शैतान की खाला : आईएसआईएस के तरीकों से ब्रेनवाश

[हमारे युवाओं के दिमाग को भावनात्मक तौर पर बरगलाने और हमारे धार्मिक संवादों के लैंगिक मिजाज़ पर बहस]

By अस्मा अंजुम खान,


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[अरे लड़कों, मुझे मत समझाओ. लेकिन क्या हम इस ‘कोसने’ के खेल को अपना संयुक्त और सार्वजनिक खेल नहीं बना सकते? चलो…कोसो, कोसो और ख़ूब कोसो. रुको मत. और आखिर में थोड़ा और कोसो. शुक्रिया.]

यह कुछ साल पहले की घटना है.

वह हमेशा की तरह भागदौड़ से भरा जुम्मे का दिन था. लंबे और झक सफ़ेद कुर्ते में मेरा १२ साल का लड़का कुछ गंभीर लग रहा था. जुम्मे के दिन के खाने के लिए, जो आमतौर पर दाल-गोश्त और चावल हुआ करता है, भी उसका जोश नदारद था. हमारे बड़े महोगनी बिस्तर के एक किनारे पर वह बैठा हुआ था. वह कुछ ध्यानमग्न था, जो उसके हिसाब से थोड़ा अटपटा था. मैंने जब उसे खाना खाने के लिए आवाज़ दी, तो उसने पूछा, ‘अम्मी, आप काम क्यों करती हैं?’ इससे पहले कि मैं जवाब दे पाती या कोई भी भाव प्रकट कर पाती, उसने अगला प्रश्न दाग दिया,



TCN file photo

‘आप काम करना बंद क्यों नहीं कर देतीं?’

यह मेरे लिए एक धक्के जैसा था. मुझसे कभी इस तरह से प्रश्न नहीं पूछा गया. जबसे मेरे बेटे ने इस दुनिया में आंखें खोली हैं तब से उसने मुझे काम से घर और घर से काम की भागदौड़ करते देखा है. मैंने बगैर अपना आपा खोए उसके द्वारा अपने प्रश्नों को समझाने का इन्तिज़ार किया. उसने बताया कि आज मौलवी साहब ने अपने उपदेश में बताया कि जो औरतें घर से बाहर काम करने जाती हैं, वे ‘शैतान’ होती हैं. वो जहन्नुम की ओर बढ़ रही हैं. फ़िर वह मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा. उसका कहने का आशय था कि कामकाजी औरतें अच्छी औरतें नहीं होती हैं.

एक अजीब और कठिन शान्ति के बाद उसने मुझसे पूछा, ‘अम्मी, क्या यह सच है?’ इस समय तक मैंने अपने ठंडे दिमाग से काम लेना बंद कर दिया था. मैंने उससे पूछा कि जिस आदमी ने उसे यह बताया है, क्या वह उस पर भरोसा करता है. इस पर उसने कहा, ‘मुझे जवाब चाहिए.’

फ़िरोज़शाह कोटला के जामी मस्जिद का जुम्मा

मुझे अपने नौजवान बेटे को इस बात का स्पष्टीकरण देना ही था. मैंने उसे बताया कि किसी औरत का काम से जुड़े इस्लामी क़ायदों के बीच रहना कितना सही है. मैंने उसे बताया कि हमारी कितनी पवित्र महिलाओं ने पैसे कमाए और आर्थिक स्वतन्त्रता अर्जित की. पैगम्बर मुहम्मद की बेगम खदीजा उनमें से एक थीं. जैनब बिन-ए-ज़हाश और उम्मे सलमा अपने हाथों से चमड़ों की रंगाई करके पैसे कमाती थीं. एक और ज़ैनब थीं, जो अपने शौहर से ज्यादा अच्छी माली हालत में थीं और उन्होंने अपने शौहर अब्दुल्लाह बिन मसूद और बेटे की देखभाल के लिए भी काम किया. यह उस औरत के लिए दोगुना परोपकार सरीखा था, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसे अपने परिवार पर खर्च करने की कोई ज़रूरत नहीं है. उम्मे शिफ़ा बाज़ार के मसले देखती थीं और उन्हें खुद उमर ने नियुक्त किया था. ऐसे उदाहरण बहुतेरे हैं जिन्हें एकसाथ नहीं गिना जा सकता.

अपने घर के चुटकियों में बिगड़े माहौल में वापिस लौटते हुए मैंने अपने बेटे की ओर देखा, जिसने साथ में 12 साल गुज़ार देने के बाद मुझ पर प्रश्न किया था. मैं उलझन के बीच खड़े होने के लिए मजबूर थी, मैं घर और काम के बीच अपने पिछले 15 सालों के दरम्यान एक टांग पर की गयी मेहनत को देख रही थी. मुझसे कहां गलती हुई? अचानक प्रश्न पूछे जाने के बजाय मुझे ज़्यादा धक्का लगा था दोषारोपण की भावना से भरे सवाल को सुनकर. सच कहूं तो वह चुभन मेरी हड्डियों तक उतर गयी थी.

यह बदलाव कैसे हुआ था?

जुम्मे के खुतबा के दौरान उसने यह सब सुना था. नए मौलवी ने कहा था कि घर से बाहर काम करने वाली औरतें शैतान की दोस्त होती हैं. और सुनिए, जो औरतें दुपहिया चलाती हैं वे शैतान के हाथ की कठपुतली होती हैं. मुझे अपने बेटे को बताना था कि ऐसी कोई बात नहीं है और पुराने ज़माने में औरतों ने ऊंटों की सवारी भी की है. संवेदनशील और नेकदिल होने के कारण उसे समझाने में मुझे ज़्यादा वक्त नहीं लगा. मुझे ज़्यादा चिंता थी कि बोलने वाले ने, भले ही अल्पकालिक ही सही, उस पर कितना बुरा प्रभाव डाला था. वह कैसे अपने थोड़े देर के भाषण में यह स्तर प्राप्त कर मेरी 12 सालों की मेहनत को मटियामेट कर सकता है? यह वो बात थी जिसने मुझे चिंता में कर रखा था.

मुझे आश्चर्य हुआ कि यदि चंद मिनटों का एक उग्र भाषण मेरे बेटे की सोचने की दिशा में परिवर्तन ला सकता है, तो उनका हश्र क्या होता होगा जिन्हें किसी मकसद के लिए बाक़ायदे ब्रेन-वाश किया जाता है? इसकी कल्पना करना ही भयावह था. यह देखने लायक है कि कम पढ़े-लिखे ये लोग अपरिपक्व युवाओं पर किस किस्म का प्रभाव डालते हैं? ये दरस-ए-निज़ामिया के परम्परा के वाहक होते हैं, जो लगभग नगण्य आधुनिक शिक्षा के उनके ज्ञान में बढ़ोतरी करता है. ज़्यादातर गरीब और अनपढ़ परिवारों से आने वाले ये बच्चे अकसर मदरसों में पढ़ा करते हैं, जो अक्सर पुराने भवनों में रोशनी और ताज़ी हवा के अभाव में स्थापित किए गए होते हैं और इससे यह ज़ाहिर ही होता है कि ऐसे विचार का घुटा हुआ स्पेस इन बच्चों के भीतर विकसित होता होगा. [लेकिन जैसा हर नियम के साथ होता, यहाँ भी कुछ अपवाद हैं. कुछ इमाम इन बच्चों को सही राह दिखाने के वास्ते रात-दिन मेहनत कर रहे हैं.]

सवाल तो है कि क्या हमें नज़र नहीं रखनी चाहिए कि हमारे बच्चों को जुम्मे के दिन दाल-गोश्त के अलावा किस चीज़ का सेवन कराया जा रहा है? हां, हमें रखनी चाहिए और हमें रखना होगा.

इज़रायल की ब्रेन-वाशिंग तकनीक के बारे में यहां पढ़ें.

दीवार पर लिखी इबारत : आईएसआईएस

मुझे एक तस्वीर की याद आ रही है, जहां हमारे मुल्क के लड़के टी-शर्ट पहने तस्वीर खिंचा रहे हैं. उन टी-शर्टों पर जो कुछ लिखा है, दीवार पर लिखी किसी इबारत सरीखा लग रहा है. तमिलनाडु के उन लड़कों को आईएसआईएस की टी-शर्ट पहने देखना खौफ़ से भर देने वाला वाक़या था. क्या कारण था कि उन लड़कों में इतना आक्रोश भरा हुआ था? देखने से वह गधों की ऐसी जमघट लग रही थी, जो वहां जाने को तैयार थी जहां फ़रिश्ते भी भूल से न जाना चाहें. इसके बाद तो मेरी सांसे ही रुक गईं, जब मैंने देखा कि एक इस्लामिक उपदेशिका ने अपने प्रोफ़ाइल पिक्चर को आईएसआईएस के चिन्ह से बदल दिया. लोगों को आसानी से अपने पैरों से उखड़ता और मुखालफ़त की जमात में बैठता देख खौफ़ हो रहा था. मीडिया ने भी इस संगठन के कारनामों – जैसे मंदिरों को तोड़ना-जलाना, ईसाईयों को मोसुल छोड़कर चले जाने के लिए मजबूर करना, चर्चों को मस्जिदों में तब्दील करना, लोगों से जजिया कर मांगना और इनके साथ सबसे बड़ा झूठ कि औरतों के जननांगों को विकृत करना – को सूचीबद्ध करना प्रारम्भ कर दिया था. मीडिया और सोशल मीडिया के बहादुरों ने जोशोखरोश के साथ इन बातों पर बहस करना शुरू कर दिया था और हम लोग अपराधियों की तरह कक्षा की सबसे आखिरी बेंच पर खड़े थे. वे हम पर ‘यह सब तुम लोगों ने किया है’ का आरोप लगाते हैं. और जब हम कसमें खाते हैं कि हमने नहीं किया तो उनकी दलील होती है कि ‘तुमने भर्त्सना नहीं की, तुमने कोसा नहीं, इसका मतलब तुमने ही किया’. और इसके बाद हमें होड़ लगाकर पूरे मामले की भर्त्सना करनी होती है. [अरे लड़कों, मुझे मत समझाओ. लेकिन क्या हम इस ‘कोसने’ के खेल को अपना संयुक्त और सार्वजनिक खेल नहीं बना सकते? चलो…कोसो, कोसो और ख़ूब कोसो. रुको मत. और आखिर में थोड़ा और कोसो. शुक्रिया.]

क्या सभी मुस्लिम आईएसआईएस की तरह होते हैं? यहां पढ़ें.

आईएसआईएस के पीछे कौन? यहां पढ़ें.

आश्चर्य होता है कि किसने आईएसआईएस के टी-शर्ट वाले इन मूर्खों को भड़काया और इससे ज़्यादा आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि इतनी आसानी से ये कैसे मूर्ख बन गए? ऐसा करके उन्होंने क्या हासिल कर लिया? उनके बहाने में भी कोई दम नहीं है कि इस तरीके से उन्होंने केरल की नर्सों को वापिस घर भेजने के लिए आईएसआईएस का शुक्रियादा किया. ऐसे बहाने तो उन टी-शर्टों की माफ़िक ही बेबुनियाद हैं. ऐसी गैर-ज़िम्मेदाराना हरकत का कड़े से कड़े शब्दों में विरोध किया जाना चाहिए.

ऐसा कहा जा रहा है कि इन लड़कों को किसी ने बाहर इस तरह से प्रदर्शन करने के लिए शिक्षा दी होगी. वह व्यक्ति कौन है? दरअसल युवाओं का इतना आसान भावनात्मक विचलन स्वतंत्र संवाद और क़ाबिल व ईमानदार नेतृत्व की अनुपस्थिति में ही सम्भव है. अपने युवाओं को कई तरह के सकारात्मक और रचनात्मक कार्यों में बझाने की बेइंतहा ज़रूरत है. वर्तमान की नाज़ुक राजनीतिक परिस्थिति के सन्दर्भ में युवाओं को विचारसंपन्न बनाना होगा. उनकी बचकाना हरकत के गंभीर हो सकने वाले परिणामों से उन्हें अवगत कराना होगा. पर ये सब करेगा कौन? ज़ाहिर है कि इन चीज़ों को मदरसे से ऊपर नहीं बढ़ सकने वाले उपदेशकों और मौलवियों के हाथ नहीं दिया जा सकता. बल्कि मेरा कहना है कि पहले उन्हें ही इस रूप में शिक्षित किया जाए.

मुस्लिम समाज के लिए यह भी ज़रूरी है कि वह अपने युवाओं पर नज़र रखे. हमें देखना होगा कि उनसे कौन बात करता है, या कौन उन्हें भावनात्मक रूप से बरगलाने की कोशिश कर रहा है? इससे उनका कट्टरपंथीकरण हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन हमें सजग रहना होगा. हमारी प्राथमिकता अपने युवाओं को निष्कपट और रचनात्मक माहौल मुहैया कराना हो. केवल मदरसा के पढ़े उपदेशकों के बजाय, उन लोगों को बातें करने के लिए लाया जाए जो दीन-दुनिया, धर्म और विश्व के सभी स्तंभों के बरअक्स ज्ञान की बातें इन युवाओं के सामने रख सकें. युवाओं का सकारात्मक और स्वस्थ माहौल में रहना बेहद महत्त्वपूर्ण है.

अब यह हमारी सब्स्से बड़ी ज़रूरत है. हमारे युवा तुर्क हमारी संपत्ति हैं, चलिए हम किसी को उन्हें लूटने न दें.

फ़िर अगला जुम्मा आया. मेरे अंकल ने बताया कि मेरे बेटा उस मौलाना के पास गया उसे समझाइश से भरे कुछ सबकों के साथ ख़ूब डांट पिलाकर आया. उसने मौलाना साहब को बताया कि उसकी माँ हिजाब पहनती है, काम करती है और वह अपनी माँ पर बेहद गर्व करता है. इसके बाद वहां चंदे से अच्छे कामों के लिए पैसा इकट्ठा किया जाने लगा. मेरे बेटे ने अपनी जेब से 1000 रूपए का नोट निकाला और चंदे के डिब्बे में डालने के पहले उसने ज़ोर से कहा, ‘यह मेरी अम्मी की तरफ़ से है, जो टीचर हैं और उन्हीं की वजह से मैं सभी अच्छी बातें सीख सका हूं’. फ़िर उसने मौलाना की तरफ़ घूमकर एक शरारती मुस्कान के साथ पूछा,

‘क्यों मौलाना साहब, मैं ठीक कह रहा हूं न?’

क्या मुझे फ़िर से बताने की ज़रूरत है कि मुझे मेरा बेटा वापिस मिल गया था?

बाद की कहानी

हमारे क़ौमी संवादों का लैंगिक लहज़ा:

हमारे खतीब और उपदेशकों द्वारा किये जाने वाले संवादों का लैंगिक लहज़ा भी एक गम्भीर समस्या है. जब ‘औरतों से सावधान रहो’, ‘औरतों को काम मत करने दो’, ‘सारी बुराईयां औरतों से आती हैं’ जैसी बातें मेरे कानों में पड़ती हैं, तो लगता है कि मैं जहां बैठी हूं, वहीं धंस जाऊंगी. सबसे रोचक तो है कि ‘वह औरत ही है जो घर को बना सकती है और बिगाड़ भी सकती है; निकाह की सफलता पूरी तरह से पत्नी पर निर्भर करती है’. वे आदमी को सभी तरह की जिम्मेदारियों से बाहर रखते हुए औरतों को खुशहाल घर-परिवार के लिए जिम्मेदार मानते हैं. यह कितना आसान और आचार्य स्वभाव है. मैंने तो इस्लाम की परम्परागत और विश्वसनीय तालीम में इस तरह की कोई बात नहीं सीखी. इन लोगों का और ज़्यादा मनोरंजन तब होता है जब वे औरतों को घंटों टीवी देखने के लिए डांटते हैं. लेकिन वे उस समय यह भूल जाते हैं कि वे खुद टीवी पर क्रिकेट मैच देखने और नुक्कड़ की चाय-पान की दुकानों या इंटरनेट पर बातचीत करने में कितना समय बिताते हैं. उनके जुनूनी वक्तव्यों का केवल एक ही मतलब है कि अपने शौहर की बात मानो. मैंने शायद ही कभी उन्हें हमारे प्यारे पैगम्बर मुहम्मद की उस उक्ति के बारे में बात करते सुना हो जहां व्वे कहते हैं, ‘तुम लोगों में वही बेहतर है जो अपनी बीवी से बेहतरी से पेश आता हो’. कोई सुन रहा है?

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