अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बस्तर(छत्तीसगढ़): ‘छत्तीसगढ़ के अंदर पुलिस का अंधा क़ानून ऐसे ही चलता है. पहले टारगेट तलाशो, उसे नक्सली होने का जामा पहनाओ और उसके बाद चोरी, डकैती, रेप तक जो चाहो, कर डालो.’
ये शब्द छत्तीसगढ के गांव में बसने वाले लगभग हर उन आदिवासियों के हैं, जो पुलिसिया बर्बरता रोज़ देख रहे हैं.
गोमपाड़ के लोगों की भी यही दास्तान है. यहां 13 जून 2016 को मड़कम हिड़मे नामक एक लड़की को पुलिस ने नक्सली बताते हुए मुठभेड़ में मार दिया था. लेकिन गांव के लोगों व हिड़मे के परिवारवालों का कहना है कि हिड़मे नक्सली नहीं थी. हिड़मे का सामूहिक बलात्कार करके उसकी निर्मम हत्या की गई है.
मड़कम हिड़मे की मां आज भी जब इस घटना को बयान करती है तो सिहर उठती हैं. उनके पास इस पूरी घटना के एक-एक हिस्से का ब्यौरा मौजूद है. ये ब्यौरे घटना की सचाई से पूरी तरह पर्दा हटा सकते हैं.
हिड़मे की मां मड़काम लक्ष्मी कहती हैं, ‘हमारे गांव में कोई कुत्ता अगर पागल हो जाता है तो हम उसे नहीं मारते. और अगर मारना भी हो तो उसे उसके मालिक से पूछकर ही मारा जाता है. उसे मारने के बाद उस कुत्ते के लिए हमारे दिल में दर्द होता है, लेकिन यह सरकार तो हमारे लोगों को बस मारे ही जा रही है.’
गांव में बनाया गया मड़कम हिड़मे का मृतक स्तंभ
लक्ष्मी बताती हैं, ‘नक्सलियों ने कभी हमारी बेटी को मांगा था, लेकिन मैंने नहीं दिया. क्योंकि मैं उसे नक्सली बनाना नहीं चाहती थी. लेकिन सुरक्षाबलों ने कुछ ही सेकेंड में उसे हार्डकोर नक्सली बना दिया.’
मड़कम की मां सरकार व नक्सलियों के मिले होने का आरोप लगाती हैं. वे आगे बताती हैं, ‘सरकार व नक्सली आपस में मिले हुए हैं. पुलिस वाले इस गांव में दो नक्सली के साथ आए थे.’ यह बात आपको कैसे मालूम? तो इसके जवाब में उनका कहना है, ‘दो नक्सलियों को दादा (यानी नक्सली) लोगों ने अपने दल से निकाल दिया था. तब वो दोनों पुलिस से बचने के लिए हमारे गांव में ही आकर छिपे थे. गांववालों ने ही उन्हें खिला-पिलाकर गांव में अपने साथ रखा. लेकिन बाद में वे अचानक गायब हो गए. ख़बर मिली कि उन्होंने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है. उस दिन पुलिस उन्हीं के साथ आई थी.’
बताते चलें कि ‘मड़कम हत्या’ मामले में जब शोर मचा तो छत्तीसगढ़ प्रशासन थोड़ा हरकत में आया. आम आदमी पार्टी से लेकर कांग्रेस के नेताओं तक ने जमकर शोर मचाया, तब जाकर इस मामले की न्यायिक जांच कराने का आदेश दिया गया. ऐसे में यह पूरे छत्तीसगढ़ राज्य की इकलौती ऐसी घटना हो गई है, जहां सरकार न्यायिक जांच करवाने को मजबूर हुई है.
यहां यह भी स्पष्ट रहे कि इस कथित एनकाउंटर पर सवाल उठाते हुए सबसे पहले आम आदमी पार्टी के छत्तीसगढ़ राज्य संयोजक संकेत ठाकुर ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की. कोर्ट में बयान देने के लिए हिड़मे की मां व पिता उपस्थित हुए. उसके बाद कोर्ट में उनके शपथ-पत्र के आधार पर इस मामले को जनहित याचिका की बजाय डब्ल्यूपीसीआर 144/2016 के तहत क्रिमिनल मैटर के रूप में सुनना स्वीकार किया.
इस दौरान कोर्ट के आदेश पर मड़कम हिड़मे के शव का दोबारा पोस्टमार्टम हुआ. पूर्व के पोस्टमार्टम और दोबारा वाले पोस्टमार्टम में कई अंतर पाए गए. इसके अलावा और भी कई तथ्य सामने आएं जो इस ‘एनकाउंटर’ पर कई सवाल खड़े करते है. जैसे –हिड़मे को दस गोली मारी गई थी, लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि उसके शरीर पर जो वर्दी बरामद हुई, उसमें गोली से होने वाले छेद नहीं मिले. वर्दी में कही सिलवटें नहीं थी. वर्दी कहीं से भी गंदी नहीं थी. हिड़मे के हाथ के पास भरमार बंदूक रखी दिखाई गई है, जबकि हार्डकोर नक्सलियों के पास स्वचलित बन्दूकें हथियार होता है न कि भरमार.
हिड़मे के गांववालों का मानना है कि सुरक्षाबल के लोग उसे गांव से उठाकर जंगल में ले गए थे. वहां उन्होंने उससे दुष्कर्म किया और उसके बाद उसे गोली मार दी. फिर उन्होंने उसे नक्सली वर्दी पहना दी.
बहरहाल, हिड़मे की मां लक्ष्मी को अब भी देश के न्यायिक प्रणाली पर पूरा यक़ीन है. 15 अगस्त को जब पहली बार गोमपाड़ में तिरंगा फहराया गया तो उन्होंने लोकतंत्र में अपना यक़ीन दिखाते हुए सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी से राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की मांग की और तिरंगा हासिल करने के बाद स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘मैं इस तिरंगे को तब तक संभालकर रखूंगी, जब तक मेरी बेटी को भारतीय न्यायालय से इंसाफ़ नहीं मिल जाता. जिस दिन मुझे इंसाफ़ मिल गया, उसी दिन मैं इस तिरंगे को इस घाटी में हमेशा के लिए फहरा दूंगी.’
इस तरह से मड़कम हिड़मे दो तरह से मिसाल बन चुकी हैं. एक पुलिस बर्बरता की और दूसरा इंसाफ़ के ख़ातिर आदिवासियों के एकजुटता की. पुलिसिया बर्बरता ने अपनी चरम सीमा पार कर ली है. हिड़मे अब हमारे बीच नहीं है. मगर उसे इंसाफ़ दिलाना हम सबकी ज़िम्मेदारी है. क्योंकि सवाल सिर्फ़ एक हिड़में का नहीं है, बल्कि उन हज़ारों आदिवासी बेटियों व मांओं का है जिनकी कराह सुनने वाला कोई नहीं. ये मांए हमारी भी मां हो सकती हैं. ये बेटियां हमारी भी बेटियां हो सकती हैं. मुद्दे पर बात करने से पहले इस सच पर हमें एक बार ज़रूर ध्यान देना चाहिए.