गांधी को हिन्दी सिखाने वाले पीर मुहम्मद मूनिस ने ही सबसे पहले हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की वकालत की!

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

जिस दौर में अपने देश में उर्दू, फ़ारसी व अंग्रेज़ी भाषा का बोलबाला था, उस दौर में पीर मुहम्मद मूनिस ने हिन्दी को अपने लेखन का भाषा चुना और हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाए जाने की वकालत की.


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1909 में ‘कर्मयोगी’ में उनका एक लेख छपा —‘राष्ट्र भाषा हिन्दी हो’, जिसे पढ़कर उस दौर के दिग्गज लेखक बालकृष्ण भट्ट ने कहा था —‘तुम लिखा करो और हमेशा लिखा करो. कुछ दिनों में तुम्हारी भाषा और शैली की क़द्र होगी.’

1917 में अष्टम हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने एक लेखमाला प्रकाशित की थी, उसमें मूनिस का भी एक लेख शामिल था —‘क्या उर्दू हिन्दी से भिन्न कोई भाषा है?’ इसमें उन्होंने हिन्दी-उर्दू के अभेद को रेखांकित किया, जिस पर आगे चलकर प्रेमचन्द सहित कई हिन्दी लेखकों के विचार सामने आए.

मूनिस का हिन्दी के प्रति ऐसा अनन्य प्रेम था कि तमाम प्रतिकूलताओं को दरकिनार कर वह बिहार प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संस्थापकों में शरीक़ रहे और नियमित उसकी गतिविधियों में रचनात्मक रूप से जुड़े रहे. बल्कि 1937 में वे सम्मेलन के 15वें अध्यक्ष भी बनाए गए.

रामवृक्ष बेनीपुरी ने बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 22वें अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए कहा था —‘इस आसन पर आते ही मेरी आंखों के सामने इस सम्मेलन के शुभारंभ के दिन मूर्तियान हो उठते हैं —जब मैं बच्चा था, स्कूल में पढ़ता था, जब भाई मूनिस जी पूज्य राजेन्द्र बाबू से प्रेरणा लेकर पटना से लौटते समय मुज़फ़्फ़रपुर पधारे थे और वहां के साहित्यिक बंधुओं से इस सम्मेलन के स्थापना की बात चलाई थी…’

आचार्य शिवपूजन सहाय अपने एक लेख में लिखते हैं, —‘मुसलमान होकर हिन्दी की ख़ातिर मूनिस ने जो आत्मात्सर्ग किया, उसका ऋण चुकाना हिन्दी प्रेमियों का कर्तव्य है. उर्दू का सहारा पकड़ते, तो ग़रीबी का डंस न सहते.’

गणेश शंकर विद्यार्थी 15 फ़रवरी, 1921 को अपने अख़बार ‘प्रताप’ में लिखते हैं, -‘हमें कुछ ऐसी आत्माओं के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त है जो एक कोने में चुपचाप पड़ी रहती हैं. संसार उनके विषय में कुछ नहीं जान पाता. इन गुदड़ी के लालों का जितना कम नाम होता है उनका कार्य उतना ही महान, उतना ही लोकोपकारी. वे छिपे रहेंगे, प्रसिद्धि के समय दूसरों को आगे कर देंगे. किंतु कार्य करने एवं कठिनाईयों को झेलने के लिए सबसे आगे दौड़ पड़ेंगे. श्रीयुत पीर मुहम्मद मूनिस भी एक ऐसी ही आत्माओं में से थे. आप उन आत्माओं में से थे जो काम करना जानते थे. चंपारण के नीलहे गोरों का अत्याचार चंपारन-वासियों को बहुत दिनों से असहनीय कष्ट सागर में डाले हुए था. देश के किसी भी नेता का ध्यान उधर को न गया, किंतु मित्रवर पीर मुहम्मद बेतिया-चंपारन-वासियों की दशा पर आठ-आठ आंसू रोए थे. आप ही ने महात्मा गांधी को चंपारन की करुण कहानी सुनाई और वह आपके ही अथक परिश्रम का फल था कि महात्मा गांधी की चरणरज से चंपारण की भूमि पुनित हुई थी…’

दरअसल, ये मूनिस के क्रांतिकारी शब्द ही थे जो गांधी को चम्पारण खींच लाए और गांधी के सत्याग्रह के कारण चम्पारण की एक अलग पहचान बनी.

गांधी जी जब पहली बार 22 अप्रैल 1917 को बेतिया पहुंचे तो हज़ारीमल धर्मशाला में थोड़ा रूक कर सीधे वो पीर मुहम्मद मुनिस के घर उनकी मां से मिलने पैदल चल पड़े. वहां मुनिस के हज़ारों मित्रों ने गांधी का अभिनन्दन किया.

गांधी जब चम्पारण में थे तो उन्हें सबसे अधिक परेशानी हिन्दी भाषा को लेकर आई, क्योंकि उन्हें हिन्दी नहीं आती थी. कहा जाता है कि उन्होंने चम्पारण में ही खूब जतन से हिन्दी सीखी, इसमें पीर मुहम्मद मूनिस ने उनकी सबसे अधिक मदद की. मूनिस चम्पारण में हमेशा गांधी के साथ रहें और सबसे अधिक मदद की.

अंग्रेज़ों ने गांधी को मदद करने वाले 32 लोगों की एक सूची तैयार की, जिसमें दसवां नाम पीर मुहम्मद मूनिस का था. (ऊपर के 9 नाम चम्पारण से बाहर के लोगों का था.) इसका ज़िक्र 12 सितम्बर 1917 को चम्पारण के सुप्रीटेन्डेंट ऑफ़ पुलिस सी.एम. मारशम द्वारा तिरहुत डीविज़न के कमिश्नर एल.एफ़. मॉरशेद को लिखे एक पत्र में मिलता है. इस पत्र में मूनिस के बारे में ये भी लिखा है कि, “बेतिया का पीर मुहम्मद मूनिस, जिसके पास कुछ नहीं है, जिसका कोई स्तर नहीं. वह एक ख़तरनाक व्यक्ति है, और व्यवहारतः बदमाश है.”

एक और पत्र में पीर मुहम्मद मूनिस के बारे में अंग्रेज़ों ने लिखा है. “गांधी को मदद पहुंचाने में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति है पीर मुहम्मद. जहां तक मैं समझता हूं, वो बेतिया राज स्कूल में शिक्षक था. उसे उसके पद से बर्खास्त किया गया, क्योंकि वह 1915 या उसके आस-पास स्थानीय प्रशासन के ख़िलाफ़ हमलावर लेख प्रकाशित कराता था. वो बेतिया में रहता है और लखनऊ के ‘प्रताप’ में संवाददाता के रूप में काम करता है. ‘प्रताप’ एक ऐसा अख़बार है, जो चम्पारण के प्रश्न पर पर उग्र विचार देता है… पीर मुहम्मद बेतिया के शिक्षित, अर्द्ध-शिक्षित रैयतों तथा रैयत नेताओं के बीच कड़ी का काम करता है.” ये पत्र बेतिया के सब-डिवीज़नल ऑफिसर डब्ल्यू.एच. लेविस ने तिरहुत डीविज़न के कमिश्नर को लिखा था. यहां यह स्पष्ट रहे कि डब्ल्यू.एच. लेविस को यह नहीं मालूम था कि प्रताप लखनऊ से नहीं, कानपुर से निकलता है. मूनिस बेतिया राज स्कूल के शिक्षक नहीं, बल्कि गुरू ट्रेनिंग स्कूल में शिक्षक थे. और मूनिस धर्म-परिवर्तन करके मुसलमान नहीं बने थे, बल्कि जन्म से ही मुसलमान थे. उनके पिता का नाम फतिंगन मियां था. 

मूनिस गांधी के लिए सबसे अधिक काम कर रहे थे, इसकी जानकारी अंग्रेज़ों को भी थी. तिरहुत डिवीज़न के कमिश्नर ने मई 1917 को सरकार को एक रिपोर्ट भेजी. इस रिपोर्ट में साफ तौर पर मूनिस के काम का उल्लेख था.

मूनिस हिन्दी के प्रचार-प्रसार में वह अहिन्दी क्षेत्रों व गांवों में विशेष ज़ोर देना चाहते थे तथा इसके लिए उन्होंने प्राण-प्रण से लग जाने की अपील आरा सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय व्याख्यान में की थी. पुस्तकालयों का जाल बुनकर तथा गांवों की दुर्दशा का हवाला देकर उसके जीवन स्तर को सुधारने पर भी बल दिया था. इस तरह भाषा के सवाल को जनता के सवाल से अलग नहीं मानते थे. इस भाषण में भी उन्होंने हिन्दी-उर्दू की अभेद स्थिति पर विचार व्यक्त किया था और भाषा को जनसामान्य से जोड़ने की वकालत की थी.

अपने समय के महान क्रांतिकारी रेडिकल लेखक राधामोहन गोकुल जिन्हें निराला जी अपना गुरू मानते थे —पीर मुहम्मद मूनिस के लेखन के मुरीद थे. इनके अलावा पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. सुंदरलाल, गणेशशंकर विद्यार्थी, कवि सत्यनारायण, कविरत्न बालकृष्ण शर्मा, नवीन, स्वामी सत्यदेव, महात्मा मुंशीराम, पं. माधव शुक्ल, आचार्य शिवपूजन सहाय और बनारसीदास चतुर्वेदी जैसी तत्कालीन हिन्दी हस्तियां मूनिस जी की अंतरंग आत्मीय दुनिया में शामिल थीं.      

बताते चलें कि हिन्दी की समर्थ साहित्यकार पीर मुहम्मद मूनिस अपनी अनन्य कृष्ण भक्ति के कारण रसखान की परम्परा के साहित्यकार माने जाते रहे हैं. मूनिस ने ही कभी कहा था, ‘वही भाषा जीवित और जागृत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके.’

(लेखक ने मूनिस पर शोध किया है और अभी भी कर रहे हैं. इन पर एक पुस्तक भी लिख चुके हैं.)

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