तारिक़ अनवर चम्पारणी
प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान तक पटना शहर का अपना एक राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक महत्व रहा है। बिहार का पहला कॉलेज पटना कॉलेज की स्थापना भी सन 1863 में पटना शहर में हुई और जिसे बाद में सन 1917 में पटना विश्वविद्यालय बना दिया गया। यह बिहार का पहला विश्विद्यालय था। अपनी सारी राजनीतिक एवं सामाजिक विशेषताओं के साथ लोग इस शहर को बिहार के ऑक्सफ़ोर्ड से विख्यात पटना विश्वविद्यालय के छात्रों की शैक्षणिक, राजनीतिक एवं सामाजिक उपलब्धियों के कारण भी जानते है। स्वतंत्रता की लड़ाई को बिहार के कोना-कोना में पहुंचाने में विश्विद्यालय का अहम योगदान रहा है। यहाँ के छात्रों का असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में योगदान अविस्मरणीय है। स्वतंत्रता के बाद भी यह विश्विद्यालय अनेकों राजनीतिक आंदोलनों का सूत्रधार रहा है। इमरजेंसी के दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति की बुनियाद ही पटना विश्वविद्यालय में पड़ी और इंदिरा गाँधी की सरकार चली गयी।
इस विश्विद्यालय से पढ़कर निकलने वाले सैकड़ों ऐसे चेहरे हैं जिन्होंने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई है। विश्विद्यालय के पूर्व छात्रों में गवर्नर- श्रीनिवास सिन्हा(असम), रामदुलारी सिंह(केरल), वाल्मीकि प्रसाद सिंह(सिक्किम), तेजेन्द्र खन्ना(दिल्ली); मुख्य न्यायाधीश(सुप्रीम कोर्ट)- भुवनेश्वर प्रसाद सिन्हा, ललित मोहन शर्मा; मुख्यमंत्री- श्रीकृष्ण सिन्हा(बिहार), बीसी रॉय(बंगाल), सत्येंद्र नारायण सिन्हा(बिहार), लालू प्रसाद यादव(बिहार), नीतीश कुमार(बिहार); लोकसभा स्पीकर- बलिराम भगत; केंद्रीय मंत्री- ललित नारायण मिश्र, रामविलास पासवान, यशवंत सिन्हा, दिग्विजय सिंह, रविशंकर प्रसाद इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है।
एक समय में अपनी सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध पटना विश्वविद्यालय की आज स्थिति इसके विपरीत है। अब विश्विद्यालय में हेरिटेज के नाम पर केवल भव्य-ईमारत शेष है बाक़ी शिक्षा का कमान प्राइवेट कोचिंग माफियाओं के हाथों में है। कल तक बिहार के छात्रों का भविष्य पटना यूनिवर्सिटी तय करती थी मगर अब सैकड़ों की संख्या में कोचिंग संस्थान तय कर रही हैं। सैकड़ों करोड़ का यह व्यापार पटना के अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा बन चुका है। विश्विद्यालय के आसपास का मुहल्ला विशेषकर रमना रोड, खजांची रोड, नयाटोला, मुसल्लाहपुर हाट, बहादुरपुर, राजेंद्रनगर, मछुवा टोली और अशोक राजपथ पर गाँधी मैदान से लेकर सुल्तानगंज तक कोचिंग संस्थानों का पूरा जाल फैला हुआ है। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में यह दायरा थोड़ा बढ़कर शहर के चकाचौंध वाले इलाक़ा बोरिंग रोड तक पहुँच गई है।
इस पूरी व्यवस्था में अकेले कोचिंग संचालक ही शामिल नहीं है। बल्कि इस नेटवर्क में पटना यूनिवर्सिटी के टीचिंग एवं नॉन-टीचिंग स्टाफ, प्राइवेट हॉस्टल मालिक, लोकल प्रशासन, पब्लिशर्स, रेस्टॉरेंट मालिक, कंसल्टेंसी, लोकल मीडिया, ऑटो-रिक्शा चालक और गली-मुहल्लों के छोटे-छोटे क्रिमिनल इत्यादि भी शामिल है। पटना को वनडे कम्पटीशन का हब माना जाता है। यहाँ छात्र मुख्यतः दो-तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते है। पहला, प्रवेश परीक्षा(Entrance Exam) जिसमें NEET, CET, CAT, CLAT इत्यादि और दूसरा सामान्य प्रतियोगिता परीक्षा(General Competition) जिसमें बैंकिंग, रेलवे, एसएससी और BPSC, PCS, UPSC इत्यादि की परीक्षाएँ शामिल हैं।
पटना चूँकि बिहार की राजधानी है इसलिए यहाँ आने वाले अधिकतर छात्र ग्रामीण परिवेश के होते है और आर्थिक रूप से निम्न-मध्यवर्गीय परिवार से आते हैं। जब छात्र पहली बार पटना पहुँचते है तो रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड से ही इनका सामना ऑटो-रिक्शा से होता है। ऑटो-रिक्शा पर ही कोचिंग क्लासेज का पोस्टर चिपका होता है। कई बार यह रिक्शा-चालक ही काउंसलर का काम करने लगते है। सड़क किनारे लगे नगर-निगम के होर्डिंग बोर्ड पर लगे कोचिंग के बैनर भी छात्रों को आकर्षित करता है। इस होर्डिंग बोर्ड का लोकेशन तय करने में लोकल वार्ड काउंसलर और नगर-निगम के पदाधिकारियों का अहम रोल होता है। पटना शहर से निकलने वाले अखबारों की कमाई का एक महत्वपूर्ण स्रोत यह कोचिंग भी है। एक तो छापने के लिए advertisement मिलता है और दूसरा न्यूजपेपर के जरिये घर-घर पैम्फलेट पहुंचाने में आसानी होती है। जितने भी कोचिंग संस्थान है सभी अपने नोट्स और अभ्यास-पत्र अपने छात्रों से बेचते है। ऐसे में पब्लिशर्स की एंट्री होती है। खजांची रोड और अशोक राजपथ पर सड़क के दोनों तरफ़ दर्जनों की संख्या में पब्लिशर्स मिलते है जो पूरी तरह से इन कोचिंग संस्थानों पर आश्रित होते हैं।
जैसे ही छात्र किसी रेस्टोरेंट या सड़क किनारे लगे स्टाल पर नाश्ता-चाय के लिए पहुंचता है, वहाँ टेबल पर मेन्यू-कार्ड की जगह किसी कोचिंग का पैम्फलेट रखा हुआ पाता है। यह होटल मालिक भी छात्रों को कोचिंग और शिक्षकों की जानकारी उपलब्ध कराते है। पटना में प्राइवेट हॉस्टल का भी चलन है और इनमें से अधिकतर पर एक ही जातीय गिरोह का दबदबा रहता है। इनके मालिक भी कोचिंग संचालकों के सम्पर्क में होते है और कोचिंग में नामांकन के अनुसार कमीशन पाते हैं। लेकिन इन सब के बीच सबसे अधिक फ़ायदा कन्सल्टेंसी वालों का है। प्राइवेट कॉलेज में एडमिशन दिलाने के नाम पर पटना में कंसल्टेंसी की जाल है। इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट की तैयारी कर रहे छात्रों को कंसल्टेंसी वाले इन कोचिंग संस्थान से ही चिन्हित करते है और बाहर के प्राइवेट कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह से पूरा एक नेक्सस है जिसमें विश्विद्यालय के शिक्षकों का भी अहम रोल है। कोचिंग संस्थानों पर आश्रित होने के कारण विश्विद्यालय प्रशासन को छात्रों का कम विरोध झेलना पड़ता है।
यहाँ किसी एक विषय के एक शिक्षक का वर्चस्व बहुत लंबे समय तक नहीं रहता है। बल्कि दो-चार वर्षों के बाद नये-नये शिक्षकों की एंट्री होती रहती है। यहाँ कोचिंग संचालकों के बीच अक्सर वर्चस्व के लिए संघर्ष होता रहता है। कई बार यह संघर्ष खूनी खेल में भी बदल चुका है। इसलिए कोचिंग संचालक लोकल गुंडों को भी पालकर रखते हैं। अभी कुछ दिन पूर्व ही सामान्य प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कराने वाले मशहूर खान सर पर बम से हमला किया गया था। विस्फोट या हमला इसलिए नहीं हुआ कि खान सर पटना के सबसे बेहतरीन शिक्षक है बल्कि इसलिए हुआ क्योंकि खान सर के पास सबसे अधिक भीड़ है। बीते हुए कल में यह भीड़ किसी दूसरे कोचिंग में थी, आज यह भीड़ खान सर के पास है और कल किसी दूसरे कोचिंग के पास होगी। आज यह भीड़ खान सर के पास इसलिए नहीं है क्योंकि वह सबसे कम फ़ीस पर पढ़ाते है। बल्कि पटना शहर में सैकड़ों ऐसे शिक्षक है जो दो हजार रुपयों में पूरे विषय की तैयारी करा देते है। फ़ीस कम होने के कारण उनके पास जो भीड़ होती है अन्य शिक्षकों के पास नहीं होती है। लेकिन आज खान सर के पास यब भीड़ इसलिए है क्योंकि उन्होंने डिजिटल मीडिया का सही इस्तेमाल किया है।
डिजिटल मीडिया पूरी तरह से व्यूज और सब्सक्राइबर पर टिका हुआ है। व्यूज के लिए तथ्य नहीं बल्कि मसाला चाहिये होता है। खान सर इस मामले में अन्य सभी योग्य शिक्षकों से आगे हैं। यूट्यूब वीडियो के जरिये उनके पास भीड़ पहुँच रही है। संस्था में पहुँचने वाली छात्रों की भीड़ के साथ-साथ एप्लीकेशन पर लगने वाला सब्सक्रिप्शन फ़ीस और यूट्यूब व्यूज पर लगने वाले एडसेंस से खान सर की मार्केटिंग अच्छी चल रही है। कोचिंग संस्थानों के वर्चस्व की इस लड़ाई में खान सर ने जानबूझकर अपनी सारी ऊर्जा को एक समुदाय विशेष का मज़ाक़ उड़ाने में लगा दिया है। उन्होंने जिस तरह से तथ्यहीन तर्कों एवं उदाहरणों के साथ मुस्लिम समुदाय का मज़ाक़ उड़ाया है, दरअसल यह शिक्षण नहीं है बल्कि पटना के कोचिंग के पीछे का आपसी संघर्ष है। आज राष्ट्रवाद को एक कवच की तरह इस्तेमाल किया जाता है। खान सर बख़ूबी यह जानते हैं कि उर्दू नाम से मुसलमानों को और राष्ट्रवाद के रंग में बहुसंख्यक समुदाय के छात्रों को आकर्षित करना आसान है। अपने कोचिंग संस्थान के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए वह हास्य और व्यंग्य के नाम पर मुसलमानों के सामाजिक, राजनीतिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन को एक टूल की तरह इस्तेमाल कर रहे है। लेकिन खान सर यह नहीं समझ पा रहे है कि कोचिंग संस्थानों के इस वर्चस्व की लड़ाई में एक समुदाय विशेष की छवि धूमिल हो रही है।
(लेखक- जामिया मिल्लिया इस्लामिया और टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुम्बई के छात्र रहे है और वर्तमान में महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय बिहार में रिसर्च स्कॉलर है)