मीडिया पर कसता शिकंजा

(Photo By : IndiaNews)

रईस अहमदी

“खींचों न कमानों को न तलवार निकालो,
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो”


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मशहूर शायर अकबर इलाहबादी का यह शेर अंग्रेज़ी दौर में दबे कुचले मज़लूम भारतीयों की आवाज़ बुलंद करके सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने के लिए लिखा गया था। जहां ब्रिटीश हुकूमत के ज़रिये जुल्म की इन्तहा कर नाइंसाफी की हदों को पार किया जा चुका था। सरकारी मनमानी के खि़लाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को पुरज़ौर तरीके से दबा दिया जाना आम बात थी।

आज यह बखूबी समझा जा सकता है कि मोदी सरकार में जिस तरह मुखर आवाज़ों को दबाने की कोशिश की जा रही है वह अंग्रेज़ी दौर की याद दिलाता है। इससे भी अधिक भयानक है वह चुप्पी जो फेसबुक और ट्विटर के साथ-साथ मीडिया संगठनों में छायी हुई है।

मीडिया की नाक में नकेल डाले जाने का जो सिलसिला पिछले कुछ सालों से नियोजित रूप से चलता आ रहा है, यह उसके ख़ौफ़ को बयान करता है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग तो दिल्ली में सत्ता-परिवर्तन होते ही अपने उस ‘हिडेन एजेंडा’ पर उतर आया था, जिसे वह बरसों से भीतर दबाये रखे थे। यह ठीक वैसे ही हुआ, जैसे कि 2014 के सत्ता प्राप्ती के तुरन्त बाद गोडसे, ‘घर-वापसी’, ‘लव जिहाद’, ‘गो-रक्षा’ और ऐसे ही तमाम उद्देश्यों वाले गिरोह अपने-अपने दड़बों से खुल कर निकल आये थे और जिन्होंने देश में ऐसा ज़हरीला प्रदूषण फैलाकर रख दिया है जिसकी मिसाल आज़ाद भारत के इतिहास में देखने को नहीं मिलती।

नफ़रत और फेक न्यूज़ की जो पत्रकारिता मीडिया के इस वर्ग ने की, वैसा कुछ 70 सालों में कभी नहीं देखा गया। 1990-92 के बीच भी नहीं, जब बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि आन्दोलन अपने चरम पर था।

आज मीडिया राजनैतिक मुखौटों की तरह खुद को पेश करता नज़र आता है। एंकर दिन रात हिन्दु-मुसलमान करके देश में भड़कायी गई नफ़रत की आग में तेल छिड़कने का काम कर रहे हैं। जिसके नतीजे में एनडीए शासन के दौरान 2014 से अब तक तैयार हुए भीड़तंत्र का शिकार होकर कई मासूम इंसानों को अपनी जान गवांनी पड़ी है। इसमें मुस्लिम, दलित और पिछड़े समाज के लोग खासतौर से निशाने पर हैं।

हाल ही में आर्य समाज प्रमुख स्वामी अग्निवेश पर झारखंड में भाजपा के कार्यकर्ताओं ने हमला कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि मोदी सरकार के खि़लाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को भीड़ द्वारा इसी तरह दबाने का काम किया जाएगा। गौरी लंकेश, कलबुर्गी जैसी प्रगतिशील आवाज़ों को भी हत्या कर ख़ामोश किया जा चुका है। जिसमें दक्षिणपंथी फांसीवादी चेहरा बेनकाब हो चुका है। जिसकी जितनी आलोचना की जाए कम है।

मीडिया में इन ख़बरों को ख़ास तवज्जो नहीं दी जाती बल्कि मीडिया इन घटनाओं के सवाल की जगह सत्ता की चलाकी के सवाल दिखा रहा होता है। मुद्दे को दूसरे एंगल पर रखकर मज़लूम को ही ज़ालिम और ज़ालिम को जायज़ ठहराने का यह खेल सत्ता के इशारे पर दिनरात खेला जा रहा है।

यह टीवी एंकर ख़बर को हर तरह से सिर्फ हिन्दू-मुसलमान के एंगल से पैश करते नहीं थकते। दरअसल अपने आकाओं को खुश करने के लिए यह तलाक हलाला और निकाह से हटकर मुसलमानों की अन्य समस्याओं को दिखाना हीं नहीं चाहतें हैं। स्वास्थ्य, चिकित्सा, साफ सफाई, शिक्षा, विकास और किसानों के मुद्दे इसके एजेंडे में जैसे शामिल ही नहीं। चंद बुर्का ओढ़ने वाली या उर्दू नाम वाली महिलाओं के ज़रिय तलाक़ और न के बराबर घटने वाले हलाला के मुद्दों को पूरी मुस्लिम कौम का और तमाम मुस्लिम महिलाओं की तकलीफ का मसला बनाकर पेश किया जाता है। चाहे वो मुस्लिम हो या न हो इस बात की भी कोई जांच पड़ताल नहीं की जाती।

जबकि देश में हज़ारों की तादाद में बेगुनाह मुस्लिम मर्द जेलों की सलाखों के पीछे बेहद दर्दनाक ज़िन्दगी जीने को मजबूर है। दंगों में मारे गए पीड़ित परिवारों की महिलाओं की परवाह भी इन मीडिया एंकरों को नहीं है। क्योंकि इन बेगुनाहों की हालत देखना या दिखाने में किसी को भी फायदा नज़र नहीं आता।

असम में हुए NRC में 40 लाख से अधिक लोगों को नागरिकता सूची से बाहर रखा गया है जिसमें सेना और अर्धसैनिक बलों में अपनी सेवा दे चुके, वर्तमान में सेवा दे रहे जवान भी शामिल हैं। हद तो तब हो जाती है जब विधायी पदों पर रह चुके लोगों के नाम न आने के बाद उन्हें भी मीडिया बांग्लादेशाी साबित करने में पीछे नहीं रहता।

अंग्रेज़ी दौर में लोग शासन का शिकार होते थे अब सत्ता ने भीड़ को नया हथियार बनाकर शिकार का एक नया तरीका ढूंढ लिया है। यह भीड़ कहीं भी किसी भी वक़्त आप पर हावी हो सकती है। नेता को कुर्सी और चैनलों को टीआरपी दिलवा सकती है। जिसे बहस कराकर टीवी दर्शकों को परोस दिया जाता है।

हमारे देश की कथित मेनस्ट्रीम मीडिया का दिल्ली गेंगरेप से उबलने वाला खून बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में 34 से ज़्यादा बच्चियों के साथ हुए घिनौने बलात्कारों पर आखिर क्यों नहीं उबल पड़ता? यह सिलसिला यहीं नहीं ठहरता है बल्कि मीडिया के लागों में ही सरकार के खि़लाफ़ सवाल करने की जुर्रत करने वाले पत्रकारों को बज़ाब्ता निशाने पर लिया जाता है।

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