सादिक़ ज़फ़र
जुमे का दिन था, थ्योरी ऑफ़ स्ट्रक्चर की क्लास चल रही थी और तभी मेरे टीचर के फ़ोन की घंटी बजती है। उनके चेहरे की रंगत आज भी याद है कि जिसके बाद हम में से हर किसी का फ़ोन बजने लगा, और सबके घर वाले ही थे फ़ोन पर, सवाल बस यही था कि कहाँ हो अभी, जवाब में सबने यही कहा कि क्लास में हैं, उधर से बस इतनी सी ही नसीहत आयी कि क्लास में ही रहना और आवाज़ में एक अजीब सी परेशानी महसूस हुई, देखते ही देखते पूरे क्लास का माहौल बदल गया।
सब एक दुसरे को देख रहे थे, सबके चेहरे पर एक ही सवाल था कि आखिर ऐसा क्या हुआ है कि सबके फ़ोन बज पड़े और सबके घर वाले यही कह रहे हैं, बाहर मत निकलना, टीचर ने भी जाते जाते ये कह दिया कि कुछ गड़बड़ हुई है, बाहर मत निकलना।
जुमे का वक़्त हो रहा था, हम और एराब बाइक पर यूनिवर्सिटी से बाहर निकल गए, बटला हाउस के बस स्टॉप तक पहुँचते पहुँचते इलाक़ा पहचान में नहीं आ रहा था, बहुत भीड़ थी, हमारी नहीं, उनकी जो वर्दी में थे और बड़ी बड़ी बंदूकें लिए हुए थे।
हमको नमाज़ के लिए आगे जाने नहीं दिया गया, वापस कॉलेज की मस्जिद में नमाज़ अदा करी, और क्लास के माहौल की बेचैनी मस्जिद में वैसी ही दिखी, यूनिवर्सिटी का हर स्टूडेंट जो नमाज़ में था, बेचैनी और परेशानी में ही नज़र आ रहा था।
क्लास छोड़कर फ्लैट पर गए, और न्यूज़ पर देखा आजमगढ़ का नाम आ रहा है, हमारे दादा का आजमगढ़, और बताया गया कि हमारे आजमगढ़ के दो नौजवान पुलिस फायरिंग में मार दिए गए और फिर आजमगढ़ का नाम लेने वाले कम होने लगे, ना कोई कुछ सुनना चाहता था और ना ही कुछ बोलना।
मुस्लिम माकन मालिकों तक ने आजमगढ़ वाले स्टूडेंट्स से फ्लैट ख़ाली करा लिए, मजबूरन आज़मगढ को वापस जाने वाली ट्रैन भरने लगी, पर जाते कहाँ वहां तो पहले से ही छावनी में तब्दील हो चुके अपने शहर में दहशत और डर का माहौल था।
दस साल हो गए और आज भी साग़र आज़मी का ये शेर ज़हन में भी ज़ुल्म की हज़ारों दास्तानें लिया गूंजता है:
दस साल हो गए और आज भी अफ़सोस इस बात का ज़रूर है कि जो हमारे हामी बनते हैं, ये सब उन्ही की सरकार में हो रहा था, सरकार ने ज़ुल्म का वो खेल खेला कि आज भी जब 19 सितंबर की अपनी क्लास की याद आती है तो आँखें नम हो जाती हैं।