अंज़ारा अंजुम खान
लद्दाख : बदलते समय के साथ यहां के किसान परंपरागत खेती से दूर होते नज़र आ रहे हैं. यहां सिर्फ़ वातावरण में ही बदलाव नहीं आया है, बल्कि कृषि पद्धति में भी कई बदलाव देखने को मिले हैं, जिनमें से एक है डज़ो द्वारा खेत जुताई करने के स्थान पर आधुनिक तकनीक अर्थात ट्रैक्टर का उपयोग करना.
बताते चलें कि डज़ो याक की तरह ही गाय की एक नस्ल है, जो लद्दाख जैसे इलाक़े में 9800 फीट की उंचाई तक और ठंड में आसानी से खेत जोत सकता है.
इस संबंध में लद्दाख के उले गांव में रहने वाले 80 साल के किसान वागांईल कहते हैं, कुछ साल पहले तक लद्दाख के खेतों में डज़ो का इस्तेमाल किया जाता था, पर अब अधिकतर किसान ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं, जिससे जुताई के समय खरपतवार भी नहीं निकल पाता और कम समय में फ़सल प्राप्त करने का लोभ रसायनिक खाद के उपयोग को बढ़ावा दे रहा है. इसेक कारण यहां की मिट्टी की प्राकृतिक पौष्टिकता समाप्त हो रही है.
वो बताते हैं कि, यहां की सड़कों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. अधिकतर सड़कें 15,700 फीट की उंचाई पर हैं. ऐसे में ट्रैक्टरों को सड़को द्वारा गांव के खेतों तक ले जाने में ध्वनी प्रदूषण के साथ वायु प्रदूषण भी बड़ी मात्रा में होता है, जो लद्दाख के पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहा है. इसलिए ये अच्छा है कि आधुनिक तकनीकों की जगह परंपरागत तरीक़ों का ही उपयोग किया जाए.
कई स्थानीय लोगों का मानना है कि, वांगाईल का ये तर्क उनकी कट्टरवादी मानसिकता का प्रभाव है इसलिए लोग इसे मानने से इनकार करते हैं.
लेकिन वांगाईल की ही तरह 70 साल के एक अन्य किसान इशे डोरजे का भी मानना है कि, परंपरागत खेती से धीरे-धीरे दूर होने के कारण लोग न सिर्फ़ खेती की पुरानी विधियों को भूल रहे हैं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा से भी दूर हो रहे हैं. जिसका प्रभाव यहां के रहन-सहन पर भी पड़ रहा है. जबकि पुरानी पद्धति लोगों को खेतों द्वारा उनकी ज़मीन से भी जोड़े रखती थी.
सोनम रींगज़ीन और इशे डोरजे दोनों किसान आपसी साझेदारी से अपने खेतों में परंपरागत तरीक़े से ही खेती करते हैं.
वो बताते हैं कि, आधुनिक तरीक़े से खेती के कारण खेतों में डज़ो की जगह ट्रैकटर दिखाई देते हैं. हम जैसे कुछ लोग ही बचे हैं, जो पुरानी पद्धति को जिंदा रखने की कोशिश में लगे हैं. लेकिन यह काफी कठिन होता जा रहा है. हमारा तरीका ही हमें दूसरों से अलग करता है.
कुछ समय पहले तक लद्दाखी समाज में लोग “बेस सिस्टम” के अंतर्गत मिलजुल कर खेतों में काम करते थें. वे अपने जानवर, औज़ार सब एक दूसरे से साझा करते थे, लेकिन अब ये परंपरा समाप्त होने के कगार पर है. ऐसा करने से काम न सिर्फ़ आसान होता था बल्कि आपसी तालमेल और रिशता भी बनता था.
डोलकर नामक महिला ने कहा कि, पहले तो यहां के लोग अपने खेतों में खुद काम करते थे, लेकिन अब वो खेतों का काम बिहार और नेपाल से आए मजदूरों से करवाते हैं. जबकि सारे खर्चों को अगर जोड़ दिया जाए तो पता चलता है कि आधुनिक पद्धति के बावजूद मज़दूरों को मज़दूरी देने के बाद मुश्किल से कुछ बचा पाते हैं. और वो स्वयं कुछ और काम करते हैं.
वो भी बताती हैं कि, पहले खेतों में फ़सल लगाने के साथ सब कुछ परंपरागत तरीक़े से होने के कारण लोगों का आपसी रिशता भी मज़बूत होता था. परंतु अब अधिक मात्रा में खेतों में पीड़कनाशी का भी प्रयोग खेतों को बर्बाद कर रहा है.
संपूर्ण बदलाव साफ़ तौर पर दिखाई दे रहा है. खेतों से अब उन्हें जब कुछ प्राप्त नहीं हो रहा तो वो गांव से लेह की ओर पलायन कर रहे हैं. नतीजे में खेती-किसानी ख़त्म होती जा रही है. सवाल यह है कि अगर लोग इसी तरह से पलायन करते रहे और खेती से दूर जाते रहे तो कुछ सालों बाद खाएंगे क्या.
निसंदेह इस समय संपूर्ण लद्दाख में परंपरागत खेती समाप्त होने के कगार पर है, लेकिन वांगाईल और इशे डोरजे जैसे कुछ लोगों ने आज भी खेती की पुरानी परंपरा को बचाकर रखा है, जो आज भी लोगों को परंपरागत खेती की ओर लौटने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. (चरखा फीचर्स)