दीप्ति कश्यप, Twocircles.net के लिए
आज मुद्दा चुनावी हैं. जैसा कि हम सब जानते हैं बिहार में चुनावी मौसम अपने उफ़ान पर है. इन दिनों एक गीत सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है जिसके स्वर हैं- ‘बिहार में का बा’….! इसलिए समझते हैं ‘बिहार में का बा’ के अतीत को, साथ ही वर्त्तमान और भविष्य में निहित असीम संभावनाओं को भी. मेरी लाख नाराज़गी के बाबजूद जो एक बेहद सुकून देने वाला सत्य है वो ये कि बिहारी लोग सियासी रूप से बहुत अधिक सजग होते हैं. वर्त्तमान को देखने से पहले ये देखना बेहद जरूरी है कि हम बिहार के अतीत के गौरवमय गाथा से बख़ूबी परिचित हैं कि नहीं !
बिहार का अस्तित्व हमें अतीत में हमेशा से मिलता रहा है चाहे वो रामायण-काल हो, जैन व बुद्ध धर्म का आविर्भाव हो या फिर मगध जिसका 1000 वर्षों तक भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र के रूप में बने रहना हो या फिर मौर्य सम्राट अशोक (जो पाटलिपुत्र में पैदा हुए थे )को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा/महान शासक माना जाना हो. मौर्य साम्राज्य भारत की आज तक कि सबसे बड़ी साम्राज्य रही जो पश्चिमी ईरान से लेकर पूर्व में बर्मा तक और उत्तर में मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक पूरे भारतवर्ष में फैला था. मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत को स्वर्ण-युग कहा गया. आधुनिक बिहार भी अनेकों गाथाओं को अपने साथ समाहित किए हुए हैं. फिर चाहे बात आज़ादी के प्रथम सिपाही विद्रोह में बाबू कुंवर सिंह की भूमिका से आज़ादी के बाद प्रथम जनक्रन्ति के मुखिया लोक नायक जय प्रकाश नारायण तक के सफऱ की ही क्यों न हो, हमने अनेकों गौरवशाली इतिहास को बनते देखा. बिहार ने विभाजन के बाद भी विभाजन के दंश को सहा हैं. पहले ओड़िसा और फिर झारखंड दोनों राज्य बिहार से ही अलग हुए हैं. 15 अगस्त 1947 को हम सब एक थे फिर क्या वज़ह रही कि हम बिहारियों पर बीमारू का ठप्पा लग गया ? जब भी हमने स्वाभिमान से बोला ‘एक बिहारी सब पे भारी’ तो क्यों हर बार प्रतिउत्तर में हमें एक बिहारी सौ बीमारी का नारा ही सुनाया गया ? जब हमारे हाथ से संपदा वाले क्षेत्र चले गए तो हमने कृषि के दम पर उन्नति करने की कोशिश जारी रखी ! पर आखिर कब तक?
निरंतरता अगर सकारात्मक हो तो उसे जरूर कायम रखना चाहिए मगर जब ये नकारात्मक हो तो अविलंब सुधार की गुंजाइश भी होनी चाहिए. बिहार में इतना जड़त्व कब से आ गया कि हमारी गिनती लगातार फ़िसड्डी राज्यों में ही होने लगी ? बिहार मेहनतकश बिहारारियों से बना हैं फिर उनकी मेहनत कहाँ प्रदर्शित होती हैं जब अपने राज्य के उत्थान में ये काम ही नहीं आती ? क्या आर्यभट्ट ने शून्य का अविष्कार बिहार के हर सकारात्मक सूचकांक को प्रदर्शित करने के लिए ही किया था ? बिहार ने विश्व को अनेकों व्यक्तित्व दिए हैं- महावीर, आर्यभट्ट, अशोक, चंदगुप्त-1,गुरु गोविंद सिंह, चाणक्य, वीर कुंवर सिंह, डॉक्टर राजेन्द प्रसाद, श्री कृष्ण सिंह, जय प्रकाश नारायण, विद्यापति, नागार्जुन, रामधारी सिंह दिनकर, बिस्मिल्लाह खां……….ये सूची अंतहीन हैं. बिहार ने सबसे ज्यादा संख्या में देश को प्रशासनिक सेवक दिया, इंजीनियर, डॉक्टर बनने वालों की भी यहाँ भरमार हैं. अपने देश ही नहीं विदेशों में भी बिहारियों के परचम के झंडे बुलंद हैं फिर हमारे अपने ही बिहार में ये चिराग तले अंधेरा कैसे हो गया ? और इसकी हमें ख़बर तक नहीं लगी ? एक गौरवशाली इतिहास से आज हम हर क्षेत्र में पीछे हो गए और अब तो इसे हमने सामान्य भी मानना शुरू कर दिया है, ये कैसे संभव हो गया ? बिहार विश्व में शिक्षा का केंद रहा था, कैसे हमने आज अपनी धरोहर खो दी ? और आज हम बिहारारियों को अपने बेहतर भविष्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और अन्य विकल्प के लिए दूसरे राज्यों का रुख करने के लिए बेबस होना पड़ रहा हैं? इन सब का जबाब सिर्फ एक है- राजनीतिक इक्षाशक्ति की कमी. हुक्मरानों ने सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने मतलब की रोटी सेंकी, उन्हें जन-कल्याण के सरोकार से विशेष मतलब रहा ही नहीं, नेताओं की संपत्ति में हजारों गुणा की बढ़ोत्तरी होती गई, हमारे बिहारी भाई-बहन गरीब से और गरीब होते गए और ये विरोधाभास निरंतर चलता रहा. इसी का परिणाम हैं जिसके कारण आज हम बिहारारियों की ये दुर्दशा हैं. इंग्लिश में एक प्रोवर्ब है- ‘पुअर आर पुअर बिकॉज़ दे आर पुअर’…. गरीबी एक दुष्चक्र होती है जिसे तोड़ना आसान नहीं होता. मुख्य रूप से हम बिहारी कृषि कार्यों में ही संलग्न हैं जहाँ कम उत्पादन होता है. जनसंख्या अधिक है परिणामतः कृषि के लिए कम क्षेत्र उपलब्ध है जिससे कम उत्पादन क्षमता परिणाम कम पूंजी का निर्माण फलतः कम निवेश परिणाम कम बचत परिणामतः निम्न क्रय शक्ति जिसका सीधा संबंध निम्न प्रति-व्यक्ति आय से है. जब तक आय के सृजन को नहीं बढ़ाया जाएगा हमें गरीब ही बने रहना होगा और यही एकमात्र विकल्प भी है हमारे पास. हमें जो प्राकृतिक रूप से प्राप्त हैं वही पर्याप्त हो सकता हैं बशर्ते नेताओं की इक्षाशक्ति और कुशल प्रबंधन का हमें साथ मिले. कच्चे माल को तैयार माल में परिवर्तित करके हम ग्रामीण जनसंख्या के आय को चार गुणा तक कम से कम बढ़ा सकते हैं मगर हमारी विडंबना है कि हमारी सरकार ने इस दिशा में कभी कोई कदम ही नहीं उठाया. उत्पादन के चार मुख्य घटक में से भूमि,श्रम,उद्यमी हमारे पास कमोबेस उपलब्ध होते हैं. हम पूँजी में ही पीछे हो जाते हैं जहाँ से ये गरीबी के दुष्चक्र की शुरुआत होती है जिसके लिए हमारी सरकार ने पिछले 70 वर्षों से भी अधिक सालों के बावजूद भी कोई सकारात्मक व रणनीतिक एजेंडा के तहत किसी भी कार्यक्रम का सफ़ल क्रियान्वयन नहीं किया.चोरी,हत्या,डकैती,लूट,
जो सबसे जरूरी है वो है शिक्षा, एक शिक्षित समाज ही एक उन्नत और समृद्ध देश की परिकल्पना को साकार करता है. उसमें भी महिला शिक्षा जिससे माना जाता है कि यदि हम एक महिला को शिक्षित करते हैं तो हम ना सिर्फ उस महिला को शिक्षा दे रहे होते हैं बल्कि उनके साथ-साथ उनके परिवार को भी शिक्षा देने का काम कर रहे होते हैं और बिहार का दुर्भाग्य है कि आज़ादी के बाद लगातार शिक्षा के सूचकांक में बिहार का क्रमांक नीचे के पायदान से प्रथम व द्वितीय ही बना रहा है जिस कारण हम किसी भी प्रकार के विकास एवं उन्नत की कल्पना बिहारियों से नहीं कर सकते हैं और यही मुख्य वजह भी है कि तमाम क्षमताओं और काबिलियत होने के बावजूद भी हम लगातार पीछे रहने के लिए बेबस है. चूंकि मौसम चुनावी है और कोरोना-काल की वजह से इस बार ज्यादातर बिहारी अभी अपने ही प्रदेश में है इसलिए ये जरूरी है कि लोकतंत्र के महापर्व में हिस्सा लिया जाए और पूर्व की तरह जातिगत समीकरण से ऊपर उठकर विकास के मुद्दों पर और जो बातें हम से सीधे रूप से जुड़े हैं-शिक्षा,स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, सुरक्षा,पर्यावरण, रोजगार के लिए बेहतर विकल्प आदि मुद्दों को ध्यान में रखकर एक अंतहीन इंतजार से बिहार के लिए सही तस्वीर को प्राप्त करने के लिए आगामी चुनाव में अपना महत्वपूर्ण योगदान जरूर दें. उम्मीद है हम सबके सार्थक प्रयास से एक दिन बिहार में बहार जरूर आएगी.
( दीप्ति कश्यप दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की छात्रा है और सिविल सर्विस की तैयारियों में जुटी है)