आस मोहम्मद कैफ | शिकारपुर(मुजफ्फरनगर)
पांच साल पहले उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में हुए दंगे में साठ से ज्यादा लोग मारे गए. हमेशा की तरह सरकारी मुआवज़े का एलान और बंटवारा हुआ. लेकिन जुम्मा (52) जो उस दिन मार दिया गया अपने आश्रितों के लिए मुआवज़े के लायक नहीं बन पाया. वजह, उसकी हड्डी मिली थी और लाश नहीं. हड्डियों ने गवाही दी लेकिन फिर भी वो मुआवज़े के लायक नहीं मानी गयी.
तब 8 सितंबर 2013 को रात 8 बजे मुजफ्फरनगर के शाहपुर थानाक्षेत्र के हड़ोली गाँव में दंगाईयों ने समूहबद्ध होकर मुसलमानों पर हमला किया. हमलावरों के हाथों में गंडासे,बल्लम,तलवारें और बंदूके थी. इस घटना की चश्मदीद मोमिना(40) बताती है, “हमले में शामिल सभी लोग जाट नही थे बल्कि झींवर(कश्यप) आगे-आगे थे.मस्जिद में आग लगा दी गई. हमारे घरों में लूटपाट हुई ज्यादातर लोग अपना घर छोड़कर भाग गए हम एक घर में छिप गए.हम बच गए मगर मेरे जेठ जुम्मा मार दिए गए,जुम्मा जिद्दी थे वो अपने घर से बाहर नही भागे. जुम्मा ने शादी नहीं की थी और उन्होंने घर नही छोड़ा कहा कि मर भी जाऊँगा तो मेरा क्या है! उन्हें मार दिया गया.उन्हें मार दिया पुलिस हमें बचाकर ले आई. मगर उनकी लाश नही मिली”.
जुम्मा की लाश नहीं मिली. उसके परिजन परेशान रहे. बाद में मुआवजा भी नहीं मिला, क्यूंकि जुम्मा की लाश नहीं मिली. पुलिस ने एफआईआर लिखने को मना कर दिया जब लाश ही नही मिली तो फिर हत्या का मुकदमा दर्ज नही किया जा सकता था.
मोमिना अब हड़ोली से 3 किमी पहले शिकारपुर गाँव में रहती है.यहाँ एक तालाब के किनारे हड़ोली से रातों-रात जान बचाकर भाग आए 39 मुसलमानो की गंदी सी दिखने वाली बस्ती में रिहाइश है.वो कहती है”हमारी जान बच गई और यह भी पता चल गया कि समीर(जुम्मा के भाई का बेटा)के ताया अब्बा को काट कर मार दिया गया मगर उनकी लाश नही मिली,कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने उनको मारे जाते हुए देखा,यहाँ तक मारने वाले तक गाँव में कहते घूम रहे थे एक ‘कटवा’ कम कर दिया.चार और लोगों को भी काटा गया मगर वो बच गए. “
जमीयत उलेमा हिन्द के प्रवक्ता मौलाना मूसा क़ासमी इससे आगे की कहानी सुनाते है वो कहते है “अक्टूबर 2013 में बेहद अनुरोध के बाद प्रशासन ने बुरी तरह जल चुके जुम्मा के घर के मलबे को को जेसीबी मशीन से हटाया,मलबे को हटाने पर हड्डियां मिल गई,एक ख़ास षड्यंत्र के तहत इन्हें जानवर की हड्डियां बताया गया”.
स्थानीय पत्रकार गुलफाम अहमद बताते है कि “इसके बाद इन हड्डियो को डीएनए टेस्ट के लिए भेज दिया गया.एक साल में रिपोर्ट आई.जहाँ से इन हड्डियो के किसी मानव की होने की पुष्टि हो गई.यह शायद दंगो में डीएनए रिपोर्ट के आधार पर हत्या के आरोप तय होने का पहला मामला था”.
पुलिस ने इसी रिपोर्ट के आधार पर 8 लोगों के विरुद्ध हत्या और सबूत मिटाने का मामला दर्ज कर लिया.यह सभी फ़िलहाल जमानत पर बाहर है.
जुम्मा का क़त्ल हुआ,उसे उसके घर के अंदर जल दिया गया,डीएनए टेस्ट और गवाहों के बयानों से इसकी पुष्टि हुई,तत्कालीन डीएम कौशलराज शर्मा ने बाकायदा इसपर शासन को एक रिपोर्ट लिखी मगर जुम्मा के परिजनों को ‘एक रुपया’ भी मुआवजा नही मिला.(पढ़े डीएम के पत्र)
इस्लामन (55) हमें बताती है, “हड़ोली से जान बचाकर भाग आए 39 मुस्लिम परिवारो में से किसी को कोई मुआवज़ा नही मिला. जुम्मा को मार दिया गया चार और गंभीर घायल थे.घर जला दिए गए.सामान सब खत्म हो गया.कोई सरकारी मदद नही मिली,गाँव में सबने अब अपने घर आधी से कम कीमत पर बेच दिए हैं हमारे घर पर अब झिवंरो(कश्यप) का कब्ज़ा है वो जो पैसे भी देंगे हमें लेने पड़ेंगे वरना हम उनका क्या बिगाड़ लेंगे”.
गौरतलब है कि अखिलेश सरकार ने मुजफ़्फ़रनगर दंगे के बाद 95 करोड़ के मुआवजे बांटने का दावा किया था इसमें मृतको के परिजनों को 15-15 लाख और घायलों और बेघरों को 5-5 लाख रुपए दिए गए. 2016 में शामली में लिसाढ़ गाँव के 11 लापता लोगों को भी मृतक मानकर मुआवज़ा दिया गया इससे अलग बहावड़ी व अन्य गाँव के चार अन्य लोगों को भी मुआवज़ा मिला मगर मुजफ़्फ़रनगर दंगे के सबसे चर्चित क़त्ल जुम्मा के परिजनों को मुआवज़ा नही मिला.
जुम्मा के भाई नजीर अहमद(45) के मुताबिक मुआवज़ा का चयन स्थानीय नेतागणों की मर्ज़ी से तय हुआ जिन्होंने रिश्वत देने में सक्षम अथवा अपने चेहते लोगों को लाभ पहुंचा दिया जबकि दंगे में बर्बाद हो गए लोग आज भी दो वक़्त की रोटी के लिए जूझ रहे है.
अखिलेश सरकार के माध्यम से दिए गए मुआवजे के बाद उस समय की विपक्षी पार्टी भाजपा ने जमकर बवाल काटा था और सूबाई सरकार पर तुष्टिकरण का आरोप लगाया था हालाँकि यह मुआवज़ा समान रूप से वितरित किया गया था मगर सैकड़ो लोग इससे फिर भी अछूते रह गये.मुजफ़्फ़रनगर के राशिद अली के मुताबिक मुआवज़ा वितरण में सरकारी कर्मचारी और स्थानीय नेतागणों ने ईमानदारी से काम नही किया,सरकार के चुनाव का तरीका भी अजीब था जैसे जिन गाँवों में ज्यादा हिंसा हुई थी ऐसे कुछ गाँव लांक,बहावड़ी, लिसाढ़, मोहम्मदपुर रायसिंह,कुटबा कुटबी आदि के पीड़ितों का गाँव वार चुनाव कर लिया गया इससे कई वास्तविक पीड़ित लोग न न्याय पा सके और न उन्हें मुआवज़ा मिला.
शिकारपुर में तालाब की किनारे वाली दंगा पीड़ितों की इस पूरी बस्ती को मुआवज़ा के एक धेला नही मिला.इन 39 परिवारों ने हर एक ने उसने क़हर देखा था.
12 साल के मोहम्मद समीर ने सिर्फ एक नेकर पहना है और वो स्कूल नही जाता कहते है”घर की याद आती है वहां मेरे दोस्त थे कोई मुझे पीटता था तो वो मुझे बचाते थे अब यहाँ के लोग हमें नीच समझते है,मुझे स्कूल में भी पीटते थे,मुझे दंगा याद है मेरे ताऊ को मार दिया हमें पुलिस बचाकर लाई थी”.
https://youtu.be/GxlO5e8MO0U