आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
मुज़फ़्फ़रनगर : जहां एक तरफ़ मीडिया का ‘राजनीतिकरण’ के साथ-साथ ‘बाज़ारीकरण’ हो चुका है, वहीं एक शख़्स ऐसा भी है, जो रोज़ अपने हाथों से लिख कर अख़बार निकालता है. और वो ये काम पिछले 17 साल से लगातार कर रहा है. इस महान शख़्स का नाम है —दिनेश
53 साल के दिनेश कुमार मौजूदा दौर की ज़िन्दगी में एक विचित्र प्राणी हैं. सच्चा, ईमानदार और ग़रीब, मगर उस पर इंसानियत और देश के लिए कुछ करने का बोझ है. और इस बोझ को वो 17 साल से लगातार उतारने की जद्दोजहद में लगे हैं. इसके लिए वो काग़ज़ पर अपने हाथ से लिखकर अख़बार निकालते हैं.
पहले वो एक काग़ज़ की सीट पर ख़बरें और अपने विचार लिखते हैं. फिर उसकी फोटो कॉपी कराकर इसे सार्वजनिक स्थलों पर दीवार पर चिपका देते हैं. दिनेश ऐसा प्रतिदिन करते हैं. इन 17 सालों में शायद ही कोई ऐसा दिन रहा हो, जब दिनेश ने अपना अख़बार न निकाला हो. इस तरह से इतने लंबे समय तक चलने वाला शायद यह भारत का पहला हस्तलिखित अख़बार है.
दिनेश दूसरे अख़बारों से अपनी मतलब की ख़बर तलाशते हैं और उसे स्केच पैन से सफ़ेद काग़ज़ पर लिखते हैं. इन ख़बरों के अलावा वो अपने विचार भी लिखना नहीं भूलते.
दिनेश मुज़फ़्फ़रनगर के सुभाषनगर मोहल्ले में रहते हैं. समाज को अपनी क़लम से सन्देश देने वाले इस दिनेश ने शादी नहीं की है. उनका मानना है कि शायद शादी का बंधन उन्हें यह सब करने से विचलित करता.
TwoCircles.net से बातचीत में वो कहते हैं कि, अपने स्कूल के दिनों से अख़बार निकालने में रुचि थी, मगर बात करने पर सब इसे ‘पैसे वालों’ का काम बताते थे. मुझे लगता था कि मेरे मन में जो विचार पैदा हो रहे हैं वो सबको जानने चाहिए.
वो आगे बताते हैं कि, चूंकि अख़बारों में ज़्यादातर ख़बरें झूठी आती थी, इसलिए सच्ची बात कहने की भी लगन थी. मैं रोज़ अख़बार पढ़ता हूं. उसके बाद उस में से अच्छी ख़बर तलाशकर उसे खुद लिखता हूं. संपादकीय मैं खुद लिखता हूं. जैसे आज मैंने लिखा है —‘लवफोबिया से बचे लड़कियां…’
दिनेश बताते हैं कि, मैंने कई लोगों से बात की कि अख़बार निकालने में मेरी मदद करें, मगर बात नहीं बनी. क्योंकि यह लोग ग़लत धंधे को फलने-फूलने के लिए अख़बार का सपोर्ट चाहते थे और यह मैं नहीं कर सकता था.
वो कहते हैं कि, मैं अपने उसूलों पर चलने वाला आदमी हूं. हां! इससे बहुत कम लोगों तक मेरी आवाज़ पहुंचती है, मगर मेरी क़लम गुलाम नहीं है.
मुज़फ़्फ़रनगर की कचहरी में दिनेश से मुलाक़ात 12 बजे के बाद हो सकती है. यहां हर शख्स उसे पहचानता है. क्योंकि इससे पहले का समय दिनेश स्कूली बच्चों को देते हैं, वहां वो टॉफी बेचते हैं.
बताते हैं, अपने मतलब की ख़बरें छापते अख़बारों में निष्पक्षता नहीं है. अब हर ख़बर किसी न किसी विचारधारा से प्रभावित होती है. मेरे अंदर भी सामाजिक ज़िम्मेदारी की भावना ज़ोर मारती है. इसलिए काग़ज़ में हाथ से लिखकर अपना ‘विद्यादर्शन’ निकालता हूं.
दिनेश के हस्तलिखित अख़बार का नाम विद्यादर्शन है. वो हमें बताते हैं कि, ऐसा वो 17 साल से हर दिन करते हैं. दूसरे अख़बारों की तरह उनकी भी छुट्टी होती है. वो कहते हैं —“खुद लिखता हूं, खुद बांटता हूं.”
कचहरी में पिछले 22 साल से धरने पर बैठे मास्टर विजय सिंह दिनेश के बारे में हमें बताते हैं कि, दिनेश बहुत ही खुद्दार शख़्स हैं. ये बच्चों को टॉफी बेचकर अपना गुज़ारा करता है. पहले स्कूल में टॉफी बेचता है, फिर आकर अपना अख़बार लिखता है. उसकी फ़ोटो कॉपी कराता है. दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि समाज या राजनेता ऐसी विचाधाराओं के साथ खड़े नहीं होते.
बता दें कि दिनेश के अख़बार में कोई विज्ञापन नहीं होता है. और न ही इस अख़बार को कोई सरकारी सहायता हासिल है. और न ही 17 साल से निकलने वाले इस हस्तलिखित अख़बार की कोई सूचना स्थानीय सूचना कायार्लय को है. मुज़फ़्फ़नगर के सूचना अधिकारी हमसे बताते हैं कि, विधादर्शन नाम का कोई अख़बार हमारे यहां पंजीकृत नहीं है.
मास्टर विजय सिंह बताते हैं कि, बाक़ी पत्रकारों की तरह दिनेश का किसी नेता और अफ़सरों से कोई परिचय नहीं है. शायद उसे इसकी ज़रूरत ही नहीं है.
वो आगे कहते हैं कि, मैं पिछले 17 साल से उसे देख रहा हूं. उसकी ख़बरें साम्प्रदयिक और एक पक्षीय नहीं होती, बल्कि भाईचारा और समाज को सन्देश देने वाली होती हैं. उसका संपादन अच्छा है. अफ़सोस यह है कि वो एक ग़रीब पत्रकार है और उसके पास किसी तरह का कोई संसाधन नहीं है, मगर उसका हौसला बेमिसाल है.
समाजसेवी आसिफ़ राही का कहना है कि, दिनेश की निष्ठा और मेहनत देखने लायक़ है. उनका दृष्टिकोण राष्ट्र के प्रति सकारात्मक है. अच्छा है. एक पत्रकार को सरकार के प्रति नहीं, बल्कि जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए. इसमें दिनेश खरे उतरते हैं.
वो आगे बताते हैं कि, ऐसे समय पर जब तमाम मीडिया आलोचनाओं में घिरी हैं, दिनेश ने एक मिसाल कायम की है.