स्वीकार किया था कि भारी प्रयासों के बाद भी वे बमुश्किल 600 जातियों/उपजातियों को ही जोड़ सके हैं. कांशीराम लोकतंत्र पर बहुत विश्वास रखते थे. उनका मानना था कि लोकतंत्र में जिसकी संख्या अधिक है उसी के पास बल है और भारत में ये बल दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबकों के पास है. लेकिन उन्हें इस बात का बोध नहीं, जिसे करवाना बहुत ही आवश्यक है.
बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के विचारों को आगे बढ़ाते हुए कांशीराम ने बाबा साहेब के जन्मदिवस 14 अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. लेकिन उनके बाद उन्होंने बाद में पार्टी का कार्यभार मायावती को सौंपा और उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया. मायावती ने हमेशा बाबा साहेब और कांशीराम के विचारों पर काम किया. जिन बातों का कांशीराम ध्यान रखते थे वे आज भी उन पर काम करती हैं.
मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं, वे देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री रहीं. लेकिन उनका सपना है कि वो प्रधानमंत्री भी बने. वे अपने हर जन्मदिन पर इसकी इच्छा जाहिर करती रही हैं लेकिन वो सपना आज तक पूरा नहीं हो पाया है. मायावती के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए. जिस तरह से वे उभर कर आई, सामंती सोच वालों को यह कतई पसंद नहीं आया. इसी वज़ह से मीडिया में भी उनके लिए सख़्त व कई बार तो कड़वे शब्दों का भी इस्तेमाल किया जाता है. कांशीराम ने जब बसपा की स्थापना की थी तो उसके बाद से वे भी मीडिया से दूर रहते थे, जिसका कारण था मीडिया का दोहरा रवैया. इसलिए जब मायावती भी पार्टी की सुप्रीमो बनी तो उन्होंने भी मीडिया से दूरी बनाए रखी और वो दूरी आज भी देखी जा सकती है. मीडिया का रूप निष्पक्षता के बजाए एक सोच का पालन करती दिखाई देती है और वो सोच मायावती और उनकी पार्टी के विरुद्ध काम करती है.
बहुजन समाज पार्टी यानि बसपा पर आए दिन कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं जबकि वैसा ही या उससे बड़े-बड़े कारनामे कई और राजनीतिक पार्टियां भी करती हैं लेकिन मीडिया के साथ इस समाज के शब्दों में भी वो कड़वाहट नज़र नहीं आती जो मायावती के लिए देखी जाती है. लेकिन वही आरोप यदि मायावती की पार्टी बसपा पर लगते हैं तो मीडिया और एक खास जाति के लोगों के स्वर तल्ख़, तीखे, कड़वे और अपमानित करने वाले होते हैं. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि मायावती एक कुंवारी महिला हैं और वो भी दलित जाति की महिला. छोटे बाल रखना, शादी ना करना, कम उम्र में ही घर छोड़ देना, अपनी शर्तों पर काम करवाना आदि कार्य ही पितृसत्ता पर कड़ा प्रहार करता है. इन सबकी वजह से कई बार उनके चरित्र पर भी सवाल उठाया गया है जो एक महिला पर उठाना इस रूढ़िवादी समाज के लिए सबसे आसान कार्य है. फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो चार बार मुख्यमंत्री ही क्यों ना रही हो.
यह सब उसी समाज में हो रहा है जहां एक दलित महिला का पढ़ा-लिखा होना, दलित परिवार का संपन्न होना, उनका सूट-बूट पहनना, किसी अच्छे पद पर पहुंचना, दलित का मूंछ रखना, शादी पर घोड़ी पर बैठना आदि करना पसंद नहीं, जिसकी वजह से कई दलित परिवारों के परिवार उजाड़ दिए गए. ऐसे में एक दलित महिला का मुख्यमंत्री बनने तक सफर क्या रास आया होगा.
ऐसी ही एक घटना महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव की थी. जहां एक दलित परिवार का संपन्न होना, उस परिवार की महिला का पढ़ा-लिखा होना वहां के महार जाति से उच्च कहलाने वाली जाति के लोगों को पसंद नहीं आया. जिसकी वजह से महिला और उसकी बेटी का गैंगरेप कर मार दिया गया, महिला के दोनों बेटों को मार दिया गया. मारने से पहले जातिसूचक गालियों की बौछारें की गई. किसी तरह महिला के पति की जान तो बच गई लेकिन वो ताउम्र ये साबित नहीं कर पाए कि ये पूरा मामला उनकी जाति से जुड़ा था. फिर ऐसे में मायावती जैसी महिला को सत्ता में देखकर उन जातिवादी लोगों की आखों को कैसे ना अखरता होगा.
मायावती की पार्टी में भी बुराइयां हो सकती है लेकिन उन्होंने एक मिसाल पैदा की है. ख़ासकर उन महिलाओं के लिए जिन्हें देश के साथ आजादी तो मिली थी लेकिन उस समाज से आजादी आज भी नहीं मिल पाई जहां के लोगों पर जातिवादी, सामंतीवादी और पितृसत्तात्मकता विचारधारा हावी हो. मायावती आज एक आइकन के रूप में स्थापित हो चुकी हैं, दलित समाज व महिलाओं के लिए वे प्रेरणास्रोत बन चुकी हैं. लेकिन एक ख़ास वर्ग को यह कतई पसंद नहीं आएगा कि महिलाएं उनसे कुछ सीखे और उनके कदमों पर चलें. क्योंकि उन्होंने एक सोच को, एक वर्ग को चुनौती दी है.
ऐसे में क्या एक दलित महिला का प्रधानमंत्री बनना स्वीकारा जा सकता है! आज उनका जन्मदिन है और इस बार उन्होंने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं और चाहने वालों से अपील की है कि वे केक ना काटे बल्कि आज का दिन जनकल्याणकारी दिवस के रूप में मनाया जाए, ताकि समाज के लोगों का भला हो सके.
(मीना कोतवाल पत्रकार है और यह उनके निजी विचार है)