गांव का हुलेसवा बना डॉ. हुलेश मांझी

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना: डॉ. हुलेश मांझी बिहार के महादलितों के लिए एक ऐसा नाम बन चुके हैं, जो ज़िन्दगी में ऊंचाईयां छूने का ख़्वाब और हौसला दोनों देते हैं. पटना के फुलवारी शरीफ़ प्रखंड के पलंगा गांव के 34 साल के इस ‘हुलेसवा’ की ज़िन्दगी अपने आपमें संघर्षों की दास्तान है. बेहद ही मुश्किल हालात में पढ़ाई करना और पीएचडी की डिग्री हासिल करने तक सामाजिक स्तर छुआछूत और भेदभाव का शिकार होने बावजूद लगातार संघर्ष करके आगे बढ़ते ही जाना कोई आसान काम नहीं था. लेकिन हुलेश मांझी ज़िन्दगी की तमाम मुश्किलों का सामना करते लगातार आगे बढ़ते गए और आज वे बिहार महादलित आयोग के चेयरमैन हैं.


Support TwoCircles

हुलेश मांझी बताते हैं, ‘मेरा पूरा खानदान अंगूठाछाप है. पढ़ने की बात बोलो तो घर में पिटाई होती थी. शिक्षा की अहमियत मेरे पूरे खानदान में किसी को मालूम ही नहीं था. मजदूरी करके किसी तरह से पढ़ाई की. अपने आत्मबल और फिर परिवार के सहयोग से आगे बढ़ता रहा. पटना विश्वविद्यालय से बीए व एमए करने के बाद यहीं से बीएड की डिग्री भी हासिल की. यूजीसी नेट क्वालिफाई किया. राजीव गांधी फेलोशिप हासिल करके नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पीएचडी करके गांव का यह हुलेसवा डॉ. हुलेश मांझी बना. और मेरी जानकारी के मुताबिक़ मैं बिहार के मुसहर समाज से पहला पीएचडी हूं.’

देश के अतिपिछड़े इलाके से ताल्लुक रखने वाले हुलेश मांझी ने अरवल जिले की पिछड़ी जातियों के बीच सतत विकास पर शोध किया है. उनके शोध का विषय ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट ऑफ बैकवर्ड कास्ट्स : अ केस स्टडी ऑफ अरवल डिस्ट्रिक्ट’ है.

डॉ. हुलेश मांझी को सितम्बर, 2015 में बिहार महादलित आयोग का चेयरमैन बनाया गया. तबसे हुलेश मांझी पूरी ईमानदारी के साथ बिहार के महादलितों के उत्थान के कामों में लगे हुए हैं. अपने कार्यकाल में महादलितों से संबधित अब तक 400 से अधिक मामलों में कार्रवाई का आदेश दे चुके हैं. इन सभी 400 मामलों में पिछड़ी जातियों के प्रति भेदभाव, उनके सामाजिक बहिष्कार, उनके दमन, उनके ज़मीनी हक से वंचित करने जैसे मामलों से लेकर उनकी ज़मीन हडपने और उन पर अत्याचार के मामले शामिल हैं. हुलेश मांझी इन मामलों को सामने लाकर सही पक्ष को न्याय दिलवाने की इच्छा रखते हैं.

अपने पुराने दिनों को याद करते हुए हुलेश बताते हैं, ‘बचपन में जब सभी बच्चों को पढ़ाई करने के लिए मार पड़ती है, लेकिन मुझे काम करने के लिए मार पड़ती थी.’

अपनी शिक्षा के बारे में हुलेश बताते हैं, ‘मेरा स्कूल मेरे गांव से लगभग चार किलोमीटर दूर था. मैं सुबह उठकर मां की फटी-पुरानी साड़ी लेकर खेत में चला जाता और आम के सूखे पत्ते व टहनियां उसमें बांध कर घर लाता. चूंकि मेरी मां गंगिया देवी और पिता गनौरी मांझी सुबह-सवेरे ही खेतों में मजदूरी करने के लिए निकल जाते थे, इसलिए रात के झूठे बर्तन मांज कर मैं ही खाना बनाता था. रिश्ते में भाभी लगने वाली गांव की औरतें मेरा मज़ाक़ उड़ाती थी. वे कहती थीं – हुलेसवा, तु मउगा है का कि घर का काम करता है… लेकिन मुझे पता था कि खाना नहीं बनाउंगा तो भूखा ही स्कूल जाना पड़ेगा.’

वे आगे बताते हैं, ‘मैं बचपन से लेकर अब तक लगातार छूआछूत व भेदभाव का शिकार हुआ. बचपन में स्कूल जाते वक़्त रास्ते में गांव के ही कुछ बड़े मुझे जातिसूचक शब्दों से पुकारते हुए कहते कि स्कूल जाएगा तो टांग तोड़ देंगे. स्कूल में भी सामंती विचार के लोग मुझे मारते-पीटते थे. मेरी किताबों को स्कूल की छत पर फेंक देते थे. कॉलेज में भी हमेशा दोस्तों के ताने सुनने को मिले. पीएचडी के लिए जब मैं गाईड ढूढ़ने गया तो कोई प्रोफेसर मेरा गाईड बनने को तैयार नहीं हो रहा था. लेकिन तमाम परिस्थितियों में मैं कभी पीछे नहीं हटा.’

डॉ. हुलेश मांझी बताते हैं, ‘भले ही मेरे मां-बाबू जी अंगूठाछाप हैं, भले ही बचपन में मुझे काम करने के लिए मारते थे लेकिन बाद में मैं उनकी वजह से ही कॉलेज का मुंह देख सका. कॉलेज में दाखिले के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे तो मां ने अपना चांदी का इकलौता कड़ा बेच दिया. तब जाकर दाखिला हो पाया. अब मैं पटना रहने लगा था. पिता जी को पैसे के लिए ख़बर भिजवायी तो वो भी खाने का सामान लेकर पटना आ गए. शाम हुई तो देखा कि बाबू जी खाना खाने के बाद बाहर चले गए. पूरे चार घंटे बाद वापस आए. यही क्रम दूसरे दिन भी चला. तीसरे दिन उनके निकलने के बाद मैं भी उनके पीछे-पीछे गया. देखता हूं कि बाबूजी कूड़े से भरे ट्रैक्टर से कूड़ा निकालकर गड्ढे में डाल रहे थे. मुझे समझते देर नहीं लगी. मैं भी उनके साथ काम में लग गया. तब से मैंने काम करके ही अपनी पढ़ाई का खर्च निकालता रहा.’

हुलेश मांझी को राजनीति में आने के लिए भी बहुत संघर्ष करना पड़ा. वो बताते हैं कि राजनीतिक गलियारों में भी उनके साथ काफी भेदभाव हुआ. उन्होंने कहा, ‘काफी मेहनत व मुशक्कत करनी पड़ी. कई नेताओं ने कहा कि तुम्हारी तरह न जाने कितने पीएचडी आते हैं! लेकिन इसी बीच मेरी मुलाक़ात जदयू महासचिव व राज्यसभा सांसद आरसीपी सिंह से हुई. वो मेरे बारे में जानकर काफी खुश हुए. खूब हौसलाफ़ज़ाई की और कहा कि तुम जैसे पढ़े-लिखे युवकों को राजनीति में आने की ज़रूरत है.’

हुलेश बताते हैं, ‘पहले मुझे नेताओं से काफी चिढ़ थी. लेकिन कॉलेज में आकर सोचने लगा कि अगर पढ़ा-लिखा आदमी राजनीति में नहीं आएगा, तो क्या होगा? तो यही होगा, जो आजकल हो रहा है. बस यहीं से राजनीति में जाने की सोच ली.’

वे आगे बताते हैं, ‘मेरे जीवन का सबसे बड़ा दिन तब आया जब साल 2012 में मुझे जदयू का प्रदेश महादलित प्रकोष्ठ का महासचिव बनाया गया. फिर 2013 में युवा जदयू में प्रदेश महासचिव का पद मुझे मिला. 2014 में मुझे पार्टी का महासचिव बना दिया गया. मैं पूरी लगन के साथ अपना काम करता रहा. मुख्यमंत्री के आदेश पर महादलितों के संदर्भ में राज्य में चलने वाली लगभग चार सौ योजनाओं की विस्तृत जानकारी मैंने पेश की. इस काम पर वो काफी खुश हुए और पार्टी में भी इसकी काफी चर्चा हुई.’

बिहार के महादलितों को न्याय दिलवाने की लड़ाई में हुलेश मांझी को अभी कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी है, लेकिन वे इसके लिए तत्पर हैं. वे मायूस होकर बताते हैं कि अब तक अधिकारियों ने उनके किसी भी आदेश का जवाब नहीं दिया. दरअसल, ज़्यादातर अधिकारी सामंती विचारधारा से हैं. वे कहते हैं, ‘मैं इन अधिकारियों से बस यही कहना चाहूंगा कि हम अगर किसी की मदद नहीं कर सकते तो हमें उनको सताने का भी अधिकार नहीं है.’

हुलेश बताते हैं, ‘अब मेरी पहली और आख़िरी तमन्ना यही है कि मैं समाज के अंतिम पायदान पर पड़े गरीब, बेघर मजदूर एवं दलितों को सम्मान की ज़िन्दगी और उनका हक़ दिला सकूं.’

Related:

TCN Positive page

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE