जिब्रानउद्दीन।Twocircles.net
बिहार में पिछले एक महीने से लाखों लोग अपने डूबते घरों को छोड़कर राहत शिविरों में शरण लेने पर मजबूर हैं। शिविरों में खराब व्यवस्था होने के बाद भी लोगों के पास कोई दूसरा उपाय नहीं है। और अब उनके सामने एक नई मुसीबत सामने आ रही है, कई राहत शिविरों से लोगों को वापस लौटने के लिए कहा जाने लगा है। संबंधित अधिकारी बताते हैं कि जहां शिविर लगाए गए थे वो या तो कोई स्कूल या कॉलेज की इमारतें थी, चूंकि अब नया सत्र शुरू होने वाला है इसलिए कुछ इमारतों को खाली करवाया जा रहा है।
उत्तर बिहार में बाढ़ का पानी अभी ज्यों का त्यों टहरा हुआ है। अगर बाढ़ पीड़ित इस समय अपने घरों की तरफ लौटते हैं तो उनके सामने बढ़े हुए जल स्तर के साथ कई दूसरी परेशानियां भी पेश आ सकती हैं। बिहार में हर साल सैंकड़ों लोग बाढ़ के पानी में डूबकर मर जाते हैं, मरने वालों में अच्छी खासी संख्या बच्चों की होती है। बच्चे खुद अपनी नादानी का शिकार हो जाते हैं। दरभंगा के डाइट कॉलेज में बने राहत शिविर में रहने वाली रशीदा खातून बताती है कि उनकी 7 वर्षीय बेटी इस बार डूबते डूबते बची है। उनकी बेटी का चप्पल बाढ़ के पानी में बहने लगा था, जिसे निकालने के लिए वो बिना कुछ सोचे गहरे पानी में कूद पड़ी।
रशीदा आगे बताती हैं, अगर उस समय कुछ गांव वालों की नज़र उसपर नहीं पड़ी होती तो वो अपनी बच्ची को हमेशा के लिए को देती। ऐसी ही एक कहानी, बाजितपुर गांव की निवासी रिफत बेगम की भी है जिन्होंने कुछ सालों पहले अपने एक बेटे को बाढ़ के पानी में खो दिया था। रिफत अभी भी अपने बेटे की राह तकती होती हैं चूंकि उनके 9 वर्षीय बेटे की लाश आजतक नहीं मिल सकी है। इन इलाकों में जब बात बच्चों की सुरक्षा पर आती है तो प्रशासन पर खासा सवाल उठने लाज़मी हैं।
हालांकि डाइट कॉलेज में स्थित राहत शिविर में स्थिति ऐसे भी कोई ज्यादा बेहतर नहीं है। छोटे से कमरों में कई लोगों को एक साथ रखा गया है। सफाई का भी कोई खास ध्यान दिया जा रहा है। जो खाना प्रशासन के तरफ से मुहैया करवाया भी जाता है वो दूर-दूर तक खाने के लायक नही होता है। नीलम आरा बताती हैं, “खाने में कोई मज़ा नही है, न तो मीठा ही है न ही तीखा।” नीलम के घर के 8 लोग अब तक बीमार हो चुके हैं। उसके बावजूद यहां पर चिकित्सको की कोई व्यवस्था दूर दूर तक नही है। नीलम के अनुसार उन लोगों को “अरवा चावल” दिया जाता है, जिससे कई लोगों की तबियत बिगड़ चुकी है।
शिविर में रहने वाले लोग भोजन और स्वास्थ के मामले में सरकार के भरोसे न बैठकर खुद ही काम धंधे पर निकल जाया करते हैं। हालांकि कितने अपनी सेहत को लेकर मजबूर हो चुके हैं। 38 वर्षीय सदरे आलम के शरीर में इतनी ताकत नहीं बची है कि वो अपने बच्चों को आधा लिटर दूध का पैकेट दिलवाने लायक भी कमाई कर सकें। दूसरों के दिए हुए पैसों पर जीवन बसर करने में वो मजबूर हैं। सदरे आलम कहते हैं, “3-4 महीनों पहले मेरे साथ एक सड़क दुर्घटना हो गई थी जिसके बाद से बदन में कई हिस्सों पर बहुत दर्द रहता है।” सदरे आलम के शरीर में कई घाव इलाज के अभाव में इतने दिनो बाद भी भर नहीं सके हैं।
जीनत बीबी, डाइट कॉलेज में स्थित राहत शिविर के खराब व्यवस्था का जिम्मेदार उनके वार्ड नंबर 23 के पार्षद को मानती हैं। जो 20 दिन गुजर चुकने के बाद भी एक बार को हाल समाचार लेने को नही आ सके हैं। जीनत बताती हैं, पिछले साल भी उन्होंने ऐसा ही किया था। 50% लोगों को पिछले साल के बाढ़ राहत कोष की राशि आजतक नहीं मिल सकी है। “हां, पिछली बार खाने की गुणवत्ता इस साल के मुकाबले ज्यादा सही थी” जीनत ने कहा। गंदे परिसर की ही देन है कि जीनत बीबी और रिफत बेगम दोनो गुसलखाने में पिछल कर अपने अपने हाथ तुड़वा चुकी हैं।
हमने दरभंगा में स्थित कई राहत शिविरों का जायजा लिया, तो हमें पता चला की अक्सर शिविरों की हालत कुछ ऐसी ही मिलती जुलती है। हालांकि कई जगहों पर पोष्टिक खाना भी मुहैया करवाया जा रहा है और साफ सफाई पर भी ध्यान दिया जा रहा है। लेकिन दूसरी कई जगहों पर एक कूड़े के ढेर को हटाने में भी हफ्ते बीत जा रहे हैं। फिर भी मजबूरों के लिए छत उनकी ज़रूरत बनी हुई है।
बिहार के अबतक 11 जिलों के लगभग 15 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हो चुके हैं। पिछले कुछ दिनो से उतार चढ़ाव कर रहे कोसी नदी के जल स्तर में फिर अचानक से तेज़ी देखी जा रही हैं। शनिवार को कोसी नदी की तेज धार ने सुपौल का एक मुख्य बांध तोड़ दिया है, जिससे दर्जनों नए गांव बाढ़ के चपेट में आ गए। जल्दी से कार्रवाई करते हुए प्रशासन ने आनन फानन में बाढ़ में फंसे लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला। वहीं डीएम के निर्देश पर बाढ़ विस्थापितों के लिये तटबंध पर कम्युनिटी किचन चलाया जा रहा है। मिली जानकारी के अनुसार ये व्यवस्था मध्य विद्यालय सिकरहट्टा और चुटियाही विद्यालय में शुरू की गयी है।