गांव सुधारने निकले एक शख्स की अनोखी कहानी

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

कासगंज(उ.प्र.)यह बात कई खबरों का हिस्सा है और कई बार लिखी भी जाती रही है कि लोग कमाने के लिए गांवों से शहर का रुख कर रहे हैं. गांवों में रूककर या गांवों की ओर लौटकर कोई भी इस देश के गांवों का विकास नहीं करना चाहता. यह गांवों और शहरों के अंतर्संबंध का एक भदेस और पिटा हुए ब्यौरा है, जिसके संगत में उदाहरण या अपवाद नहीं मिलते हैं.


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लेकिन एक शख्स है जो इन बातों और नियमों को धता बताते हुए सायास ही सारी पढ़ाई के बाद अपने गांव लौट आया है. यदि वह गांव नहीं लौटता तो शायद आज कहीं एक बड़ा जज होता, एक बड़ी कोठी में रह रहा होता. नाम है – अब्दुल हफीज़ गांधी.

कभी लॉ के प्रोफ़ेसर थे अब ज़िला पंचायत सदस्य हैं. अब्दुल हफ़ीज़ गांधी की यह कहानी देश के उन नौजवानों के लिए किसी आदर्श से कम नहीं है, जो राजनीति के ज़रिए समाज व देश में बदलाव लाना चाहते हैं.


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अब्दुल हफ़ीज़ गांधी के दिल में शुरू से ही तमन्ना राजनीति में नया मक़ाम बनाने की थी. मगर पैसे व रसूख की इस आंधी में वे टिक नहीं पा रहे थे. फिर सियासत का ख्याल दिल में दबाकर छात्रों को क़ानून पढ़ाने में जुट गए. एमिटी व जामिया के छात्रों के चहेते लॉ शिक्षक इस करियर के साथ-साथ अपने जड़ व ज़मीन से भी जुड़े रहे.


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गांव के लोगों के बीच लंबे समय तक काम करने का उन्हें सिला मिला. जैसे ही अब्दुल हफ़ीज़ गांधी ने ज़िला पंचायत का चुनाव लड़ने का ऐलान किया, लोगों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया. और सत्ता, पैसे और रसूख के इस चक्रव्यूह को तोड़ते हुए इस नए ‘गांधी’ ने लोगों की मुहब्बत और भरोसे के दम पर अपना सियासी मक़ाम पा लिया. उनकी तमन्ना सियासत की इस ज़मीन से होकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी सशक्त पहचान बनाने की है, वह पहचान जो ग़रीबों व मज़लूमों के काम आ सके.


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अब्दुल हफ़ीज़ गांधी का जन्म यूपी के कासगंज जिले के पटियाली शहर से लगभग 7 कि.मी. दूर मऊ गांव में हुआ है. यह पटियाली वही शहर है, जहां कभी हज़रत अमीर खुसरू का जन्म हुआ था. 35 साल के अब्दुल हफ़ीज़ गांधी ने 12वीं तक की पढ़ाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लमिया से की. फिर क़ानून की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ चले गए. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बीए. एलएलबी और एलएलएम की पढ़ाई की. साल 2005 में वह अलीगढ़ स्टूडेन्ट यूनियन के प्रेसिडेंट भी रहें. यहीं से उनके राजनीतिक करियर की शुरूआत हुई और युवा कांग्रेस में राष्ट्रीय सचिव के पद पर आसीन हुए.

इस बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एमफिल की पढ़ाई की और फिलहाल जेएनयू के स्कूल ऑफ लॉ एंड गवर्नेंस से सूचना के अधिकार क़ानून पर पीएचडी कर रहे हैं. इस बीच उन्होंने एमिटी व दिल्ली के जामिया में पढ़ाना शुरू किया. साथ ही समाज में जागरूकता फैलाने के मक़सद से देश के अलग-अलग हिस्सों के कॉलेजों, यूनिवर्सिटियों व गांवों में क़ानूनी विषयों पर कई वर्कशॉप करते रहे.

क़ानून के छात्रों को पढ़ाने के साथ वह ज़मीन से भी जुड़े रहे और यूपी के कासगंज ज़िले में बतौर ज़िला पंचायत चुनाव में रिकार्ड वोटों से जीत दर्ज की. उन्होंने इस चुनाव में बतौर निर्दलीय प्रत्याशी 46 फ़ीसद वोट हासिल करके अपने प्रतिद्वंदी को 4605 वोटों से मात दिया. स्पष्ट रहे कि कासगंज ज़िले के 23 वार्डों में चुनाव जीतने वाले यह अकेले मुसलमान हैं.

हफ़ीज़ गांधी TwoCircles.net से बातचीत में बताते हैं, ‘सियासत से बड़े और छोटे दोनों स्तरों पर आम लोगों को फ़ायदा पहुंचाया जा सकता है. लेकिन अगर समाज में सुधार लाना है तो वो निचले स्तर से ही लाया जा सकता है. इसलिए पढ़े-लिखे लोगों का राजनीति में आगे आना ज़रूरी है.’

शायद यही सोच लेकर हफ़ीज़ गांधी ने यूनिवर्सिटी के क्लास-रूम से बाहर निकलकर उस ग्रामीण इलाक़े में काम करने की सोची, जहां आज भी विकास नहीं पहुंचा है. जहां शिक्षा की बदहाली है. उनका मानना है कि क्लासेज़ से अधिक ग्रामीण स्तर पर लोगों को अपने अधिकार व क़ानून से रूबरू कराना ज़रूरी है. जागरूकता की सबसे अधिक ज़रूरत यहीं है.

अब्दुल कहते हैं, ‘भारत एक युवा देश है. इस युवाशक्ति को एक दिशा देनी होगी. उन्हें राजनीति में भी आने के लिए प्रेरित करना होगा. क्योंकि युवा कम करप्ट होता है और पुरानी रिवायतों को बदलना चाहता है. एक पढ़ा-लिखा लीडर अपनी शिक्षा का सही उपयोग ग्रामीण व निचले स्तर पर कर सकता है, जहां लोग सरकारी योजनाओं से अनभिज्ञ हैं.’

उनका मानना है कि राजनीति सपने तो दिखाती है, लेकिन इनको हक़ीक़त में तब्दील करने के लिए युवाओं की भागीदारी राजनीति में भी सुनिश्चित करनी होगी और राजनीतिक दलों को इस बारे में सोचना होगा.

मुसलमानों के पिछड़ेपन के सवाल पर वह बताते हैं, ‘बड़ा दुख होता है कि मुसलमानों में पढ़ाई का रूझान कम दिखता है. फोन पर किसी को मोबाइल नंबर लिखाना हो तो पांच मिनट लग जाते हैं. यही हमारी क़ौम की तालीमी पसमांदगी का आईना है. हालांकि अब मुसलमानों में शिक्षा के प्रति रूझान में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है.’

वह देश के मुस्लिम युवाओं को यह भी संदेश देना चाहते हैं कि मुसलमान शिक्षा को सिर्फ़ सरकारी नौकरियों से जोड़कर न देखें. नौकरी मिले या न मिले, दोनों ही परिस्थितियों में शिक्षा बेहद ज़रूरी है, क्योंकि तालिम से ही मौजूदा और आगे आने वाली पीढ़ियों की पसमांदगी दूर होगी.

हफ़ीज़ गांधी ने जो सोचा वह किया और अपने सपनों की दिशा में एक क़दम आगे ज़रूर बढ़ा दिया है. वो कहते हैं, ‘अभी तो यह शुरूआत है. आगे काफ़ी लंबा रास्ता तय करना है. मेरी ख्वाहिश है कि मैं अपने बदहाल पटियाली शहर में ‘हज़रत अमीर खुसरो–संत तुलसीदास यूनिवर्सिटी’ क़ायम करूं जहां इस देश के युवा धर्म व जाति से ऊपर उठकर तालीम हासिल करें और देश व समाज के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें.’

मुसलमान युवकों को अब्दुल हफ़ीज़ गांधी से सबक़ लेना चाहिए. तालीम के अंधेरों में डूबी इस क़ौम के लिए ‘गांधी’ जैसे लोग एक नई रौशनी की तरह हैं. खासतौर पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उन युवाओं को सीखने की ज़रूरत है, जो अपने समाज व क़ौम के लिए कुछ करना चाहते हैं, लेकिन उनकी सारी ‘क्रांति’ चाय की दुकानों तक ही सिमट कर रह जाती है या जो बौद्धिक लफ़्फ़ाज़ी में ही सारा वक़्त ज़ाया कर देते हैं.

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