फहमिना हुसैन, TwoCircles.net
औरंगाबाद: ‘जो इंसान कठिन समय में डटे रहने का सामर्थ्य रखता है उसकी झोली में सफलता डालना ऊपर वाले का काम है’, इसी विचार को मोहम्मद मोईन राजा ने अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत की, जहाँ उन्होंने अपने जीवन को समाज सेवा के कार्यों में लगा डाला.
बिहार के औरंगाबाद जिले के रहने वाले मोहम्मद मोईन राजा ने नई मिसाल कायम की है. वे बीते कई सालों से प्रदेश के विभिन्न इलाकों में आर्थिक रुप से कमजोर, पिछड़े व परिवार के सैकड़ों बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य, और जिंदगी की बुनियादी ज़रुरत मुहैया कराने के कार्य में जुटे हैं. मोहम्मद मोईन औरंगाबाद जिले के अंदर ही नहीं बल्कि अन्य जिलों के अंदर भी बच्चों को पढ़वाने और स्वास्थ्य सेवाओं के कार्य में जुटे हैं. यही नहीं, इस कार्य के लिए उन्होने अपना कैरियर भी छोड़ा और समाज सेवा को ही अपना कैरियर बना डाला
वर्तमान समय में मोहम्मद मोईन राजा ‘दाउदनगर ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ रूरल डेवलपमेंट’ के नाम से संस्था चला रहे हैं. जिसके द्वारा हॉस्पिटल, बाल आश्रम, और स्कूल चलाएं जा रहे हैं। इतना ही नहीं सरकारी और विदेशी अन्य प्रोजेक्ट पर भी उनकी संस्था जुडी हुई है.
मोहम्मद मोईन राजा ने अपनी शुरूआती पढाई बिहार के औरंगाबाद जिले के दाउदनगर से की. आगे की पढाई के लिए वो पटना आ गए जहां से उन्होंने अपने आगे की पूरी तालीम हासिल की. मोहम्मद मोईन बताते हैं कि 1991 में उन्होंने अपनी बीए की पढ़ाई पूरी की.
चूंकि मोईन राजा के घर में सभी सरकारी नौकरी में थे इसलिए घरवाले चाहते थे कि वे भी सरकारी नौकरी करें लेकिन सरकारी मुलाज़मत में मोईन राजा की दिलचस्पी नहीं रही.
उन्होंने लोगों को घर से दफ्तर और दफ्तर से घर की भागदौड़ परिवार को व्यस्त देखा. वो अपनी बातों में आगे बताते हैं कि वो हमेशा सोचते थे कि क्या कोई ऐसा काम भी है जिससे लोगों की तकलीफ को थोड़ा काम किया जा सके?
बहुत सोचविचार और साथियों से विमर्श बाद मोहम्मद मोईन ने १९९३ में अपनी संस्था दाउदनगर ऑर्गनाइजेसन ऑफ़ रूरल डेवलपमेंट(डोर्ड) के नाम से शुरुआत की.
यहीं से उनके सफर की शुरुआत होती है. बहुत से मुश्किलों के साथ उन्होंने सरकारी और गैरसरकारी संस्था के साथ मिलकर काम किया.
५-७ साल दाउदनगर में रह कर ही काम किया इसके बाद धीरे-धीरे काफी सारे प्रोजेक्ट मिलने शुरू हो गये. जिनमें कुछ प्रोजेक्ट संयुक्त राष्ट्र संघ के भी जो कि लैंगिक मतभेद से जुड़े हुए थे.
मोहम्मद मोईन बताते हैं कि बिहार के कई गांवों में मूलभूत पानी, शिक्षा, रोजगार आदि जैसी सुविधाएं भी नहीं हैं. यही नहीं, कई गांव ऐसे भी हैं जहां लोगों के पास रहने के लिए सिर के ऊपर छत तक नहीं है. मोईन ने अपनी संस्था के द्वारा असहाय लोगों की मदद और उन्हें एक मुलभुत सुविधा मुहैया करने के मिशन में जुटे हुए हैं।
वो बताते हैं कि हमने से पचास बुजुर्गों को गोद लिया, जिसमें उनके स्वास्थ्य चेकउप और राशन का सामान देते थे. अगर कोई बुजुर्ग की मृत्यु हो जाती थी तो उनकी पत्नी को ये सारी सुविधाएं मुहैया कराइ जाती थीं. वे जानकारी देते हैं कि अब इस कार्यक्रम में कुछ बदलाव हुए हैं, अब सभी बुजुर्गों को खेती के लिए तकनीकी मदद भी मुहैया करा रहे हैं.
इतना ही नहीं वो आगे बताते हैं की कुछ महिलाओं को सिलाई मशीन, कॉस्मेटिक की दुकान, राशन की दुकान आदि खुलवा देतें हैं जिससे वो अपना जीवन आसानी से बिता सकें.
वो आगे बताते हैं की महिलाओं के पचास हजार से ज्यादा सेल्फ हेल्प ग्रुप गांव के इलाकों मे बनाए गए हैं, जिनमें समय-समय पर उनकी संस्था निरीक्षण के लिए जाती रहती है.
मोहम्मद राजा बताते हैं कि कुछ साल पहले नीदरलैंड के सहयोग से दाउदनगर में उन्होंने आंख के अस्पताल की शुरुआत की है जिसमे उन्होंने अब तक मोतियाबिंद के ३०-४० हज़ार ऑपरेशन हुए हैं जो बिलकुल निःशुल्क हैं. यहां बिहार के अलग-अलग जिलों से लोग आते हैं. इतना ही नहीं कुछ शहरों में जैसे डेहरी, सासाराम, औरंगाबाद, पटना इन जगहों पर हम आने जाने की सुविधा भी दे रहे हैं, जिससे आने और जाने के किराये नहीं लगते हैं.
उन्होंने बाल मज़दूरी के खिलाफ भी काफी काम किया है. गांव में, या शहरों में रेस्क्यू ऑपरेशन के द्वारा उन्होंने हज़ारों बच्चों को आज़ाद करवाया है. पुलिस की सहायता से कितने ही बच्चों को उनके परिवार से मिलवाया है. कितनी बार तो बहुत से बच्चे ऐसे थे जो ५-6 साल बाद अपने परिवार से मिले हैं.
ऐसे बच्चों को डोर्ड के बाल आश्रम में रखा जाता है जहाँ उन्हें खाना और ज़रूरत की चीजें दी जाती हैं. वो बताते हैं कि इस तरह के बच्चे ज़ेहनी और ज़िस्मानी दोनों ही से कमज़ोर हो चुके हैं, ऐसे बच्चों की काउंसिलिंग कर पढ़ाई के लिए भी मदद करते हैं.
वो आगे बताते हैं कि डोर्ड ने दाउदनगर में ३ साल पहले स्कूल की शुरुआत की है, जहाँ सभी बच्चों को आधुनिक शिक्षा की सुविधाएं दी गई हैं. उस स्कूल में पढ़ने वाली सभी मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई नि:शुल्क हैं. इसके अलावा उन्हें कंप्यूटर की शिक्षा भी नि:शुल्क दी जाती हैं. अब वर्तमान में ७०-८० लड़कियां वहां तालीम ले रहीं हैं.
अपनी बातचीत के आख़िर में एक सन्देश के माध्यम से कहते हैं कि जो इंसान एक ही काम को अगर अपनी ज़िन्दगी को मक़सद बना ले, तो उसकी राहें बहुत आसान हो जातीं हैं.