अकरम क़ादरी, Twocircles.net
देश की संसद ने जिस प्रकार से कृषि अध्यादेश को पारित किया है तबसे किसानों में रोष व्याप्त है। कई सांसदों ने भी इसका दोनो सदन में भरपूर विरोध भी किया लेकिन सरकार के पास बहुमत होने के कारण यह किसान विरोधी अध्यादेश ध्वनि मत से पास हो गया । इससे किसान लगातार सड़को पर नज़र आ रहे है जिनके साथ मुख्य रूप से कांग्रेस और उसके घटक दलों के साथ-साथ दूसरे विपक्षी दल भी विरोध कर रहे है। इस बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सबसे वफादार अकाली दल भी साथ छोड़कर रवाना हो गयी है क्योंकि इस फैसले के विरुद्ध अकाली दल ने कई बार विरोध किया लेकिन उनको दरकिनार कर दिया गया जिसके चलते अकाली दल की एकमात्र केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर ने इस्तीफा दे दिया और किसानों के आंदोलन के साथ हो गयी। जिस फैसले को मोदी जी ऐतिहासिक बता रहे थे उस फैसले को वो अपनी केंद्रीय मंत्री को ही नही समझा सके तो फिर किसान कैसे समझ सकते थे ! फिर इस बार किसान दो-दो हाथ करने को तैयार है क्योंकि वो जानते है कि जो अध्यादेश पारित हुए है उनके माध्यम से उनकी खेती तो पूंजीपतियों के नाम मे हो जाएगी और वो केवल अपनी ही ज़मीन में मज़दूर बनकर रह जायेगा। वैसे भी इस देश मे प्राचीन काल से आजतक किसान ही सबसे ज्यादा सताया गया है ! किसान पहले भी लगान देता था उसके बाद साहूकारों, सेठों और जमींदारों ने लूटा फिर अंग्रेज़ो के साथ मिलकर डकैती हुई जिसका वर्णन हिंदी साहित्य के कई साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में किया है प्रेमचंद का “गोदान”, श्रीलाल शुक्ल का “रागदरबारी” और वर्तमान में पंकज सुबीर का “अकाल में उत्सव” पढ़ेंगे तो किसानों की व्यथा को आसानी से समझा जा सकता है आज देश की सरकारें अपने पूंजीपति मित्रों के साथ मिलकर लूट कर रही है।
इस अध्यादेश का विरोध सबसे ज़्यादा कृषि बाहुल्य प्रदेशो में पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, में हो रहा है इसके बाद दूसरे प्रदेशों में भी आग की तरह फैल चुका है और किसान हर माध्यम से अपना दुःख बता चुके है जबकि इस अध्यादेश का विरोध जिन किसान संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया है, उनमें अखिल भारतीय किसान संघ (AIFU), भारतीय किसान यूनियन (BKU), अखिल भारतीय किसान महासंघ (AIKM) और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) प्रमुख हैं। किसानों के आंदोलन का सबसे ज्यादा असर पंजाब और हरियाणा में देखने को मिल रहा है, लेकिन कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के किसानों निकायों ने भी बंद का आह्वान किया है। यही नहीं किसानों के इस बंद को देश की कई ट्रेड यूनियंस ने भी अपना समर्थन दिया है।
मज़ेदार बात यह है कि इस अध्यादेश का विरोध भारतीय जनता पार्टी की मातृसंस्था आरएसएस के किसान संगठन ने भी किया है। जबकि सरकार का पक्ष है कि मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश से कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा मिलेगा?
सरकार का तर्क है कि यह अध्यादेश किसानों को शोषण के भय के बिना समानता के आधार पर बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम बनाएगा। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कहते हैं कि इससे बाजार की अनिश्चितता का जोखिम किसानों पर नहीं रहेगा और किसानों की आय में सुधार होगा, लेकिन कृषि विशेषज्ञ तो कुछ और ही कह रहे हैं।
मध्य प्रदेश के युवा किसान नेता और राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन मध्य प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष राहुल राज कहते हैं कि ”इससे मंडी की व्यवस्था ही खत्म हो जायेगी। इससे किसानों को नुकसान होगा और कॉरपोरेट और बिचौलियों को फायदा होगा।” वे आगे कहते हैं, “फॉर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस में वन नेशन, वन मार्केट की बात कही जा रही है लेकिन सरकार इसके जरिये कृषि उपज विपणन समितियों (APMC) के एकाधिकार को खत्म करना चाहती है। अगर इसे खत्म किया जाता है तो व्यापारियों की मनमानी बढ़ेगी, किसानों को उपज की सही कीमत नहीं मिलेगी।” फिर किसान की बड़े स्तर पर लुटाई होगी इस संदर्भ में देश के सबसे बड़े किसान हितैषी, किसानों के लिए अनेक धरना प्रदर्शन करने वाले सरदार वीएम सिंह कहते हैं, “30 साल पहले पंजाब के किसानों ने पेप्सिको के साथ आलू और टमाटर उगाने के लिए समझौता किया था। इस अध्यादेश की धारा 2(एफ) से पता चलता है कि ये किसके लिए बना है। एफपीओ को किसान भी माना गया है और किसान तथा व्यापारी के बीच विवाद की स्थिति में बिचौलिया भी बना दिया गया है। इसमें अगर विवाद हुआ तो नुकसान किसानों का है।” विवाद सुलझाने के लिए 30 दिन के अंदर समझौता मंडल में जाना होगा। वहां न सुलझा तो धारा 13 के अनुसार एसडीएम के यहां मुकदमा करना होगा। एसडीएम के आदेश की अपील जिला अधिकारी के यहां होगी और जीतने पर किसानें को भुगतान करने का आदेश दिया जाएगा। देश के 85 फीसदी किसान के पास दो-तीन एकड़ जोत है। विवाद होने पर उनकी पूरी पूंजी वकील करने और ऑफिसों के चक्कर काटने में ही खर्च हो जाएगी।” यह तर्कसंगत भी प्रतीत होता है अगर किसान यहीं करता रहा तो वो अपने बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाएगा, अपनी बेटी के हाथ पीले करने की सोचेगा, माता-पिता की सेवा करेगा या फिर अपने बच्चों की शिक्षा के लिए सोचेगा यह वो प्रश्न है जिसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है।
लम्बे अरसे से किसानों के लिए संघर्षरत, स्वराज इण्डिया के संस्थापक प्रोफेसर योगेंद्र यादव कहते है कि “किसानों के लिए यह बिल ऐसा है कि जैसे पहले किसान के सिर पर छप्पर था उसमें कुछ छेद थे, पानी तो आता था लेकिन बारिश में वो कुछ बचाव कर लेता था, लेकिन इस सरकार ने सिर के ऊपर की छत ही ग़ायब कर दी और किसान को लॉलीपॉप के रूप में बताया गया अब आप आत्मनिर्भर और आज़ाद है। इस जुमले को पुराने ज़माने के किसान तो नहीं समझ सकते है लेकिन वर्तमान दौर के युवा किसान इस पूरे फ़र्ज़ी ऐतिहासिक निर्णय को अच्छे से समझते है बल्कि पिछले जितने भी ऐतिहासिक फैसले बताये गए है वो सब आज फुस्स ही नज़र आ रहे है चाहे वो स्किल इण्डिया हो, स्वच्छ भारत अभियान हो, या फिर 15 किसान को न्यूनतम मूल्य वाला, किसान लागत का डेढ़ गुना मूल्य मिलने का जुमला हो वो सबको अब अपनी खुली आँखों से देख रहा है और इसका बराबर विरोध कर रहा है। निजीकरण के खिलाफ ज्यादातर सभी संगठन रोड पर है लेकिन भारत की मुख्य धारा की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रिया, सुशांत, दीपिका में व्यस्त है क्योंकि यह मुद्दा बिहार चुनाव में भुनाने की साज़िश चल रही है। लेकिन कुछ मीडिया के असली पत्रकार आज भी भारत के मुख्य मुद्दों को स्थान दे रहे है जबकि वो टीआरपी में पिछड़ रहे है फिर भी देश और जनमानस के मुद्दों के साथ खड़े है।