अरफ़ीना खानम
बिहार में खुलेआम नशोखोरी और शराब पर पूर्ण रूप से पाबन्दी सरकार की अच्छी सोच व सही क़दम का नतीजा है. जब राज्य का मुखिया एक ‘क्रांति’ लाने का निर्णय ले ले तो उसका मनोबल कोई भी नहीं तोड़ सकता. और सोने पर सुहागा यह रहा कि इस ‘क्रांति’ में जनता की भी ज़बरदस्त भागीदारी रही.
सच पूछे तो नीतिश कुमार की महागठबंधन सरकार ने राज्य में खुलेआम नशाखोरी पर पाबन्दी लगाकर बिहार के लाखों घरों को बर्बाद होने से बचाया है. अन्यथा न जाने यह शराब कितनों की गृहस्थी और नष्ट करती, कितनी जानें और लेती. और इससे होने वाले मानसिक और शारीरिक नुक़सान का विश्लेषण कर पाना मुश्किल ही नहीं, लगभग नामुमकिन है.
विशेषज्ञ नशा को सिर्फ़ स्वास्थ्य के नुक़सान से ही नहीं, बल्कि इसे मानसिक प्रकोप से जोड़ कर देखते हैं. नशाखोरी करने वाले अपने अंदर सही-बुरे की अधिक समझ नहीं रखतें और अनजाने में घरेलु हिंसा के जन्मदाता बन जाते हैं. और इससे पूरे परिवार का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है. बाक़ी वो स्वयं के शारीरिक अस्वस्थता के उत्तरदायी खुद होते हैं.
यह तो थी परिवार की बात. अब यदि इस नशाखोरी को समाज के साथ जोड़कर देखें तो ये कहना ग़लत नहीं होगा मुजरिम और पिशाच की दुनिया इसी शौक़ की देन है. आए दिन छेड़खानी, बलात्कार एवं नकारात्मक गतिविधियों की घटनाएं इसी पैमाने की मस्ती में लोग कर गुज़रते हैं. और फिर पूरा दोष किसी राज्य विशेष के सामाजिक व राजनीतिक ढांचे के साथ मढ़ दिया जाता है.
जबकि सच यह है कि नशाखोरी को समाज से हटा दिया जाए तो समाज के ढांचे में सिर्फ़ एक ही प्रमुख दोष नज़र आता है. वो प्रमुख दोष समाज का जाति प्रथा पर आधारित होना है. दूसरी ओर राजनीतिक स्वरुप में अगर ग़ैर-ज़रूरी पैसे का लेनदेन रुक जाये तो एक राज्य के सामाजिक और राजनिति बनावट में कोई दोष नहीं.
कोई भी समाज या राजनीतिक विचारधारा कभी भी हमें अपने ज़िम्मेदारी से हटने की सलाह नहीं देती. ऐसा कोई राजनीतिक उद्घोषणा अथवा सामाजिक परंपरा इस पृथ्वी पर मौजूद नहीं, जिससे हमारा विनाश जुड़ा हो.
अब यह तो हमारा व्यक्तिगत मामला है, हम किस दिशा में खुद को ले जाते हैं. जब हम मतदान सूझबुझ से देते हैं. हर धर्म की परम्पराओं को अपने अंदाज़ में आगे ले जाते हैं. तो ये सबल व्यक्तिगत निर्णय लेने में हमें किसी क़ानून की दरकार क्यों है.
जो वस्तु सामाजिक परिवेश के लिए सही नहीं है, उसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर उस पर रोकथाम कर हम क्यों ये साबित करना चाहते हैं कि हमारे अंदर एक अच्छे नागरिक होने की क्षमता नहीं. अगर अच्छे स्वास्थ के परामर्श के लिए भी क़ानून बनाया जाये, तो हम किसी समाज में नहीं, बल्कि एक जेल में हैं, जहां बुराई को अच्छाई की ओर ले जाने का अभियान संगठित तरीक़े से चलाया जाता है और यही काम इन दिनों बिहार में किया गया है.
हम तो शालीन शिक्षित नागरिक हैं. हमें अपनी ज़िम्मेदारी खुद समझनी होगी. किसी क़ानून से हमारा कोई निजी सरोकार नहीं. फिर भी इस तरह के क़ानून को लागू करना, राज्य के लोगों को सही दिशा देना है, जिसकी सफलता में लोगों के सहयोग और सहभागिता का योगदान अवश्यम्भावी है. शुक्रिया बिहार की जनता का (चंद को छोड़कर) जो इस क़ानून को पूर्णरूप से अपने व्यक्तिगत जीवन में भी उतार रहे हैं. उम्मीद है कि बिहार और यहां की जनता एक सही दिशा की ओर लगातार बढ़ती रहेगी.
[अरफ़िना खानम शिक्षा क्षेत्र से जुडी हुई हैं. पटना में उनकी रिहाइश है. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]