मोहम्मद सज्जाद
23 जनवरी 2018 को बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला स्थित पश्चिमी सब–डिवीज़न के मख़दूमपूर कोदरिया और पूर्वी डिवीज़न के गाय–घाट के असिया गांव में ज़बरदस्त साम्प्रदायिक तनाव पैदा हो गया, जिसने बाद में हिंसा की शक्ल अख़्तियार कर ली, लेकिन इत्मीनान की बात ये हुई कि इस हिंसा के बावजूद किसी क़िस्म के जानी नुक़सान की कोई ख़बर नहीं है.
इस साम्प्रदायिक तनाव की वजह शिक्षा की देवी ‘मां सरस्वती’ की मूर्ति की एक पास के नदी में विसर्जन के रास्ते पर पैदा होने वाला इख़्तिलाफ़ था.
ये बात अपने आप में हैरत पैदा करने वाली है, क्योंकि अगर देखा जाए तो आज तक सरस्वती पूजा के मौक़े पर यहां हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच कभी कोई तनाव पैदा नहीं हुआ था. हालांकि ऐतिहासिक ऐतबार से दुर्गा पूजा, महावीरी झंडा, मुहर्रम आदि के मौक़ों पर इस तरह के झगड़े और हिंसा की घटनाएं अंग्रेज़ों के ज़माने से होते आए हैं.
हम बख़ूबी जानते हैं कि सरकारी स्कूलों में सभी छात्र व छात्राएं धर्म से ऊपर उठकर सरस्वती पूजा के आयोजन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं. मूर्ति विसर्जन के जुलूस में भी शामिल होते रहे हैं. हां, मुसलमान छात्रों की संख्या कुछ कम ज़रूर होती थी. मुझे ये भी याद है कि उन जुलूसों में ज़्यादा से ज़्यादा जो नारा लगाया जाता था, वो था —‘सरस्वती माता की जय’
मुझे यह भी याद है कि इन जुलूसों से कभी किसी को परेशानी नहीं होती है. हद से हद परेशानी इस बात से होती थी कि कुछ दबंग व बेरोज़गार नौजवान ज़बरदस्ती चंदा वसूल करते थे. इसमें भी परेशानी सिर्फ़ इतना ही थी कि रास्तों पर गाड़ियों को रोका जाता था.
मगर इस साल ख़बर है कि उसमें नई बातें भी शामिल हो गई हैं. सरस्वती देवी की मूर्ति के विसर्जन जुलूस में अब रिवायती तौर पर तलवारें, भाले ही नहीं, बल्कि असलहें जैसे कि देसी पिस्तौल आदि का भी प्रदर्शन किया गया है. और ख़ास तौर से मुसलमानों के मुहल्लों से गुज़रते हुए जय भवानी, जय श्री राम और जय मां काली के साथ कई भड़काऊ नारे भी लगाए गए हैं.
चश्मदीद गवाहों के मुताबिक़ जुलूस में शामिल लोगों का अंदाज़, नारों का ज़ोर और असलहों की नुमाईश का तरीक़ा मुसलमान मुहल्लों से गुज़रते हुए पहले से कहीं अधिक भ्रामक था.
क्या है तनाव की असल वजह
तनाव की अहम वजह सरस्वती विसर्जन के जुलूस के लिए मख़दूमपूर-कोदरिया (कम्यूनिटी डेवलपमेंट ब्लॉक, मड़वान, पुलिस थाना करजा, कांटी विधानसभा क्षेत्र, मुज़फ़्फ़रपुर हवाई पट्टी के नज़दीक, उत्तरी बिहार) नामक गाँव में , एक रास्ते का चयन था.
ये तनाव काफ़ी दिनों से चला आ रह था. इस गांव के दक्षिणी हिस्से में तक़रीबन एक दशक पूर्व एक विवादित दो एकड़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके राम जानकी मठ बना दिया गया. यह मठ पिछले कुछ बरसों से सरस्वती पूजा का आयोजन भी करने लगा. पिछले साल और इस साल इस मौक़े पर कुछ ऐसे गाने बजाए जाने लगे जो भ्रामक थे.
इस तनाव का अंदाज़ा ज़िला प्रशासन को था, लिहाज़ा इस साल प्रशासन ने सरस्वती विसर्जन के जुलूस के लिए एक रास्ता तय कर दिया, जिसके तहत जुलूस को मुस्लिम आबादी को अलग रखते हुए दक्षिण जानिब से गुज़रते हुए पश्चिम में स्थित भटोना गांव के कुदाने नहर तक ले जाना था. लेकिन मठ वाले उसके ख़िलाफ़ थे और अपनी ज़िद पर अड़े रहे. और उन्होंने विसर्जन के लिए मुस्लिम आबादी के बीच से गुज़रते हुए उत्तर व पूरब की तरफ़ पकड़ी पकोही गांव की तिरहुतिया नहर का चयन किया.
मठ वालों की ज़िद को देखते हुए मख़दूमपूर-कोडरिया के मुसलमानों ने भी इस शर्त पर अपनी रज़ामंदी दे दी कि 25 मोटरसाईकिलों पर 50 अजनबी लफंगे जो भगवा अंगोछा से मुंह छिपाए भाले, तलवार और पिस्तौल लेकर आए थे, उन्हें इस जुलूस से दूर रखा जाए.
पुलिस पर भी पथराव
उस वक़्त हिंसा के पूर्वानुमान के बावजूद पुलिस बहुत कम संख्या में वहां मौजूद थी. उसके बाद शहर के सदर थाना के लायक़ इंस्पेक्टर शुजाउद्दीन खान को उनकी पुलिस टीम के साथ मौक़े पर भेजा गया. उसके बाद वहां भीड़ ने ज़बरदस्त पथराव किया, जिसमें इंस्पेक्टर खान बुरी तरह ज़ख्मी हो गए. भीड़ ने वीडियो रिकार्डिंग को डिलीट कर दिया. पुलिस ने 13 लोगों को गिरफ़्तार किया, तीन मोटरसाईकिलें ज़ब्त की, 62 लोगों के ख़िलाफ़ नामज़द एफ़आईआर दर्ज किया गया.
इस संबंध में एसएसपी विवेक कुमार द्वारा मीडिया को दिए बयान के मुताबिक़ उन 50 अजनबी लफंगों की वजह से ही हालात हिंसात्मक व बेक़ाबू हो गए, जिन्हें जाने से मुस्लिम आबादी के लोगों ने रोका था.
यहां पहले भी बजरंग दल बिगाड़ चुकी है माहौल
यहां ये बताना भी ज़रूरी है कि इस इलाक़े में 18 जनवरी, 2015 को अज़ीज़पुर (सरैया), 18 नवम्बर, 2015 को लालगंज (वैशाली) और 5 अगस्त, 2016 को सारण में दंगे हो चुके थे, जिनकी वीडियो रिकार्डिंग में बजरंग दल जैसे संगठनों के सदस्यों के शामिल होने के सबूत पाए गए हैं. उनमें से कुछ लोगों पर मुक़दमा अदालतों में अभी भी चल रहा है.
नवम्बर 2017 में एक क़रीबी गांव दामोदरपुर में भी हिंसा की एक वारदात हुई थी. जिसकी वजह एक मुस्लिम लड़की के साथ छेड़खानी थी. इस मामले में भी आरोपी बजरंग दल का ही एक सदस्य था.
सियासत भी है एक अहम वजह
इस पूरे मामले को मंज़र-ए-आम पर लाने में ज़िला परिषद मेम्बर जाबिर ने अहम रोल अदा किया था. जाबिर ने ज़िला परिषद के चुनाव (2016) में कुंदन कुमार को शिकस्त दी थी और जाबिर की पत्नी मड़वन ब्लॉक की प्रमुख भी चुनी गई. तब से कुन्दन कुमार बजरंग दल वालों की मदद से हिन्दुओं के अन्य पिछड़ी जातियों को अपनी हिमायत में इकट्ठा करने की कोशिश में मसरूफ़ हैं. इस मामले में भी कुन्दन कुमार को ही पेश-पेश माना जा रहा है.
कांटी विधानसभा क्षेत्र जो थर्मल पावर स्टेशन के लिए भी मशहूर है, से हमेशा किसी भूमिहार की ही जीत होती रही है. लेकिन 1995 और 2000 के चुनाव में यहां से मुस्लिम उम्मीदवार कामयाब हुए. मुज़फ़्फ़रपुर के कुल 11 विधानसभा क्षेत्रों में कांटी एकमात्र सीट है, जहां से किसी मुस्लिम उम्मीदवार के कामयाब होने की मिसाल मौजूद है.
वहीं मख़दूमपुर कोदरिया मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला की उन मुस्लिम बस्तियों में से एक है, जहां से लोग 1980 से ही मामूली नौकरियों के लिए अरब देशों में जाते रहे हैं. ज़्यादातर लोग होटलों में वेटर और ड्राईवर का काम करते हैं. कुछ लोग स्थानीय स्तर पर मोटर मैकेनिक और गाड़ियों की रंगाई का काम करते हैं.
इन मामूली पेशा लोगों की आर्थिक खुशहाली की वजह से भी हिन्दुओं के एक तबक़े में काफ़ी जलन पैदा हो गया है. ऐसे में बजरंग दल जैसे संगठन बेरोज़गार हिन्दू नौजवानों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़का कर उनमें यह भ्रम पैदा करते हैं कि अगर वो भारत को हिन्दू राष्ट्र बना लें तो मुसलमानों को यहां से भगाकर रोज़गार के तमाम अवसरों पर उनका क़ब्ज़ा हो जाएगा.
नफ़रत के इस माहौल में मुसलमानों की चुनावी कामयाबियां आग में घी का काम करती हैं. कांटी क्षेत्र के मौजूदा विधायक अशोक चौधरी एक दलित हैं, जबकि यह सीट दलितों के लिए रिजर्व नहीं है. चुनावी सतह पर मुसलमानों और दलितों की एकता भी भगवा ताक़तों की आंख का कांटा बनी हुई है. हालांकि एक सच्चाई यह भी है कि ये विधायक जी कामयाबी दिलाने वाले वोटरों को बचाने और उनकी हिफ़ाज़त के लिए दलितों को बजरंग दल से दूर रहना का कोई ऐलान या नसीहत नहीं की. और न ही उस गांव में जाना मुनासिब समझा, जहां हिंसा की वारदात हुई.
एक सच्चाई यह भी है कि मुज़फ़्फ़रपुर के देहातों में बढ़ते साम्प्रदायिक हिंसा में चंद राजपुत नेताओं का नाम भी आ रहा है, जो बजरंग दल जैसे संगठनों को बैक-डोर से सपोर्ट कर रहे हैं. लेकिन प्रोफ़ेसर रघुवंश प्रसाद सिंह किसी भी हिंसा में ना हिंसा के दौरान जाते हैं और न ही हिंसा के बाद. गाय घाट विधानसभा क्षेत्र से हारने वाली बीजेपी उम्मीदवार वीणा देवी और उनके शौहर दिनेश सिंह (एमएलसी) के बारे में सभी जानते हैं कि रघुवंश बाबू के बहुत ही ख़ास हैं.
गाय घाट के हिंसा में भी सियासत है असल वजह
गाय घाट क्षेत्र में बीजेपी की राजपुत विधायक वीणा देवी को शिकस्त देकर एक यादव की कामयाबी के बाद वहां भी साम्प्रदायिकता का ज़हर फैलाया जा रहा है ताकि हिन्दुओं की सभी जातियां बीजेपी की हिमायत में एकत्रित हो जाएं. इस वजह से यहां की एक बस्ती असिया में भी इसी दिन यानी 23 जनवरी, 2018 को सरस्वती विसर्जन जुलूस के रास्ते को लेकर फ़साद हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में लोग ज़ख्मी हुए. ये विवाद अक्टूबर 2017 से ही जारी है. यहां यह बात अहम है कि मुसलमानों के सुरक्षा में यादवों ने कुर्मियों से मुक़ाबला किया.
सबकी है अपनी अपनी सियासत
इलाक़े के कुछ जानकार लोगों के मुताबिक़ लालू यादव की गिरफ़्तारी के बाद से गरीब और पिछड़े हिन्दुओं की आरजेडी से हमदर्दी में इज़ाफ़ा हुआ है. उन्हें ये भी डर है कि आने वाले चुनाव से ठीक पहले तेजस्वी और मीसा यादव को भी जेल भेजा जा सकता है.
तेजस्वी यादव भी आरजेडी के अंदर किसी गैर-यादव और दलित को आगे लाकर उन्हें उप-मुख्यमंत्री या इस तरह के किसी ऑफर के ज़रिए ऐसी आबादियों को अपनी पार्टी से जोड़ने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. इससे भी भगवा ताक़तों का काम आसान हो रहा है.
दूसरी तरफ़, राजनीतिक विश्लेषकों का ख़्याल है कि नोटबंदी और जीएसटी के लागू होने के बाद इलाक़े में बेरोज़गारी और आर्थिक बदहाली की वजह से हिन्दू नौजवानों में मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बेचैनी के पेशेनज़र उन्हें मुसलमानों के ख़िलाफ़ गुमराह कर भगवा संगठनों से जोड़ने की कोशिश की जा रही है और उन्हें यह अहसास दिलाया जा रहा है कि धर्म की रक्षा कर रहे हैं.
यही नहीं, इधर नीतिश कुमार को भी यह डर है कि बिहार की सियासत में जल्द ही उनकी अहमियत ख़त्म हो सकती है, लिहाज़ा उनकी कोशिश यह है कि कुछ सामाजिक कार्यों के ज़रिए महिलाओं को अपनी हिमायत में एकत्रित कर लिया जाए. इसके अलावा उनकी नज़र भूमिहार, अति-पिछड़ा और महा-दलितों पर भी है.
इसके अलावा नीतिश ने ज़िला प्रशासन को यह आदेश भी दी है कि मुज़फ़्फ़रपुर में 24 मई, 2018 को बिहार साईंटिफिक सोसाइटी के डेढ़ सौ साल पूरे होने पर एक विशाल जलसा का आयोजन किया जाए.
स्पष्ट रहे कि 24 मई, 1868 को मुज़फ़्फ़रपुर के सब-जज और सर सैय्यद के दोस्त सैय्यद इमदाद अली ने यह यह सोसाइटी क़ायम की थी, जिसने भूमिहार ज़मीनदारों की मदद से कई एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल क़ायम किए थे, जिनमें पांच ख़ास मुज़फ़्फ़रपुर में थे. इसके अलावा हरदी, जयंतपुर, पारो, शिवहर, लालगंज और नरहन जैसे गांव में भी ये स्कूल खोले गए थे.
इनके अलावा 7 नवम्बर, 1871 को मुज़फ़्फ़रपुर में कॉलिजिएट स्कूल भी क़ायम किया किया गया था और जुलाई 1899 में साईंटिफिक सोसाइटी और भूमिहार ब्रहमण सभा के संयुक्त तत्वाधान से एक कॉलेज भी क़ायम किया गया जो अब एक भूमिहार रेलवे ठेकेदार और धरहर ज़मीनदार लंगट सिंह (1850-1912) के नाम पर है.
साईंटिफिक सोसाइटी का जश्न मनाने जैसे पहल की मदद से नीतिश कुमार ख़ास तौर पर युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करेंगे. इस बात को भगवा ताक़तें भी समझ रही हैं. ऐसे में इनकी कोशिश यही है कि बरसों से आजमाया हुआ फार्मुला के तहत राजपुतों को भूमिहार और मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया जाए.
इस काम में हिन्दुओं की पिछड़ी जातियों का इस्तेमाल करके राजपुतों के साथ खड़ा करके गैर-बीजेपी पार्टियों, जिनमें खुफिया तौर पर नीतिश कुमार को भी शामिल रखा जा रहा है, के ख़िलाफ़ महाज़ तैयार करके आगामी चुनाव की तैयारी की जा रही है.
ऐसे हाल में बीजेपी की हिमायत से बने बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार में साम्प्रदायिक ताक़तों से लड़ने की क़ाबलियत ख़त्म हो चुकी है, या यूं कहें कि लड़ना ही नहीं चाहते. ऐसे में मुज़फ़्फ़रपुर जैसे दंगों के ज़रिए राज्य की फ़िज़ा को ख़राब करने की कोशिशें जारी रह सकती हैं जिनसे बिहार का वर्तमान और भविष्य दोनों बहुत ख़तरे में है. (अनुवाद —अफ़रोज़ आलम साहिल)
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के मॉडर्न एंड कंटेम्प्रेरी इंडियन हिस्ट्री के प्रोफ़ेसर हैं. बिहार की राजनीति पर इनकी किताबें Muslim Politics in Bihar: Changing Contours और Contesting Colonialism and Separatism: Muslims of Muzaffarpur since 1857 प्रकाशित हो चुकी हैं.)