फ़हमीना हुसैन, TwoCircles.net
वैसे भारत में मुस्लिम समुदाय को दलित कि सूची में नहीं माना जाता हैं लेकिन उनकी स्थिति दलितों से भी बदतर हैं. आज भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की कई जातियां हैं जिन्हें पसमांदा मुस्लिम कहते हैं वे आज भी तमामतर सरकारी योजना और मुख्यधारा से जुड़ने के बाद भी पिछड़ेपन की ज़िन्दगी जीने को मज़बूर हैं.
बीते दिनों इस मुद्दे पर बिहार में ‘दलित मुसलमान मेला’ का आयोजन किया गया जहाँ मुसलमानों कि इसी तरह कि जातियों को प्रमुखता से समाज के सामने लाया गया.
इसके आयोजक दलित मुस्लिमों पर शोध कर रहे डॉ. अयूब राईन थे.
डॉ अयूब रायन के अनुसार दलित मुस्लिम समाज के लोगों को आज भी सामाजिक भेदभाव को सहन करना पड़ता है. उन्होंने बताया कि मुस्लिम समाज में फॉर्वड जातियों और मुस्लिम-दलित जातियों के कब्रिस्तान अलग-अलग होते है. जिन्हे दलित मुस्लिम समाज के मैयत को किसी भी स्तिथि में दफनाने की इजाजत नहीं होती है. डॉ अयूब का मानना है कि जिन जातिगत भेदभाव का वो सामना करते हैं उससे वो एहसासे कमतरी के शिकार हैं, इसलिए उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान होने की बहुत ज़रूरत हैं.
बिहार में नीतीश सरकार द्वारा दलित-मुस्लिमों के लिए ‘तालीमी-मरकज़’ की शुरुआत की। जिसमे उसी जाति के मिनिमम मैट्रिक पास मर्द या औरत को उन्ही के पॉकेट एरिया के बच्चों को बुनियादी शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया। साथ की ये भी सरकार द्वारा विलाप दिया कि अगर उनकी जाति में मौजूद नहीं हैं जो मुसलमानों के दूसरी जातियों से भी नियुक्ति की जा सकती हैं।
उन्होंने बताया कि जिस योजना को सरकार समाज में बदलाव के लिए शुरू किया लेकिन लोगों ने अपने फायदे के लिए इस्तमाल करना शुरू कर दिया। दरअसल इस योजना के तहत जितने भी बहालियां हुई उनकी मॉनिटरिंग सरकार द्वारा या मुस्लिम सामाजिक संस्था द्वारा कभी नहीं की गई। बहाल हुए ज्यादातर लोग या तो माइग्रेट होकर रिमोर्ट इलाकों से बस्तियों में जा चुकें हैं या जो आते हैं वो सप्ताह या 15 दिनों में एक बार पढ़ा जाते हैं। ऐसे में इस योजना को सामाजिक-शैक्षणिक लाभ मिलें ये कैसे मुमकिन होगा।
डॉ अयूंब ने बताया कि पुरे बिहार में बखो मुस्लिमों की जाति हैं उनमे अब तक केवल 12 लोग ही ग्रेजुएट हुए हैं और बरसों से लेकर अब तक इस जाति का एक सदरस्य ही पिछले साल सरकारी चपरासी की नौकरी में आया है।
इस अवसर पर डॉ. अयूब राइन की तीसरी शोध पुस्तक भारत के दलित मुसलमान खंड 2 का भी लोकार्पण हुआ। इससे पहले वे दलित मुसलमानों पर दो किताब लिख चुके हैं। उनकी पहली किताब ‘भारत के दलित मुसलमान, खंड 1’ और दूसरी ‘पमारिया’ रही है। इन पुस्तक में भारत के राइन, मीरशिकार, शिकालगर, पमारिया, फ़क़ीर, मीरासी, चुड़िहारा, डफाली और धोबी पर शोध लेख है।
इस पुस्तक का विमोचन विख्यात पत्रकार अनिल चमड़िया के हाथों किया गया। इस पुस्तक में मुस्लिम समाज की 10 पिछड़ी एवं 10 जातियों पर शोध आलेख को स्थान दिया गया है। इस पुस्तक में दर्जी, इराक़ी, नालबंद, मुकेरी, भटियारा, गदहेड़ी, हलालख़ोर, ग्वाला (गद्दी), बक्खो और जट दलित मुस्लिम जातियों पर शोध लेख है।
साथ ही उन्होंने बताया कि वे अब तक कुल 22 दलित मुस्लिम जातियों पर काम कर चुके हैं। इसके अलावा 2009 से जर्नल ऑफ़ सोशल रियलिटी जर्नल भी निकालते रहे हैं। जिनमे दलित मुस्लिम जातियों पर शोध लेख को प्रकाशित किया जाता है।
डॉ. अयूब ने कहा कि हिन्दू दलितों को तो आरक्षण देकर सामजिक और आर्थिक रूप से सबल बनाया जा रहा है. लेकिन, भारतीय संविधान की धारा 341 के तहत मुस्लिम दलित जातियों के लिए आरक्षण पर रोक है। उन्होंने कहा कि इस मेले का उद्देश्य मुस्लिम दलित जातियों को शिक्षा के प्रति जागृत करना है। जिससे वे अपने अधिकार की लड़ाई लड़ सकें।
इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल दरभंगा एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अम्बर इमाम हाशमी ने कहा कि जरूरत इस बात की है कि समाज के इस वर्ग की बदहाली दूर की जाए। इसके लिए सामाजिक तौर पर चेतना जगाने की जरूरत है।
वहीँ इस प्रोग्राम के शामिल एडीएम नेयाज अहमद ने कहा कि मुस्लिम समाज के दलित संवर्ग के लोगों के अंदर शिक्षा के बगैर उन लोगों की उन्नति संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि इस तरह का आयोजन हर वर्ष होना चाहिए।
इसके अलावा प्रोग्राम में शामिल विशिष्ट अतिथि प्रो. प्रोफेसर टुनटुन झा अचल ने कहा कि दलित मुसलमानों का मेला’ के नाम पर मुस्लिम समाज के दलित मुसलमानों को एक कड़ी में जोड़ने का काम किया है। समाज के दलितों की तरह मुस्लिम समाज के दलितों को भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए।
इस कार्यक्र्म में शामिल ज्यादातर पसमांदा समाज से आये लोग रहें। दरभंगा की रहने वाली डफाली समाज की नूरैसा खातून ने बताया कि इस तरह का सामाजिक पहल पहली बार हुआ है। जहाँ हम मुस्लिम दलित लोगों के समस्याओं और निदानों पर चर्चा की जा रही है।
इसी तरह प्रोग्राम में आई रजिया ने बताया कि आज भी कर रहें हैं हम सालों से करते आये हैं। सरकार की तरफ से कहीं न कहीं हमे अनदेखा किया गया है।
मेले में लगे विभिन्न मुस्लिम जातियों के स्टॉल पर झांकियां दर्शाई गई। साथ ही इस मेले के माध्यम से मुसलमानों की 30 से अधिक दलित जातियों के कामकाज, रहन-सहन, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति के बारे में समाज के समक्ष रखना भी रहा।