क्यों असदुद्दीन ओवैसी का ‘भारत माता की जय’ न बोलना एक सराहनीय फैसला है?

By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी का बयान कि वे भारत माता की जय नहीं बोलेंगे, की सराहना करने और उसे समर्थित करने के कई रास्ते खुले हुए हैं.


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मुस्लिम समुदाय – और खासकर मुस्लिम समुदाय के उस हिस्से जहां असदुद्दीन ओवैसी और उनकी मजलिस का समर्थन का तबका खड़ा है – में यह अचम्भा, भय और संशय व्याप्त है कि असदुद्दीन ओवैसी के इस कथन के साथ खड़ा हुआ जाए या नहीं.

यह कहने में कम से कम गुरेज़ होना चाहिए कि हमें असदुद्दीन ओवैसी के इस कथन के साथ खड़े होना चाहिए. भले ही ओवैसी के राजनीतिक तरीकों से लाख शिकायतें हों, हम भले ही उसका साथ न देते हों लेकिन बैरिस्टर ओवैसी का यह कथन भारतीय परिवेश की उस बहस का एक बड़ा अध्याय है, जिसमें आज हर कोई देशद्रोह की चपेट में आ रहा है.

मोहन भागवत, सरसंघ संचालक, का यह आह्वान कि ओवैसी ‘भारत माता की जय’ बोलें का विरोध ज़रूरी है. एक, पहले तो किसी ऐसे संगठन के मुखिया – जो खुद नाज़ी जर्मनी से निकलकर आया हो – को देशप्रेम की बात करने का कोई अधिकार नहीं है और दो, जनता से प्रश्न रखा जाना चाहिए कि भारत को कितने माँ का दर्जा देते हैं? देते भी हैं या भारत को एक वतन की परिभाषा के बीच देखते हैं.

Asaduddin Owaisi in Bihar

असदुद्दीन ओवैसी का इनकार इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि यह उस मोहन भागवत के कथन की मुखालफ़त करता है, जिनकी सरपरस्ती में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बार-बार भारतीय मुसलमानों से देशप्रेम का सबूत माँगा है. यह कहने की ज़रुरत कतई नहीं है कि देशप्रेम के इस सर्टिफिकेशन के बीच कई बार जघन्य अपराध हुए हैं, लेकिन याद रखना ज़रूरी है.

जेएनयू के छात्र कन्हैया कुमार और उमर ख़ालिद के देशद्रोह प्रकरण के बाद यह ज़रूरी था कि किसी बड़े फलक से ‘देशद्रोह’ का स्वर उठे और सरकार का तात्कालिक रुख देखने को मिले. लेकिन हाल में ही दो ऐसे प्रकरण हुए जिनसे सरकार की नाक़ामी और लाचारी सामने ज़ाहिर हो जाते हैं. विश्व सांस्कृतिक समारोह, वर्ल्ड कल्चरल फेस्टिवल, के मंच से श्री श्री रविशंकर ने गृह मंत्री राजनाथ सिंह के बगल में बैठकर पाकिस्तान ज़िन्दाबाद का नारा लगाया और दूसरी ओर ओवैसी ने भारत माता की जय बोलने से इनकार कर दिया.

इन दोनों हो वाकयों में किसी भी किस्म का देशद्रोह नहीं है, लेकिन वेंकैया नायडू की नज़र में सिर्फ ओवैसी ही दोषी हैं. यह भी ज़ाहिर है कि ओवैसी की यह हरक़त कितनी भी नागवार क्यों न हो, लेकिन मुस्लिम समुदाय के एक बड़े नेता के रूप में मशहूर ओवैसी के खिलाफ वे हथकंडे नहीं अपनाए जा सकते जो विश्वविद्यालय के छात्रों के खिलाफ अपनाए जा सकते हैं.

अपनी बिना पर यह कह सकता हूँ कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में आपको हर बार अपनी वतनपरस्ती ज़ाहिर करने की कोई ज़रुरत नहीं है. देशप्रेम का पैमाना सिर्फ ‘भारत माता की जय’ बोलना नहीं होता है. ओवैसी की द्वेषपूर्ण राजनीति से मुस्लिमों का कुछ भी भला नहीं होगा, यह तय है. लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी और देश को एक बाध्यता नहीं एक स्वतंत्रता की तरह देखने के मानी भी विकसित करने होंगे और यह हर हाल में ज़रूरी है.

कन्हैया का सहारा लेते हुए यह कहा जा सकता है कि मोहन भागवत की ‘भारत माँ’ में हमारी माँ और बहनें नहीं शामिल हैं. उनमें चलती गाड़ी में लड़की से बलात्कार करने वाले सेना के जवान हैं. गड़े मुर्दे के रूप में उखाड़ी हुई इशरत जहां नहीं शामिल है, और न तो हमारी माँ-बहनें ही शामिल हैं.

ओवैसी के कथन से इस बात पर बहस किसी भी हाल में नहीं लायी जा सकती है कि ओवैसी खुद को हिन्दुस्तानी मानते हैं या नहीं? किसी भी स्फीयर में, चाहे वह सेकुलर ही क्यों न हो, यदि बहस इस पर आ रही है तो वह निपट मूर्खता है. बहस इस पर होनी चाहिए कि शुद्ध रूप से राजनीतिक लड़ाई में जारी किए गए इस बयान के पीछे ओवैसी अपनी नादानी में वह हस्तक्षेप छेड़ बैठे हैं, जिसकी जानकारी शायद उन्हें खुद को नहीं थी.

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