मुस्लिम राष्ट्रीय मंच : मुस्लिमों का बढ़ावा या दिखावा

सिद्धांत मोहन

वाराणसी : कई दफा सोशल मीडिया पर एक तस्वीर शेयर होती दिखती है, जिसमें पथ-संचलन कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं पर कुछ मुसलमान फूल बरसा रहे हैं. इन तस्वीरों के साथ अक्सर लिखा होता है, ‘यह है असली हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा’. इस असली की गारंटी प्रगतिशील-जनवादी तबका नहीं देता है, इस असली की गारंटी अक्सर मुस्लिम भी नहीं देते हैं. इस असली की गारंटी भारतीय जनता पार्टी के समर्थक और संघ समर्पित लोग देते हैं.


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कुछेक महीनों पहले नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में एक मुस्लिम ने जब अस्सी घाट पर ‘गौ-कथा’ के माध्यम से लोगों को गाय के महत्त्व और उसकी रक्षा के लिए प्रेरित करना शुरू किया तो लोगों को बेहद अचम्भा हुआ. बनारस की एक बड़ी रैडिकल जनता को अपने आंखों-कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था, कईयों ने इसे ह्रदय परिवर्तन समझा.

पथ-संचलन करते संघ कार्यकर्ताओं पर फूल बरसाते मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के सदस्य

इस पथ-संचलन और ‘गौ-कथा’ के बीच एक बात समान है – मुस्लिम राष्ट्रीय मंच.

लोकसभा चुनाव 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी के शासनकाल में अल्पसंख्यकों को लेकर तमाम बातों-कयासों का बाज़ार हमेशा से गर्म रहा है. प्रधानमंत्री मोदी दो बार मुस्लिम समुदाय के कम जाने-पहचाने नेताओं के साथ मुलाक़ात कर चुके हैं और उन्हें अपने जुमले ‘सबका साथ, सबका विकास’ पर भरोसा करने के लिए भी बातें की हैं. लेकिन इन आधिकारिक बातों के साथ-साथ एक और कवायद धीरे-धीरे फलक पर अपनी जगह बनाती जा रही है – मुस्लिम राष्ट्रीय मंच.

भारतीय समाज में मुस्लिमों और हिन्दुओं के बीच पसरे हुए तनाव और दूरी को पार पाने की नीयत से इस मंच की नींव रखी गयी थी. जो सबसे पहली बात इस मंच के फलक से निकलकर आई थी, वह यह कि मुसलमानों को अल्पसंख्यक न माना जाए क्योंकि वे इसी देश के हैं और यही उनकी सरज़मीं है.

वक़्त ने कई करवटें ली हैं और संघ के ही कई नेताओं ने अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की है. सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले अल्पसंख्यकों को गद्दार करार दिया जा रहा है और उन्हें देश छोड़ पाकिस्तान चले जाने की हिदायत दी जा रही है. लेकिन इन सबके बीच मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने जोड़-तोड़ के माध्यम से एक अच्छी जगह बनाने में सफलता हासिल की है.

साल 2010 में मक्का मस्जिद धमाकों के बाद सीबीआई ने इन्द्रेश कुमार से जब पूछताछ शुरू की थी तो मुस्लिमों ने शक्तिशाली विरोध प्रदर्शन करना शुरू किया था. आम जन के गले से यह बात उस समय नहीं उतरी कि मुस्लिम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता के समर्थन में क्यों होगा? लेकिन बाद में पता चला कि वे सभी प्रदर्शनकारी नारेबाज़ लोग मुस्लिम राष्ट्रीय मंच से जुड़े हुए थे. मुल्क के नए निजाम के दावों-कामों के बीच हमने मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का एक ताज़ा आंकलन करने की कोशिश की है, जिसके फलस्वरूप हम इस कम चर्चित लेकिन व्यापक होती अवधारणा के बारे में बात करने की कोशिश करेंगे.


बनारस के अस्सी घाट पर गौ-कथा कहते मो. फैज़ खान

2002 की शुरुआत में ही हुए गुजरात दंगों के बाद से भारतीय समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर एक ख़ास अवधारणा का विस्तार हुआ. अल्पसंख्यकों के मन में यह बात घर कर गयी कि आरएसएस एक हिन्दू दक्षिणपंथी संगठन के रूप में भाजपा के गैर-राजनीतिक मंसूबों को अंजाम देने में जुटा है. ऐसे में दिसंबर 2002 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघ संचालक केएस सुदर्शन के साथ-साथ एमजी वैद्य, इन्द्रेश कुमार, मदन दास, मौलाना जमील इलियासी, मौलाना वहीदुद्दीन खान, मौलाना मुक़र्रम और कई संत-मौलानाओं ने मिलकर मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की स्थापना की.

मंच तब से मुस्लिम नेताओं और मौलानों को साथ लेकर कई किस्म के कार्यक्रम-सेमीनार आयोजित करता रहा है. हाल में ही मंच ने संसद भवन की एनेक्सी में इफ़्तार पार्टी का आयोजन किया था जिसे लेकर बहस की एक सुगबुगाहट थी कि संघ जैसा कोई साम्प्रदायिक दल कैसे राष्ट्रीय महत्त्व की संपत्ति का उपयोग कर सकता है.

मंच के मुस्लिमों से जुड़ाव के बाबत वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के इलियास कहते हैं, ‘भाजपा चाहती थी कि मुस्लिमों के बीच उसकी पहुंच और पकड़ बढ़े. पार्टी और संघ साम्प्रदायिक नीतियों के चलते आम मुस्लिम समाज ने इस मंच से दूरी बरतना ज्यादा ज़रूरी समझा. यदि उनसे जुड़े हुए मौक़ापरस्त और गैर-हैसियतदार मुस्लिमों को छोड़ दें, तो मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का कोई प्रभाव अल्पसंख्यक समाज पर नहीं पड़ा है.’ मीडिया में आ रही खबरों और पिछले एक साल के भीतर हर जगह ‘मंच-मंच’ के शोर के मद्देनज़र इलियास कहते हैं, ‘सोशल मीडिया उठा लीजिए या उनकी वेबसाईट, सब कुछ अपने स्तर पर ही अपना प्रचार करने की कवायद है. और पिछले एक साल के भीतर उठे शोर की बात करें तो सरकार भाजपा की है तो संघ के किसी उपक्रम का हल्ला तो मचेगा ही.’

मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक इमरान चौधरी एक अलग तस्वीर ही पेश करते हैं. मुस्लिम और संघ के जुड़ाव पर इमरान कहते हैं, ‘इस मंच की मूल विचारधारा राष्ट्रवादी है. मुस्लिमों को लम्बे वक़्त से इस देश का नहीं माना जाता रहा है. मुस्लिम इस वजह से जुड़ रहे हैं क्योंकि अपने देश से मुहब्बत को ज़ाहिर करना है. लम्बे वक़्त से संघ और मुस्लिम समाज को एक दूसरे का विरोधी माना जाता रहा है, लेकिन साल 2002 से हम इस भ्रम को दूर करने में लगे हुए हैं. अपनी आने वाली नस्लों को हम दिखाना चाहते हैं कि असल प्रगतिशीलता के मानी क्या होते हैं, और साम्प्रदायिक सौहार्द्र के रास्ते पर मुस्लिम समुदाय और संघ साथ मिलकर चल रहे हैं.’

जमात-ए-इस्लामी हिन्द भी पूरी तरह से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की अवधारणा के खिलाफ़ है. जमात के जनरल सेक्रेटरी सलीम इंजीनियर कहते हैं, ‘अब देखिए कि उन्होंने अपने साथ मौलवियों-मौलानाओं को भी जोड़ लिया है. वे यह दिखाना चाहते हैं कि उनके समुदाय के मुखिया भी उनके साथ हैं. लेकिन इन्देश कुमार के समर्थन में प्रदर्शन करने वाले लोगों के बाबत हम साफ़ कहते हैं कि वे किराए के लोग हैं. मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने उन्हें इन्हीं कामों के लिए अपने साथ जोड़ा है.’

इस बारे में इमरान चौधरी कहते हैं, ‘हमें कोई फायदा तो नहीं मिल रहा है न ही किसी किस्म का कोई लाभ हो रहा है. न ही हम सांसद-विधायक का टिकट मांग रहे हैं, हम कहां से मौकापरस्त हो गए? असल में जो लोग हमारा विरोध कर रहे हैं, वे ही पुरानी मानसिकता के लोग हैं.’

मंच के मार्गदर्शक इन्द्रेश कुमार

मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के राष्ट्रीय संयोजक मोहम्मद अफ़ज़ाल कहते हैं, ‘हम 25 प्रदेशों में काम कर रहे हैं. सबसे पहले दहशतगर्दी के खिलाफ हमने इस मुहिम की शुरुआत की थी. किसी भी धमाकों में शैतानों की धरपकड़ न कर मुसलमानों को सताया जाता था. ऐसे में यह पहल ज़रूरी थी कि लोग असल साम्प्रदायिक सुकून से सामना करें.’ दूसरे संगठनों से दूरी के नाम पर अफ़ज़ाल कहते हैं, ‘बाकी सारे संगठन मज़हबी हैं, लेकिन यह मंच एकमात्र सामाजिक संगठन है.’ जमात-ए-इस्लामी और अन्य के बाबत अफ़ज़ाल कहते हैं, ‘जमात और बाक़ी सारे संगठन अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें असल सरोकारों से कोई लेना-देना नहीं है. इसीलिए वे साथ नहीं आ रहे हैं.’

ज़ाहिर है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही साम्प्रदायिक-उग्र होने का कठोर आरोप झेल रहा है. जब वह मुस्लिमों के पक्ष में ‘दहशतगर्दी’ की शब्दावली में बात करे तो बातें और घालमेल हो जाती हैं. अफ़ज़ाल कहते हैं, ‘मुस्लिमों को साथ जोड़ने से दहशतगर्दी में कमी आई है, रोज़-ब-रोज़ घटनाएं कम होती जा रही हैं.’ हमने पूछा यानी ‘मुस्लिम मानी दहशतगर्द’ की भाषा में मुहिम शुरू हुई, तो अफ़ज़ाल ने कहा, ‘नहीं..हम कश्मीर गए. वहाँ हुर्रियत के नेताओं से बात की और उनसे अम्न मुक़म्मिल करने की अपील की है. हम उस कॉरिडोर को ख़त्म करना चाहते हैं, जिससे मुस्लिम आतंकवाद की ओर न बढ़ें.’

कश्मीर का ज़िक्र होते ही याद आता है कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने बीते एक साल में कश्मीर में कई जगहों पर धारा 370 के खिलाफ आयोजन और संवाद सभाएं की हैं. इन सभाओं में एक ही बात सामने आती है कि धारा 370 कश्मीर और देश की शुचिता के खिलाफ है.



गिरीश जुयाल

इमरान चौधरी कहते हैं, ‘कश्मीर भारत का स्विट्ज़रलैंड हो सकता था, जन्नत हो सकता था. लेकिन सिर्फ धारा 370 की बदौलत कश्मीर आज ज़ह्न्नुम बन चुका है. इस धारा से कश्मीर को कोई फायदा नहीं हुआ है.’ इसके बाद इमरान कहते हैं, ‘कश्मीर का बाशिंदा अभी भी बेरोजगार घूम रहा है और उसे नौकरी करने ‘भारत’ आना पड़ता है.’

साल 2014 के बाद आई तेज़ी के सन्दर्भ में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के राष्ट्रीय संगठन संयोजक और मंच के उर्दू अखबार पैगाम मादरे वतन के प्रधान सम्पादक गिरीश जुयाल कहते हैं कि यह सच है कि अब हमने और व्यापक तरीके से काम करना शुरू किया है. कार्यशैली के बारे में बात करते हुए कहते हैं, ‘हम काम करने में एक रचनात्मक नयापन लेकर आए हैं. हर मामले में हमारी पारदर्शिता और इस रचनात्मक नएपन की वजह से मुस्लिम हमारी तरफ आकृष्ट हुए हैं. कांग्रेस ने मुस्लिम और भगवा आतंकवाद का जो प्रस्तुतीकरण किया था, हम उसे बदल रहे हैं. अब लोग तमाम आयोगों-कमेटियों की रिपोर्ट को देखते हैं और हमारे काम को देखते हैं तो उन्हें हमारा प्रयास ज्यादा पुख्ता मालूम होता है.’ चूंकि मंच एक लम्बे समय से मुस्लिमों को मुख्यधारा में लाने की वकालत कर रहा है, ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि ‘आरक्षण’ जैसे मुद्दे पर बात की जाए. आरक्षण की बात पर जुयाल कहते हैं, ‘हमारा पक्ष साफ़ है. या तो मुस्लिमों को अल्पसंख्यक होने का आरक्षण लेना होगा या तो जाति का आरक्षण लेना होगा. और दोनों ही सूरतों में उन्हें किसी एक को छोड़ना होगा. लेकिन आरक्षण के बारे में मेरा यह मानना है कि सबसे ज़रूरी आरक्षण शिक्षा के क्षेत्र में है, जिससे मुस्लिमों के बच्चों में स्किल-डेवलपमेंट के अपने कार्यक्रम को हम आगे बढ़ा सकें.’

जमात के जनरल सेक्रेटरी सलीम इंजीनियर कहते हैं, ‘आरएसएस दिखाना चाह रही है कि मुस्लिम उनके साथ हैं. जो मुस्लिम उनके साथ जुड़ रहे हैं, वे अपने फायदे के लिए जुड़ रहे हैं. वे दिखावटी तरीका अपना रहे हैं, जिसका सीधा मकसद है मुस्लिमों के बीच बंटवारे की स्थिति पैदा कर देना. हम मुस्लिमों को आगाह करना चाहते हैं कि यह बंटवारा बेहद खौफ़नाक रूप ले लेगा.’

दो साल पहले ‘तहलका’ को दिए गए इंटरव्यू में मंच के मार्गदर्शक और संघ के वरिष्ठ नेता इन्द्रेश कुमार ने देश के चार बड़े दंगों में जो गिनतियां की थीं, उनमें 1984 के सिख दंगे, 1989-90 कश्मीर तनाव जिसमें 30-40 हज़ार लोग मारे गए थे, 2002 में गोधरा में कारसेवकों को जलाया जाना जिसके फलस्वरूप ‘फसाद’ हुए थे और अयोध्या में रामभक्तों पर गोली चलाने की घटना शामिल हैं. ज़ाहिर है कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की विचारधारा हर हाल में हिंदुत्व के विस्तार की ही है. याद दिलाना न होगा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस और 2002 के बाद से ही देश में कई जगह हुए दंगों की ओर मंच का ध्यान ज़रूर जाता. दावे चाहे जो भी हों, लेकिन मंच की स्थापना पूरी तरह से राजनीतिक है. मंच से जुड़े लोगों से पूछने पर कि पूर्ववर्ती केंद्र सरकारों के राज में क्यों इस तरह के प्रयास नहीं किए गए क्योंकि वे मुस्लिमों की हितैषी होने का दावा करती थीं. ऐसे में यही जवाब मिलता है कि कांग्रेस के लिए मुस्लिम हमेशा से वोटबैंक साधने का ज़रिया रहे हैं, कांग्रेस ने ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति पर कार्य किया है. 2002 से चल रहे इस मंच में आज तक कोई सांगठनिक फेरबदल नहीं हुआ है. मार्गदर्शक के रूप में इन्द्रेश कुमार और राष्ट्रीय संगठन संयोजक के पद पर गिरीश जुयाल काबिज़ हैं. प्रश्न उठता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को शीर्ष नेतृत्व में रखकर चलता हुआ यह संगठन क्यों आतंरिक लोकतंत्र की कमी से जूझ रहा है? क्यों किसी मुस्लिम को ही मंच के मार्गदर्शक के रूप में स्थापित नहीं किया गया ताकि उसकी अवधारणा से लोग ज्यादा अच्छी तरह से वाकिफ़ हो सके? ज़ाहिर है कि राजनीतिक रूप से प्रेरित यह मंच अपने प्रसारित एजेंडे से अलग ही एक छवि सामने रखता है, जिससे संभव है कि अल्पसंख्यक समाज दो फांकों पर मिले.

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