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लखनऊ: हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अक्षरधाम मंदिर पर हमले के मामले में सालों जेल में रहने के बाद बरी हुए लोगों को मुआवजा देने से मना करने सम्बन्धी फैसला दिया है. इस फैसले की हर ओर निंदा हो रही है. इस फैसले को अन्याय करार देते हुए उतर प्रदेश के सामाजिक संगठन रिहाई मंच ने इसे न्यायप्रणाली में लोगों के विश्वास को तोड़ने वाला फैसला बताया है.
मंच ने कहा है कि ऐसे फैसले यह साबित करते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था में किस हद तक साम्प्रदायिक मानसिकता के तत्व प्रवेश कर चुके हैं. इसके साथ ही मंच ने यह मांग की है कि अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली सपा, बसपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां ऐसा फैसला देने वाले जजों के खिलाफ संसद में इम्पीचमेंट प्रस्ताव लाएं और अपनी धर्मनिरपेक्षता साबित करें.
रिहाई मंच नेताओं और अक्षरधाम हमले पर किताब ‘आॅपरेशन अक्षरधाम’ के लेखकों शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि यह फैसला एक उदाहरण है कि न्यायपालिका मोदी के पक्ष में खड़ी है. मुआवज़े की मांग को खारिज करते हुए जस्टिस दीपक मिश्रा और आर बानूमथि ने यह तर्क दिया कि इससे खतरनाक परम्परा पड़ जाएगी. लेखकों ने कहा कि यह तर्क अपने आप में न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है. क्योंकि न्याय का सिद्धांत पीड़ितों के मुआवजे और उत्पीड़कों को दंड के विधान पर टिका है और यह फैसला न्याय के सिद्धांत के इन दोनों ही मूलभूल आधारों को नकारता है.
उन्होंने कहा कि दस-दस साल तक जेलों में पुलिस की साम्प्रदायिक मानसिकता के चलते रहने के बाद अगर उन्हें अदालत मुआवजा देती और उन्हें फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों को सजा देती तो उससे लोकतंत्र को मजबूत करने वाली एक नई परम्परा की नींव पड़ती. राजीव व शाहनवाज़ ने कहा कि जस्टिस दीपक मिश्रा द्वारा दिए गए तर्कों के कारण ही पुलिस बेगुनाहों को फर्जी मामलों में फंसाने और उनको फर्जी मुठभेड़ों में मारने का साहस करती है, क्योंकि उन्हें पूरी उम्मीद होती है कि कोई जस्टिस दीपक मिश्रा उनकी रक्षा के लिए न्याय के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाने के लिए तैयार बैठा मिलेगा.
3 वर्षों के गहन शोध, हजारों पन्नों के कानूनी दस्तावेजों की पड़ताल, सैकड़ों लोगों से इंटरव्यू और इस प्रक्रिया में गुजरात क्राइम ब्रांच द्वारा ‘उठाए’ जाने के बाद हिंदी और उर्दू में लिखी गई किताब ‘ऑपरेशन अक्षरधाम’ के लेखकों ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अक्षरधाम मंदिर हमले में आरोपी बनाए गए 6 लोगों को दस सालों तक जेल में रखने के बाद बरी कर दिया जाना अपने आप में भारतीय न्यायव्यवस्था को मजाक साबित करने के लिए पर्याप्त था. लेकिन जस्टिस दीपक मिश्रा और आर बानूमथी ने अपने फैसले से एक बार फिर भारतीय न्यायव्यवस्था को शर्मसार कर दिया है.
उन्होंने कहा कि यह एक ऐसा शास्त्रीय मामला था जिसके पीड़ितों को न सिर्फ मुआवजा दिया जाना चाहिए था बल्कि मौजूदा प्रधानमंत्री और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और गृहमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी बेगुनाहों को फंसाने का मुकदमा चलना चाहिए था. क्योंकि आरोपियों को बरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एके पटनायक और वी गोपाला गौडा की बेंच ने न सिर्फ आरोपियों को बरी करने का हुक्म दिया था बल्कि तत्कालीन गृहमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी आरोपियों के खिलाफ पोटा के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति देने में अपने ‘दिमाग का इस्तेमाल’ न करने के लिए फटकार लगाई थी.
शाहनवाज़ आलम और राजीव यादव ने कहा कि इस कथित आतंकी हमले पर शुरू से ही नागरिक समाज और मानवाधिकार संगठन सवाल उठाते रहे हैं जिस पर स्वयं अदालतों को भी स्वतः संज्ञान लेते हुए पूरे प्रकरण की जांच करानी चाहिए थी. उन्होंने कहा कि इस मामले में मुस्लिम विरोधी मानसिकता से ग्रस्त गुजरात पुलिस और एनएसजी ने दो अज्ञात व्यक्तियों को मारकर दावा किया था कि उन्होंने मंदिर पर हमला करने वाले दोनों फिदाई हमलावरों को मार गिराया है. पुलिस रिकाॅर्ड के मुताबिक दोनों हमलावर सादे कपड़ों में थे, जबकि पोटा अदालत में घटना के चश्मदीद गवाह प्रवीणभाई छोटालाल खेतानी, राजेशभाई मधुभाई पटेल और परेशभाई जयंतीभाई ब्राह्मण ने अदालत में बताया था कि हमलावर आर्मी की वर्दी में थे. रिहाई मंच से जुड़े लेखकों ने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि पुलिस के मुताबिक हमलावर सादे लिबास में हों और प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक वे आर्मी की वर्दी में हों? उन्होंने कहा कि यह सवाल इस सम्भावना की तरफ भी इशारा करता है कि कहीं यह पूरा प्रकरण ही सत्ता प्रायोजित तो नहीं था.
रिहाई मंच नेताओं ने कहा कि इसी तरह पुलिस ने कीचड़ और खून से सनी कथित फिदाईन की लाशों, जिनकी टांगों में 25-25 गोलियां लगी थीं, की पैंट की जेबों से बिना दाग धब्बे का बिल्कुल साफ पत्र बरामद दिखा दिया था और इसी आधार पर पत्र के लेखक होने के आरोप में दो लोगों को फांसी की सजा सुना दी गई थी. ये सारे तथ्य इस पूरे मामले के पीड़ितों को न सिर्फ मुआवजे के हकदार बनाते हैं बल्कि पूरे मामले में पुलिस और एनएसजी, तत्कालीन मुख्यमंत्री और गृहमंत्री की भूमिका की भी जांच की मांग करते हैं. लेकिन दीपक मिश्र और आर बानूमथी के फैसले ने सचाई पर छाए बादलों को और घना कर दिया है क्योंकि अगर बात मुआवजे की
होती तो फिर पुलिस की भूमिका पर भी बात होती कि उन्होंने यह कारनामा किनके कहने पर किया था. जिससे की पूरा मामला ही खुल कर सामने आ सकता था. इसीलिए यह फैसला सिर्फ पीड़ितों को मुआवजे से वंचित करने वाला नहीं है बल्कि असली दोषियों को बचाने वाला एक विशुद्ध राजनीतिक फैसला है. जिसकी
निंदा करना, जिस पर सवाल उठाना न्याय के सिद्धांतों के पक्ष में खड़ा होना है.