क्‍या ये ‘मानसिक आपातकाल’ है?

नासिरूद्दीन

हम सब आज जिस दौर में रह रहे हैं, क्‍या उसे सामान्‍य कहा जा सकता है? कहीं हम लगातार खास तरह के तनाव या डर या खौफ के साए में तो नहीं जी रहे हैं? क्‍या हम ‘मानसिक आपातकाल’ के दौर में जी रहे हैं? आइए इस सवाल की पड़ताल करते हैं.


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हम सबने ध्‍यान दिया होगा, जब अचानक कुछ होता है तो दिमाग हमें तुरंत अलर्ट करता है. जैसे – कोई मारने के लिए हाथ उठाता है तो हम झटके से बचने की कोशिश करते हैं या उसका हाथ पकड़ लेते हैं. या कोई हिंसक जानवर हमारी ओर दौड़ता है तो हम अपने आप बचने के लिए मुस्‍तैद हो जाते हैं. कई बार किसी अनहोनी के डर की चेतावनी भी हमें मिल जाती है.

यानी जब कुछ ऐसा होता है, जो आमतौर पर अमन और शांति के दौर में हमारी जिंदगी में नहीं होता तो उस आपात माहौल से जूझने की ताकत हममें पैदा हो जाती है. ऐसी ताकत हमें प्रकृति से हारमोन की शक्‍ल में मिली है. विज्ञान की जबान में इसे एड्रेनलिन कहते हैं. यह खास तरह का हारमोन बड़ा करामाती है. यह हमें तुरंत ही लड़ने या बच निकलने की सलाहियत देता है. जब हम अचानक उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरते हैं या तनाव में आते हैं या खौफजदा होते हैं तो हमारा दिमाग तुरंत आगाह करता है. फिर यह हारमोन सक्रिय होता है. यह हमें किसी भी आपात हालात में सामान्‍य रहने की सलाहियत पैदा करता है. चूंकि यह आपात हालातों में सक्रिय होता है इसलिए इस दौरान हमारे बदन में खून की रफ्तार बढ़ जाती है. दिल को ज्‍यादा काम करना पड़ता है, इसलिए इसकी धड़कन बढ़ जाती है. ब्‍लड प्रेशर भी बढ़ जाता है.

ऐसे अध्‍ययन हुए हैं, जहां डर का रिश्‍ता इस हारमोन से साफ दिखता है. महिलाओं पर होने वाली हिंसा के खिलाफ काम करने वाले गैरी बार्कर का मानना है कि अगर कोई शख्‍स लगातार तनाव या हिंसा के माहौल में रह रहा है या किसी तरह डर या शंका का साया है तो उसमें दो हारमोन बढ़ जाते हैं. ये हैं – कार्टिसॉल और एड्रेनलिन. इसे वे डर वाले हारमोन भी कहते हैं. गैरी बार्कर के मुताबिक, ये जरूरी हारमोन हैं जो हमें खतरों से अलर्ट करते हैं. खतरे या आपात हालत कभी-कभी आएं तब तो गनीमत है पर लगातार ऐसे असामान्‍य माहौल में रहना, इंसान को सामान्‍य कैसे रहने देगा? सवाल है, कोई लगातार अलर्ट की हालत में रहे तो उसकी दिमागी दशा क्‍या होगी?

हमारे दौर में मुल्‍क का बड़ा तबका लगातार अलर्ट की हालत में जी रहा है. पिछले दिनों यह अलर्ट ज्‍यादा बड़े रूप में सामने आया है. बैंकों और एटीएम के बाहर लगी लाइनें इस बात की तस्‍दीक कर रही हैं कि आम लोगों की बड़ी तादाद बेचैन हैं. क्‍योंकि अचानक एक दिन पता चलता है कि जो मुद्रा बाजार में सबसे ज्‍यादा है, वह अब चलन में ही नहीं है. उनके नोट अब रद्दी हो गए हैं. जिनके पास थोड़े भी बड़े नोट थे, वे डर गए. वे कम पैसे में ही बड़े लोगों से इसे अदला-बदली करने लगे. किसी के पास हॉस्पिटल में देने के लिए पैसा नहीं है तो किसी के पास रोजमर्रा की जिंदगी चलाने का खुदरा नहीं है. फेरी, ठेला, गुमटी लगाने वाली स्त्रियों और मर्दों का धंधा चौपट हो गया है. मजदूरों को पैसा नहीं मिल रहा है. हमारे मुल्‍क के बड़े हिस्‍से में यह शादियों का मौसम है. हमारे समाज में शादियां लगन और अच्‍छे दिन देख कर होती हैं. अच्‍छे दिन के लिए तय शादियां टल रही हैं. बैंड-बाजा-टेंट-बावर्ची-घराती-बाराती सब पर तनाव का साया है.

यह मौसम नई फसलें बोने का भी है. किसानी का ज्‍यादातर काम नकदी में होता है. वह ठप पड़ा है. सब्‍जी उगाने वाले किसानों के लिए मुनाफा तो दूर लागत निकालने के लाले पड़ गए हैं. हमारे समाज में अब भी काफी बड़ी तादाद बैंकों से बाहर है. वे अपनी रोज की पूंजी किसी सहकारी या स्‍वयं सहायता समूह या छोटे बचत के लिए बनी संस्‍थाओं में जमा करते हैं. वे परेशान हैं. अहम बात है कि ये सब अपने ही पैसे के लिए परेशान हैं. सब तनाव और डर के साए में हैं. खासतौर पर गांव-कस्‍बे वाले ज्‍यादा खौफजदा हैं.

और तो और, 70 से ज्‍यादा लोगों के मरने की खबरें हैं. इनमें वह बुजुर्ग महिला भी है जिसके पास एक हजार के दो नोट थे. उसे नोटबंदी इल्‍म नहीं था. पता चलते ही वह सदमे में मर गयी. कई लोगों की जान लाइन में ही चली गई. ये सब हमें खबरों से पता चल रहा है. क्‍या इन्हें सामान्‍य हालात की मौत कहा जा सकता है? क्‍या हम कह सकते हैं कि इन जान गंवाने वालों को अपने ही पैसे से जुड़ी किसी तरह की चिंता,‍ तनाव, डर या खौफ नहीं था? या वे किसी अनहोनी की आशंका से परेशान नहीं थे?

अपनी ही जमा पूंजी खत्‍म होने का डर, धंधा चौपट होने का डर, शादी न हो पाने का डर, गेहूं के लिए खेत तैयार न होने का डर, काम छूट जाने का डर, मजदूरी फंसने का डर, इलाज न हो पाने का डर, बच्‍चे को क्‍या खिलाएंगे-इसका डर … क्‍या ये सब सामान्‍य हालत हैं? क्‍या ये आपात हालात एक दिन का था? क्‍या यह लगातार तनाव के साए में जिंदगी नहीं है? तनाव में हम कितने दिन रह सकते हैं?

यह तो ताजा हालात हैं. मगर हम थोड़ा पीछे भी जाएं तो क्‍या हमारे देश में हालात सामान्‍य रहे हैं? ऐसा दिखता नहीं है. पिछले कुछ सालों में हमारे मुल्‍क में कई स्‍तरों पर तनाव काफी तेजी से बढ़ा है. इस तनाव का चेहरा सामाजिक-राजनीतिक-सांस्‍कृतिक और आर्थिक रूपों में हमें अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से दिखाई देता है.

‘लव जिहाद’ का हल्‍ला, मुजफ्फरनगर दंगा, खौफ और इसके इर्द-गिर्द सामाजिक-राजनीतिक गोलबंदी. ‘घर वापसी’ का जोर, गो-हत्‍या और हिंसा की रफ्तार. नरेन्‍द्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे और एमएम कलबुर्गी की हत्‍याएं. दलित रोहित वेमुला की मौत. जेएनयू का विवाद और ‘राष्‍ट्रभक्ति’ का शोर. विश्‍वविद्यालयों से असहमति को खारिज करने की कोशिश. खास नारे को ही इस ‘राष्‍ट्रभक्ति’ का पैमाने बनाने का प्रयास. सहिष्‍णुता और असहिष्‍णुता का विवाद. देश के माहिर दिमागों को देश के खिलाफ बताने की कोशिश. कश्‍मीर में हिंसा और सीमा पर तनाव. युद्ध का उन्‍माद. ‘देशभक्ति’ के नाम पर बोलने की आजादी के हक पर रोक की कोशिश. असहमति को राष्‍ट्रद्रोह बनाने की मुहिम. जंगल-जमीन से बेदखल होते और गोलियां खाते आदिवासी. हाल में, दुर्गापूजा और मोहर्रम के दौरान देश भर में चार दर्जन से ज्‍यादा जगहों पर साम्‍प्रदायिक तनाव और हिंसा. हर दिन कोई नया सामाजिक-राजनीतिक विवाद और उसके निशाने पर लोग.

हम कल्‍पना का सहारा लें. इन हालात में खुद को रखें. अपने आस-पास इन्‍हें होते हुए महसूस करें. मन को कैसा लग रहा है? क्‍या ये सब सामान्‍य है? क्‍या ये सब तनाव/डर के सबब नहीं हैं? क्‍या ये सब कुछ पल की बात थीं या हैं?

नहीं. ये सब कोई सामान्‍य हालात की निशानदेही नहीं हैं. न ही इंसान को सामान्‍य रहने देने की निशानदेही हैं. पहले, असामान्‍य हालात कुछ समुदायों तक सीमित थे. फिर उसका दायरा बढ़ा और हमने उना में दलित उत्पीड़न जैसी घटना देखी. झारखण्‍ड में बड़कागांव का गोलीकांड भी देखा. इसलिए अब इन हालात में रह रहे लोगों की आपात स्थिति से लड़ने के हारमोन की हालत के बारे में सोचिए. प्रकृति ने जो हारमोन वक्‍त-वक्‍त पर काम आने के लिए दिया है, वह हमेशा काम कर रहा है. वह हमेशा अलर्ट कर रहा है. अलर्ट रख रहा है.

हम मानसिक रूप से हमेशा अलर्ट की हालत में नहीं रह सकते हैं. क्‍यों? क्‍योंकि, इन हारमोनों के लगातार बढ़ी हालत में रहने की वजह से अवसाद और नाउम्‍मीदी घर कर लेती है. हमेशा सब कुछ खो जाने या खत्‍म हो जाने का अहसास रहता है. व्‍यवहार में गुस्‍सा, चिड़चि़ड़ापन, हिंसा बढ़ जाती है. असहिष्‍णुता बढ़ती है. लखनऊ के संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्‍थान (एसजीपीजीआई) के एक डॉक्‍टर का भी कहना है कि एंड्रेनलिन और कार्टिसॉल जैसे हारमोनों के लगातार बढ़े रहने की वजह से निश्चित रूप से हमारी मानसिक स्थिति और सामाजिक व्‍यवहार पर असर पड़ेगा. लगातार डर की हालत असहिष्‍णुता बढ़ाएगी. इसकी वजह से सामाजिक संतुलन में गड़बड़ी पैदा होगी.

क्‍या ये सब मानसिक रूप से सेहतमंद होने की निशानी है? क्‍या यह दशा मानसिक आपातकाल की नहीं है? इसीलिए लगातार अलर्ट की हालत में रहने की वजह से कुछ लोग जान भी गंवा रहे हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम मानसिक आपातकाल के दौर में जी रहे हैं? या जीने के आदी बनाए जा रहे हैं?

मगर क्‍या हम सब एक जैसे तरीके से इस आपात हालात में जिंदगी गुजार रहे हैं? मुमकिन है, हम में से कई लोग लगातार इस हालात में नहीं जी रहे हों. इसीलिए अंत में बड़ा सवाल है, जिन्‍हें हम ‘दूसरा’ या ‘अपने से अलग’ समुदाय या जाति या समूह मानते हैं, जब तक उनके साथ ‘आपात हालत’ गुजरी तब क्‍या हममें कुछ हरकत हुई थी? अभी भी हो रही है?…और इन सबके वाबजूद अब भी चैन से रहने वाले लोग कौन हैं? क्‍या हम हैं?

[नासिरुद्दीन पत्रकारिता से लम्बे वक़्त से जुड़े हैं. कई संस्थानों के साथ सालों तक काम करने के बाद अब वे पूरा वक़्त स्वतंत्र लेखन को दे रहे हैं. यह आलेख प्रभात खबर में छपे लेख का विस्‍तार है. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]

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