अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
गांधी के भारत में पहले सत्याग्रह के सौ साल मुकम्मल हो चुके हैं. देश के अलग-अलग हिस्सों में चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है. मगर इस शताब्दी वर्ष को ‘सफ़ल’ बनाने के लिए जो लोग इसकी अगुवाई कर रहे हैं, वे आरएसएस और भाजपा से जुड़े नेता, समर्पित कार्यकर्ता और समर्थक हैं. क्या यह शर्मनाक नहीं है जिस धरती से गांधी ने पूरी दुनिया के लिए अहिंसा की लौ जलाई थी और 30 जनवरी 1948 को जिस मानसिकता ने उस लौ को बुझा दिया था, आज वही मानसिकता गांधी को हाईजैक करने में लग गई है?
चम्पारण की धरती पर जो कुछ हुआ उसे पूरा विश्व जानता है. यह चम्पारण की ही देन है कि गांधी आज महात्मा हैं. देश के बापू हैं. मगर गांधी को चम्पारण की ओर आकर्षित करने और यहां लाने वालों में एक पत्रकार पीर मुहम्मद मूनिस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. मूनिस की पत्रकारिता से प्रभावित होकर गांधी चम्पारण आए थे.
मगर चम्पारण में पत्रकारिता का इतना गौरवशाली इतिहास होने के बावजूद आज यहां मूनिस ब्रांड की पत्रकारिता दफ़्न हो चुकी है. अब यहां एक ख़ास मानसिकता वाले पत्रकार स्थानीय अख़बारों को हथियार बनाकर बार-बार ‘दहशत’ फैलाने लग गए हैं. इनकी रिपोर्टों से अब सूचनाएं नहीं, नफ़रत की धार फूटती हैं.
पत्रकारों के कारनामें
हाल में ही पश्चिम चम्पारण ज़िले के साठी बेलवा गांव से एक शख़्स एहतशामुल हक़ को आतंकवाद के आरोप में गिरफ़्तार किया गया. एटीएस ने एहतशामुल हक़ पर अभी आरोप लगाया है, मगर स्थानीय मीडिया ने एहतशामुल हक़ को आईएसआईएस का खूंखार आतंकी घोषित कर दिया और उनकी मां की तस्वीर छाप कर ‘आतंकी की मां’ बता दिया.
यहां दैनिक जागरण लिखता है कि इस्लामिक स्टेट के खौफ़नाक इरादों से चम्पारण के गांव-क़स्बों में लोग दहशत में जी रहे हैं. किसी ज़माने में अपने कंटेंट और विश्वसनीयता के लिए मशहूर रहा अख़बार प्रभात ख़बर बार-बार लिख रहा है कि एहतशामुल हक़ के तार आइएसआइएस से जुड़े हैं. ये अख़बार अपने पाठकों को बता रहा है कि आइएसआइएस ने अपना पांव छोटे शहरों व गांवों पर भी केंद्रित किया है. उसका माड्यूल पश्चिम चम्पारण ज़िले में साठी थाना क्षेत्र के बेलवा गांव तक पहुंच गया है. खुलेआम यह लिखा गया है कि धर्म व इस्लाम की रक्षा को लेकर बेलवा गांव का सीधा-साधा एहतशामुल हक़ आतंकी बन देशद्रोही गतिविधियों में शामिल हो गया.
ऐसी ख़बरें स्थानीय लोगों की मानसिकता पर गहरे तक असर कर रही हैं. चम्पारण के गांवों के गली-कूचों में लोग तरह-तरह की बात कर रहे हैं. सुनियोजित ढंग से लोगों के दिलों में डर पैदा किया जा रहा है. यहां के कुछ पढ़े-लिखे मुसलमानों को अब यह लगने लगा है कि आज़मगढ़, दरभंगा, समस्तीपूर व संभल के बाद अब चंपारण एजेंसियों के राडार पर है.
आईबी की नज़र काफ़ी दिनों से चम्पारण पर है. दिल्ली के जामिया नगर इलाक़े से एजेंसियां चम्पारण के कई लड़कों को उठाने की कोशिश कर चुकी हैं, लेकिन जामिया नगर में भारी विरोध के चलते ऐसा नहीं हो सका. इससे पहले 2013 में 12 दिनों के अंदर पुलिस ने दावा किया था कि आतंकवाद के तीन बड़े आरोपी टुंडा, हड्डी व भटकल इसी चम्पारण यानी नेपाल बॉर्डर से पकड़े गए हैं. इनकी गिरफ़्तारी ने चंपारण के माहौल में सनसनी फैल गई थी.
उस समय स्थानीय अख़बार लिख रहे थे कि भटकल चम्पारण आया था और चम्पारण के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में ग़रीब छात्रों को पढ़ाई का खर्च उठाने की बात कही थी. भटकल यहां इम्तियाज़ के नाम से जाना जाता था. यहां के अख़बारों ने यह भी लिखा था कि भटकल शाम को गांव के कुछ बेरोज़गार युवकों के साथ घुमने निकलता था और उनके क्षेत्र की राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक जानकारी लेता था.
ऐसी न जाने कितनी अफ़वाहों को यहाँ के अख़बार बिना किसी पुख्ता सोर्स के ख़बर बनाने में लगे थे. आमतौर पर स्थानीय पत्रकारों की बड़ी फौज बिना तनख़्वाह पर काम करती है. चम्पारण में भी ऐसा है. यहां बेरोज़गार लड़के किसी ना किसी अख़बार से जुड़ गए हैं और बिना किसी प्रशिक्षण के आतंकवाद जैसे संवेदनशील मामलों की रिपोर्टिंग कर रहे हैं.
इन पत्रकारों की रिपोर्टिंग से मुसलमानों के बीच तनाव साफ़ देखा जा सकता है. हर किसी को डर सता रहा है कि क्या पता किस पल उनके आतंकी होने के कहानी लिख दी जाए. एक बार फिर से यही कहानी यहां दोहराई जा रही है और यही खौफ़ मुसलमानों के चेहरों पर दिखने लगा है.
सतही रिपोर्टिंग
यासीन भटकल की गिरफ्तारी पर स्थानीय पत्रकारों की रिपोर्टिंग ऐसी थी कि मानों सबकुछ उनकी आंखों के सामने हुआ है. मगर अलग-अलग मीडिया संस्थानों में आई ख़बरों ने खोजी पत्रकारों की पोल खोलकर रख दी थी. भटकल की गिरफ्तारी पर तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने कहा था कि उसे भारत-नेपाल की सीमा के पास रक्सौल से गुरुवार की सुबह पकड़ा गया.
मगर जागरण ग्रुप के आई नेक्स्ट अख़बार ने अपनी ‘इन्वेस्टिगेशन’ में बताया था कि मंगलवार रात को इंडो-नेपाल बॉर्डर सोनौली से एसएसबी ने कुछ संदिग्धों को पकड़ा था, भटकल भी इन्हीं संदिग्धों में से एक था. इसी अख़बार का यह भी कहना है कि ‘एक थ्योरी के मुताबिक़ उसे पकड़ा तो तीन देशों ने मिलकर था, लेकिन उसे नेपाल के रास्ते बिहार ले जाया गया. जहां भारत नेपाल बॉर्डर सोनौली पर यह तय किया गया कि उसकी गिरफ्तारी कहां दिखाई जाएगी.’
वहीं बिहार के हिन्दुस्तान के साथ-साथ कुछ अख़बार इसकी गिरफ्तारी आदापूर से बता रहे थे. तो प्रभात ख़बर के मुताबिक़ यासीन भटकल की गिरफ्तारी नेपाल के पोखरा के 9 किलोमीटर क़रीब के एक गांव से बताई गई है. वहीं जर्मन रेडियो की वेबसाइट http://www.dw.de ने अपनी ख़बर में लिखा था कि यासीन भटकल को भारत नेपाल सीमा के क़रीब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से गिरफ्तार किया गया है.
नेपाली मीडिया इसकी गिरफ्तारी नेपाल की राजधानी काठमांडू से बता रही थी. वहीं डीएनए अख़बार के मुताबिक यासीन भटकल को यू.ए.ई. में देखा गया था. वहां पर मौजूद रिसर्च एंड अनालेसिस विंग (रॉ) के जासूसों ने तुरंत भारत को इस बात की ख़बर दी. यहां से भटकल के कारनामों का पूरा कट्ठा-चिट्ठा यानी डोजियर यू.ए.ई. सरकार को भेजा गया. यू.ए.ई. सरकार ने भटकल को देश छोड़ने से पहले ही उसे गिरफ्तार कर उसे भारतीय एजेंसियों के हवाले सौंप दिया.
राडार पर चम्पारण
चम्पारण 2011 से ही एजेंसियों के निशाने पर है और स्थानीय मीडिया भी उसमें एक ख़ास तरह की भूमिका निभा रहा है. मसलन 2011 में पश्चिम चम्पारण ज़िले के बेतिया मुफ़स्सिल थाना के निवासी अमेरिका बिंद के घर पर पुलिस ने छापेमारी कर दो लाख 90 हज़ार रुपए के जाली नोट बरामद किए. इन पर आतंकी गतिविधियों में भी शामिल होने का आरोप लगाया गया था, मगर स्थानीय मीडिया ने इस ख़बर को डाउनप्ले कर दिया था.
बिंद के घर से बरामद नोट पांच-पांच सौ रुपए के थे, जो अलग-अलग पॉलीथीन में छुपा कर रखे गए थे. मौक़े पर से पुलिस ने भारी संख्या में आपत्तिजनक सामान और नोट छापने का उपकरण भी बरामद किया था. इस पर आईएसआई का एजेन्ट होने का आरोप लगा. लेकिन वो अब कहां है, कोई खोजी पत्रकार इसकी तहक़ीक़ात नहीं कर रहा.
सन् 2011 के ही 14 अक्टूबर को नेपाल की सीमा से लगे पूर्वी चम्पारण जिले के हरसिद्धि थाना के यादवपुर गांव के दुर्गेश प्रसाद के घर से पुलिस ने आईएसआई के कथित एजेंट प्रमोद कुशवाहा को गिरफ्तार किया. कुशवाहा के पास से 13 लाख रुपए मूल्य की जाली नोट, छह मोबाइल फोन जिनके सिम कार्ड पाकिस्तान, नेपाल और भारत के विभिन्न शहरों में रहने वाले के लोगों के नाम से लिए गए थे उसे भी बरामद किया गया.
प्रमोद पूर्वी चम्पारण के रक्सौल के शीतलपुर गांव का निवासी है और वह नेपाल के वीरगंज शहर के घंटाघर स्थित अपने एक ठिकाने से जाली नोट समेत अन्य धंधो का कारोबार किया करता था. स्थानीय पुलिस के साथ-साथ मुंबई पुलिस को कई मामलों में उसकी लम्बे समय से तलाश थी. मगर उसकी गिरफ्तारी के बाद एक दो छोटी ख़बरें छपी और इसका भी कोई फॉलोअप नहीं आया.
सितम्बर 2014 में भी एनआईए व पूर्वी चम्पारण पुलिस की टीम ने रक्सौल के पनटोका से आईएसआई एजेंट व जाली नोट के धंधेबाज शारदा शंकर कुशवाहा को दबोचा था. तब ऐसी ख़बर भी लिखी गई थी कि यासीन भटकल से उसके संबंधों की जांच चल रही है, लेकिन उसके बाद कभी भी शारदा शंकर कुशवाहा की कोई ख़बर मीडिया में नहीं आई.
अभी तीन महीने पहले ही घोड़ासहन व कानपुर रेल हादसों का आरोपित आइएसआई के कथित एजेंट गजेन्द्र शर्मा को पुलिस ने गिरफ़्तार किया. लेकिन किसी मीडिया ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. बस स्थानीय अख़बार में एक कॉलम की एक छोटी सी ख़बर आई, ‘घोड़ासहन रेल ट्रैक बम कांड का फ़रार आइएसआइ एजेन्ट गजेन्द्र शर्मा ने कोर्ट में किया सरेंडर’
गजेन्द्र शर्मा पूर्वी चम्पारण के आदापुर के बखरी गांव का रहने वाला है. कथित तौर पर वह आइएसआइ के इशारे पर घोड़ासहन में रेल ट्रैक पर बम प्लांट कर यात्री को डिरेल कराने की साज़िश में शामिल था, लेकिन जिस अरूण राम व दीपक राम को बम विस्फोट कराने की ज़िम्मेदारी दी गई थी, उन्होंने ये काम नहीं किया. उसके बाद गजेन्द्र सिंह व उसके कुछ और लोगों ने उन्हें नेपाल ले जाकर उन दोनों की हत्या कर दी. उन्हीं दोनों की हत्या की तफ़्तीश में नेपाल व आदापुर से पुलिस ने छह संदिग्धों को पकड़ा, जिनसे घोड़ासहन व कानपुर रेल हादसे में आइएसआइ की संलिप्तता का खुलासा हुआ.
20 नवम्बर को कानपुर में हुए रेल हादसे में 156 लोगों की जान चली गयी थी. इस कांड में मोती पासवान नाम के एक शख़्स का नाम आया था और उसकी गिरफ़्तारी भी हुई. मोती पासवान भी पूर्वी चम्पारण का रहने वाला है. लेकिन गिरफ़्तारी के बाद किसी खोजी पत्रकार ने इस केस की पड़ताल करना ज़रूरी नहीं समझा.
दूसरी ओर एहतशामुल हक़ की गिरफ़्तारी के बाद खोजी पत्रकार सिलसिलेवार रिपोर्ट लिख रहे हैं. होना तो यह चाहिए था कि चम्पारण से बार-बार जाली नोटों के धंधे का खुलासा होने पर पत्रकारों को जुट जाना चाहिए था, क्योंकि यह देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा मामला है, मगर कोई ऐसी ख़बरों की सुध-बुध लेने वाला नहीं दिखता.
चंपारण की पत्रकारिता में यह नया ट्रेंड मिल रहा है कि आरोपी की धार्मिक पहचान का पता चलते ही फ़र्ज़ी ख़बरें गढ़ी जा रही हैं. यहां की फ़िज़ा में ज़हर घुल रहा है. ऐसा लग रहा है मानों चम्पारण अगला ‘आतंकगढ़’ बनाया जा रहा है. सवाल है कि क्या यहाँ के लोग पत्रकारों के इन ख़तरों से निपट पाएंगे या फिर चम्पारण के गौरवशाली इतिहास पर एक धब्बा लगने वाला है?