क्या शहादत की आड़ में सेना की जवाबदेही तय नहीं होगी?

नैय्यर इमाम सिद्दीक़ी

18 सितम्बर 2016 को उत्तरी कश्मीर के ‘उड़ी’ में भारतीय सेना के एक कैम्प पर हुई आतंकी घटना पिछले डेढ़ दशक में सेना पर हुई सबसे बड़ी आतंकी कार्रवाई है, जिसमें 18 सैनिक शहीद हुए. इससे पहले कश्मीर के कालूचक में 14 मई 2002 को हुए आतंकी हमले में सेना के 22 जवान शहीद हुए थे. सेना पर हुए इन दोनों बड़े हमलों के वक़्त केंद्र में NDA की सरकार रही है, जिसका रुख यूं तो आतंकवाद को लेकर तो ‘बहुत कठोर’ है मगर हमले की कड़ी निंदा करने, पाकिस्तान पर आरोप लगाने और उसे सबूत सौंपने के अलावा इस सरकार ने कुछ ख़ास नहीं किया है.


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केंद्र की NDA सरकार ने हद तो तब कर दी, जब इस साल की शुरुआत में ‘पठानकोट एयरबेस’ पर हुए आतंकी हमले (जिसमें 7 जवान शहीद हुए) की जांच के लिए पाकिस्तान की JIT को आमंत्रित किया और उसने इस हमले में अपने हाथ होने के सबूतों से इंकार करते हुए इसका ठीकरा भारत के सिर फोड़ विश्व स्तर पर भारत की किरकिरी कर दी.

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एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सिर्फ़ 2016 में अब तक 35 जवान शहीद हो चुके हैं और केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के फार्मूले के तहत तो अब तक भारत को पाकिस्तान से 350 सर ले आने चाहिए थे. मगर सरकार पाकिस्तान को साड़ी और आम के तोहफ़े भेजने और बर्थडे का केक खिलाने में व्यस्त है. 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व ‘आप की अदालत’ के एक ख़ास इमेज बिल्डिंग कार्यक्रम में रजत शर्मा के सवाल ‘अगर आप प्रधानमंत्री होते तो आतंकी घटनाओं पर क्या करते?’ के जवाब में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘मैंने जो गुजरात में किया वही करता. पकिस्तान को लव लेटर लिखना छोड़ उसे उसी की भाषा में जवाब देना चाहिए.’

तो आज जब नरेन्द्र मोदी सत्ता में हैं, प्रधानमन्त्री हैं तो ‘गुजरात की तरह’ पाकिस्तान पर कार्रवाई क्यों नहीं करते? अगर पाकिस्तान सिर्फ़ आतंकवाद और जंग की ही भाषा समझता है तो उसे उसी की भाषा में जवाब देने में अब कौन-सी रुकावट है? पाकिस्तान के ‘कश्मीर की आज़ादी’ के जवाब में जब मोदी ‘बलूचिस्तान की आज़ादी’ को समर्थन और बलूच नेताओं को ‘राजनीतिक शरण’ दे सकते हैं तो पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने में कैसी असमर्थता? क्या नरेंद्र मोदी के 56 इंच सीने में इतनी निर्भीकता नहीं कि पाकिस्तान को ‘शत्रु-देश’ घोषित कर उसे उसी की भाषा में सबक़ सिखा पाएं?

केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सीमाओं की सुरक्षा को लेकर बयान दिया था कि ‘हम सीमा की ऐसी सुरक्षा इंश्योर करेंगे कि चूहा भी सीमा पार नहीं कर पाए’. वहीं पठानकोट हमले के बाद रक्षामंत्री मनोहर पर्रीकर का ट्वीट आया कि ‘अगली बार वो (पाकिस्तानी आतंकी) हमसे बिना पूछे भारत की सीमा में नहीं घुस सकते’…

तो क्या इससे ये सिद्ध नहीं नहीं होता कि राजनाथ सिंह ने सीमाओं की सुरक्षा इसलिए नहीं बढाई कि मनोहर पर्रीकर की इजाज़त लेकर आतंकवादी हमारे देश की सीमा में घुस सकें और सेना के अंगों से जुड़ों संस्थाओं पर हमले कर सकें जिससे राष्ट्रवाद के उन्माद को भड़का कर चुनावी फ़सल काटी जा सके?

दिसम्बर 2014 में भी आतंकियों ने उड़ी में हमला किया था और ये दूसरा हमला है. यानी सरकार और सेना अपनी ग़लतियों को छिपाने और सैनिकों की शहादत की आड़ में अपनी जवाबदेही से बचना चाह रही है. सरकार सैनिकों की भर्ती सीमा की रखवाली के लिए ही करती है और इसके लिए GDP का एक बड़ा हिस्सा सेना पर ख़र्च होता है तो आतंकी हमलों में विफलताओं और सैनिकों की शहादत की जवाबदेही किसकी है? अत्याधुनिक हथियारों/उपकरणों और चौबीस घंटे निगरानी के बाद आतंकी भारतीय सीमा में कैसे घुस जाते हैं? अगर आतंकी भारतीय सीमा में घुसते हैं तो इसका सीधा-सा मतलब है कि या तो सेना ईमानदारी से अपना काम नहीं कर रही है या फिर सेना की आतंकवादियों से मिली भगत है (जिसके कुछ सुराग पठानकोट हमले में भी मिले थे).

सेना को पूर्ण रूप से राष्ट्रवादी मानने का ही ये ख़ामियाज़ा है कि आतंकी सीमा पारकर कई-कई किलोमीटर भीतर तक घुस आते हैं और हमें ख़बर तक नहीं होती. सेना के कई जवान कई बार पाकिस्तान से सेना की ख़ुफ़िया जानकारियों को साझा करने के जुर्म में पकड़े भी गए हैं इसलिए आंख मूंदकर सेना पर विश्वास करने के बजाय सेना को जवाबदेह बनाना होगा.

अगर सरकारी कर्मचारी अपना काम इमानदारी से नहीं करता है तो उसे उसे तुरंत ‘कामचोर’ कह दिया जाता है, सरकारी मास्टर वक़्त पर स्कूल ना पहुंचे या बच्चों को ना पढ़ाए तो महकमा उसे सस्पेंड कर देगा. मगर सेना की कोताहियों या ग़लतियों पर कोई सवाल नहीं? सवाल उठाने वाले को सोशल मीडिया पर देशद्रोही क़रार दे दिया जाता है? देशभक्त के फ़ॉर्मूले में क्या सिर्फ़ सेना और सरकार ही आती है क्या? किसान, वैज्ञानिक, छात्र, मज़दूर और अन्य कामगार लोग देशभक्त नहीं है? देश की सेना (तीनों अंगो) को देश की सुरक्षा के लिए ही रखा गया है ऐसे में इनपर जवाबदेही तय की जानी बेहद ज़रूरी है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि देश के 125 करोड़ से ज़्यादा लोगों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी इन पर है और जिन पर इतनी बड़ी जिम्मेदारी है, उनकी जवाबदेही बिलकुल बनती है और सेना को जवाबदेह होना ही होगा. रही बात हर आतंकी घटना के बाद ‘वीर मीडिया चैनलों’ द्वारा पाकिस्तान पर हमले का सुझाव देने की तो ना तो अब 1971 वाला पाकिस्तान है और ना ही इन्दिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री जो भारत के सामने घुटने टेक अपने सैनिकों सहित समर्पण कर देगा.

‘प्रॉक्सी वार’ में चीन भी पाकिस्तान के साथ होगा. हम अमरीका भी नहीं है जो पाकिस्तान में घुस के ‘ओसामा’ को मार आएं और वो कुछ कर भी ना सके. सरकार बलूचिस्तान का राग अलापने के बाद भी इतनी गफ़लत में क्यों थी? कश्मीर की मौजूदा हालत पर पाकिस्तान ने ‘काला दिवस’ मनाकर स्पष्ट चेतावनी नहीं दे दी थी? सुरक्षा एजेंसियां और NSA अजीत डोभाल क्या कर रहे हैं? रेफ्रीजरेटर में बीफ़ ढूढूंढ लेने वाला देश, और कहीं भी बम विस्फोट के बाद मुस्लिमों को ही दोषी ठहरा देने वाली गुप्तचर संस्थाएं सरहद पार से होनी वाली आतंकी गतिविधियों को भांप लेने में इतनी असमर्थ क्यों हैं? आज दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं, जो मानवता के लिए घातक हैं और युद्ध किसी भी मसले का हल नहीं है. ज़रुरत है ‘कड़ी निंदा’ के दौर से निकलकर सेना को जवाबदेह बनाने की. जब सेना जवाबदेह होगी तभी शहीदों का सही सम्मान होगा वरना हम बस शहीदों के कफ़न की आड़ अपनी नाकामी और कमज़ोरी छुपाकर देशभक्ति का आलाप लेते रहेंगे और आतंकी बार-बार हमें छद्म तरीकों से नुकसान पहुंचाते रहेंगे? आख़िर हम किस हमले और कितनी मौतों के बाद जवाबदेही तय करेंगे? और अगर तय करेंगे तो किन-किन पर?

[नैय्यर इमाम स्कॉलर और स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]

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