अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
सुकमा (छत्तीसगढ़) : छत्तीसगढ़ में बीफ आपको ढ़ूंढे नहीं मिलेगा, मगर आदिवासियों के बीच ये बेहद ही लोकप्रिय है. जंगलों में रहने वाले आदिवासी बहुत शौक़ से बीफ़ खाना पसंद करते हैं. बल्कि यूं कहिए कि यहां बीफ़ खाने की परंपरा है. बीफ़ इनके लिए उत्सव का प्रतीक है.
कोंटा से 25 किलोमीटर दूर गोमपाड़ व उसके आस-पास के गांवों में रहने वाले आदिवासियों का कहना है कि वे सदियों से बीफ़ खाते आ रहे हैं और उत्सव के मौक़े पर खासतौर पर इसका सेवन किया जाता है.
स्थानीय आदिवासियों के मुताबिक़ वे अपने पर्व-त्योहारों में देवी-देवताओं को गाय की बलि चढ़ाते हैं. फिर उस गाय को काटकर प्रसाद स्वरूप पूरे गांव में बांटा जाता है, जिसे आदिवासी बड़े उत्साह के साथ खाते हैं.
यहां के आदिवासी बताते हैं कि आम दिनों में भी जब गांव के किसी भी व्यक्ति का गाय, बैल, बछड़ा, सांड या भैंस बीमार पड़ता है, उस स्थिति में गांव वाले उसे तुरंत काटकर पूरे गांव वालों में बांट देते हैं या फिर सामूहिक तौरपर एक जगह उसके टुकड़े किए जाते हैं. उसके बाद महुआ से बनी शराब के साथ जश्न जैसा माहौल बन जाता है.
बताते चलें कि छत्तीसगढ़ में बीफ़ पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है. यहां भैंस काटने तक की इजाज़त नहीं है. इसके बिक्री व सेवन दोनों पर रोक है.
दंतेवाड़ा के एक स्थानीय पत्रकार नाम न प्रकाशित करने के शर्त पर बताते हैं कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी हर तरह के जानवरों के मांस का सेवन करते हैं. इनमें गाय, बैल व भैंसे का मांस सबसे लोकप्रिय है. इसके अलावा अतोड़िया सांप, केकड़ा, कबूतर, जंगली सुअर, जंगली मुर्गी आदि के मांस का सेवन जमकर किया जाता है.
वहीं कोंटा के एक स्थानीय पत्रकार के मुताबिक़ छत्तीसगढ़ में बीफ़ भले ही न मिलता हो, लेकिन कोंटा से महज़ 3 किलोमीटर की दूरी पर आंध्र प्रदेश के चट्टी गांव बीफ़ का खुला कारोबार है. यहां रविवार व बुधवार को बीफ़ खुलेआम बिकता है, जहां से आदिवासी खरीद कर छत्तीसगढ़ लाते हैं और अपने पूरे परिवार के साथ इसका सेवन करते हैं.
देशभर में बीफ़ पर मचे शोर-शराबों के बीच आदिवासियों की ये आदतें इस बात की गवाही देती हैं कि खाने-पीने का संस्कार किसी भी राजनीति से परे होता है. इसे राजनीतिक चश्मे से देखने के बजाए इंसानी आदतों और पसंद के आईने से देखना चाहिए. छत्तीसगढ़ के आदिवासी इस संदेश की जीती-जागती मिसाल हैं.