By वसीम अकरम त्यागी,
‘टाईगर सही था हमें लौटना नहीं चाहिये था….’
महज इस एक पंक्ति में अपना विरोध दर्ज कराने वाले याकूब मेमन की नज़र में टाईगर इसलिए सही है क्योंकि टाईगर ‘कानून’ के लोगों के दोगले व्यवहार से परिचित था, क्योंकि वो ‘कानून’ जानता था.
अफजल गुरु और याकूब मेमन के मामले ऐसे हैं जिनमें इन आरोपियों ने अपने हाथ से चींटी तक नहीं मारी थी, मगर उन्हें सजा-ए-मौत दे दी गई.
‘जनभावनाओं’ की एक अजीब परंपरा इस देश में चली है. जनभावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिये उज्जवल निकम जैसा वकील भी अफवाह उड़ा देता है कि ‘कसाब बिरयानी मांगता है’ जिसे सुनकर खून में उबाल आ जाता है. मीडिया ने इस प्रोपगेंडे को फैलाने में ऐसे लोगों का भरपूर साथ दिया है. मुंबई विस्फोट के लिए मेमन परिवार को आतंकवादी बना दिया गया और अब भावनाओं को शान्त करने के लिये फांसी देने का इंतजार किया जा रहा है.
यकीन नहीं होता कि यह ‘कानून’ से चलने वाले देश में होने जा रहा है, यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में होने जा रहा है. उसी लोकतंत्र में जिसमें पंजाब के मुख्यमंत्री से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक के कातिलों को माफ कर दिया जाता है. बाक़ायदा अदालत में अपना जुर्म कबूलने के बाद और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कातिल के बयान ‘अपने किए पर पछतावा नहीं फांसी जब चाहे तब फांसी दे दो’ के बावजूद सज़ा उम्र कैद में बदल दी जाती है. वहीं बगैर कोई हत्या किए, बगैर कोई खून बहाये याकूब मेमन को फांसी…अजीब है न.
तंत्र में इस बात को सिद्ध करने की कोशिश हो रही है कि हां, वह चार्टेड एकाउंटेंट सचमुच का आतंकवादी था. मगर क्या वह आतंकवादी है? एक तरफ सरकार आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जारी कर रही है दूसरी ओर सरकारी आतंकवाद को संरक्षण दे रही है, आखिर ऐसे कैसे आतंकवाद खत्म होगा?
मुंबई के असल गुनहगार तो सत्ता में हैं. कुछ मर गये, जो जिंदा हैं वे उच्च पदों पर हैं, क्या उनके लिये संविधान में कोई सजा मुकर्रर नहीं? मुंबई के गुनहगार बाल ठाकरे भी थे, जिनके शव को तिरंगे में लपेट दिया गया था? क्या यह बहुसंख्यकवाद है जिसे दूसरे अल्फाज़ों में सरकारी संरक्षण प्राप्त आतंकवाद कह दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.