फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
नई दिल्ली : रूह अफ़ज़ा जो सिर्फ़ नाम नहीं खुद में एक ताज़गी है, जो लोगों के रूह तक उतर जाती है. लेकिन रूह में उतरने वाले इस लाल रंग को भी कुछ लोगों ने साम्प्रदायिकता के रंग में इसे घोलना शुरू कर दिया है. कुछ लोग हर धर्म व समुदाय के लोगों को ताज़गी देने वाली हमदर्द के इस शर्बत में भी साम्प्रदायिकता का स्वाद ढूंढ रहे हैं. सोशल मीडिया पर कुछ लोग रूह अफ़ज़ा को मुसलमान होने का सर्टिफिकेट बांट रहे हैं.
जहां कभी रूह अफ़ज़ा के बारे में अब तक लोगों को जानकारी थी कि इसका ज़ायक़ा ख़ास है. तो वहीं सोशल मीडिया पर बताया जा रहा है कि ये रूह अफ़ज़ा ‘मुसलमान’ है.
इतना ही नहीं, सोशल मीडिया पर रूह अफ़ज़ा को मुसलमान घोषित कर हिन्दुओं से अपील की जा रही है कि गर्मी में नीबू पानी पी लेना, लेकिन रूह अफ़ज़ा मत पीना, क्योंकि ये मुसलमान है. इसे हमदर्द कम्पनी बनाती है, जिसका मालिक मुस्लिम है. इसकी बिक्री से मुसलमानों को फ़ायदा होता है.
ट्विटर पर इस बात को आगे बढ़ाते हुए एम.सी. गौतम नामक एक व्यक्ति ने ट्वीट किया है, ‘फ्रेश जूस ले लो भैया, रूह अफ़ज़ा मुसलमान है.’
साल 1906 में यूनानी चिकित्सक हाफ़िज़ अब्दुल मजीद ने हमदर्द दवाखाना खोला तो रूह अफ़ज़ा की खोज की. रूह अफ़ज़ा मूलतः यूनानी पद्धति से बनाया गया पेय है, जो आज भी बिना किसी बड़े स्टार द्वारा प्रचार के बावजूद उतना ही पसंद किया जाता है.
देश आज़ाद हुआ तो विभाजन की कालिख़ भी दक्षिण एशिया को भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश नाम से तीन बड़े देश दे गई. तब तक अब्दुल हमीद तो चल बसे थे, लेकिन उनके दो बेटे थे. बड़ा बेटा यहीं रुक गया, छोटा पाकिस्तान चला गया. ‘हमदर्द (वक़्फ़) दवाखाना’ तो यहां चल ही रहा था, छोटे भाई ने कराची के दो कमरों में भी हमदर्द शुरू कर दिया. फिर क्या, विभाजन के दर्द के बाद जिस चीज़ ने सीमा के दोनों ओर बसे मुसलमानों को जोड़ा, वह थी रूह अफ़ज़ा. यही कारण है कि रूह अफ़ज़ा भारत में जितना पसंद किया जाता है, उतना ही पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी. आज आलम यह है कि यूपी के गाज़ियाबाद की ये खोज आज पूरे विश्व में जानी जाती है.
रूह अफ़ज़ा और हमदर्द को लेकर कोई पहली बार सोशल मीडिया पर सवाल खड़ा नहीं किया गया है. बल्कि इससे पहले भी ये विवाद उठाया गया था कि हमददर्द कंपनी में सिर्फ़ मुसलमान ही काम करते हैं. लेकिन सोशल मीडिया पर इस आरोप को भी पूरी तरह से मात मिली थी.