[TwoCircles.Net पर प्रकाशित Student Islamic Organization (SIO) के विवादित कार्यक्रम की रपटों-आलेखों के जवाब के फलस्वरूप यह आलेख लिखा गया है. काशिफ़ अहमद फ़राज़ SIO के सदस्य हैं और सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं.]
काशिफ़ अहमद फ़राज़,
SIO और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित सेमिनार के बाबत SIO के एक पूर्व सदस्य सोशल मीडिया में मुख्य मुद्दे से हटकर साथियों को दिग्भ्रमित कर रहे है. महताब आलम करीब दस सालों तक SIO के सदस्य और दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष रहे, जमात-ए-इस्लामी के कई संगठनों में वरिष्ठ पदों पर रहकर नाम कमाने के बाद आज उसी जमात और SIO को गालियों से नवाज़ रहे हैं और खुद को एक प्रोग्रेसिव और वामपंथी खेमे का वफादार सिपाही साबित करने की भरपूर मशक्कत कर रहे हैं. लेकिन असल बात तो यह है कि वे मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने का प्रयास कर रहे हैं.
मंच पर बैठे प्रो. केके मिश्रा, स्वामी सरस्वानंद सरस्वती और उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी (बाएं से दूसरे, तीसरे व चौथे)
असल मुद्दा
SIO और BHU के बीच Communal Harmony के विषय पर एक संयुक्त आयोजन का फैसला SIO और BHU के कुलपति के बीच हुआ, जिसके तहत आधे वक्ता BHU के बुलावे पर आएंगे व अन्य आधे वक्ता SIO के बुलावे पर. बतौर वक्ता इन्द्रेश कुमार का नाम विश्वविद्यालय की तरफ से प्रस्तावित था और उनके बारे में SIO को जो जानकारी दी गई, उसे छाप दिया गया. यदि SIO को ज़रा भी शक होता कि ये इन्द्रेश संघ परिवार के वो व्यक्ति हैं जिनपर कई तरह के आरोप हैं, तो SIO पहली फुर्सत में अपना विरोध दर्ज करा देती. उससे बड़ी बात यह थी कि इन्द्रेश कुमार के आने का कार्यक्रम पहले दिन से ही निश्चित नहीं था. यदि पुराने नोटिस और पोस्टर उठाकर देखेंगे तो उसमें इन्द्रेश समेत कई सारे लोगों के नाम नहीं मिलेंगे. जो वक्ता ऐन दिन के लिए तय हो गए थे, उनके नाम भी पहले की नोटिसों में नहीं थे. इसी तरह से अजीत साही का नाम शुरुआत की लिस्ट में मौजूद था, लेकिन आखिरी लिस्ट में उनका नाम नहीं था. बहरहाल यह एक आम बात है और इसका बतंगड़ नहीं बनाया जा सकता.
क्या है ज़रूरी मसला?
क्या SIO और जमात का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सम्बंधित संगठनों से संवाद करना दुरुस्त है या नहीं? जहां तक किसी बदनाम आरोपी से संवाद करने की बात है – वह चाहे मुसलमान ही क्यों न हो – जमात-ए-इस्लामी शायद ऐसे किसी व्यक्ति को संवाद का हिस्सा नहीं बना सकती.
दूसरा सवाल है कि क्या संघ और भाजपा के लोगों को कार्यक्रम में न्यौता देना जमात की विचारधारा, उसकी सामाजिक समझ और उसकी सामाजिक और राजनीत-रणनीति से समझौता है?
दोनों सवालों के जवाब से पहले ये समझना ज़रूरी है कि जमात की सामाजिक समझ क्या है?
जमात मज़हब और खुदा और खुदाई किताबों पर विश्वास करने वाली संगठन है, जिसके मुताबिक़ मजहब पर अमल करना, खुदा पर भरोसा करना, पैगम्बरों को मानना, मरने के बाद के जीवन को मानना, समाजिक बुराइयों के खिलाफ़ संघर्ष करना उसके घोषित कार्यक्रमों का हिस्सा है. इस देश में ज़्यादातर हिन्दू किसी-न-किसी रूप में मज़हब मानते हैं, शराब को बुरा मानते हैं, व्यभिचार को गलत मानते हैं, औरतों के प्रति उनकी बुनियादी समझ आर्थिक नहीं बल्कि पारिवारिक और सांस्कृतिक है. इसलिए जमात ही नहीं बल्कि पूरा मुस्लिम समाज इस मामले में खुद को वामपंथी सोच के मुकाबले में खुद को हिन्दू समाज के साथ ज्यादा सहज महसूस करता है. एक मुसलमान के लिए किसी मंदिर के किसी कोने में नमाज़ पढना आसान है लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में पढना नामुमकिन है. वामपंथियों की मज़हब से नफ़रत के मामले में उनका गुस्सा इस्लाम के खिलाफ़ हमेशा ज्यादा रहा है. यही वजह है कि जमात-ए-इस्लामी हमेशा से देश में सभी मज़हब मानने वालों को एकजुट करती रही है और उनके साथ एक साझा सामाजिक समीकरण बनाने के लिए काम करती रही है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू धर्म का एक हिस्सा है और आम हिन्दू समाज उन्हें हिन्दू धर्म का एक प्रतिनिधि समझता है. उनके द्वारा दी गयी हिन्दू धर्म की व्याख्या को समाज की सहमति हासिल है. यह बात सभी लोग जानते हैं इसलिए जब कभी भी धार्मिक मुद्दों और समाजिक सहिष्णुता की बात होगी तो हिन्दू समाज के तमाम प्रतिनिधियों के साथ-साथ संघ परिवार के लोगों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता. इसलिए जमात और SIO आज भी और पहले भी उन्हें संवाद का हिस्सा बनाती रही है और इसमें उन्हें कोई हिचकिचाहट की नहीं है.
लेकिन वहीं दूसरी तरफ, जमात-ए-इस्लामी यह समझती है कि संघ की राजनीतिक समझ में मुस्लिम विरोधी तत्त्व बहुत हावी है और इसीलिए उनकी राजनीतिक समझ देश में फाशीवाद को बढ़ावा देने में मदद कर रही है. इस मामले में जमात ने हमेशा देश के सेक्युलर और प्रोग्रेसिव तबके की राजनीतिक समझ को देश के लिए ज़्यादा बेहतर समझा है. इसीलिए जमात ने उनके साथ राजनीतिक संवाद की बुनियाद इसी शर्त पर रखी कि वो देश में फासीवाद को रोकने में मदद करें और लोकतंत्र को बनाए रखने का आश्वासन दें.
ये अलग बात है कि करीब-करीब हर राजनीतिक दल ने मुसलमानों का भरोसा तोड़ा है बल्कि यहां तक कि भाजपा के साथ समझौता किए बगैर भी उन्होंने मुसलमानों के साथ वे तमाम अत्याचार किए, जिनके लिए जमात भाजपा को हमेशा रोकना चाहती रही है.
पश्चिम बंगाल में वामपंथ के तीस सालों का इतिहास अगर दंगों से पाकसाफ़ है तो दूसरी तरफ यह सच है कि वामपंथ शासन ने उन्हें इस लायक ही नहीं रखा की वो सर उठा कर खड़े हो सकें. सबसे बुरे आर्थिक हालत में अगर किसी प्रदेश के मुसलमान हैं तो वो बंगाल के हैं और इस स्थिति को बदलने के लिए उनके पास न तो कोई आश्वासन है न कोई कार्यक्रम. इतना ही नहीं आज जब सारा देश भारत और इज़रायल के बढ़ते संबंधों पर चिंतित है, वामपंथी नेता ज्योति बसु और सोमनाथ चटर्जी देश के उन प्रमुख नेताओं में से हैं जो बहुत पहले ही इजराइल की यात्रा कर चुके हैं.
(SIO-BHU Conference: Why I don’t need to apologise to SIO and its apologists)
हमें पता है कि महताब आलम के लिए ही नहीं बल्कि इस देश में किसी के लिए भी किसी मुस्लिम संगठन को कठघरे में खड़ा करना सबसे आसान काम है लेकिन उनके लिए अपने लोगों से एक बार ये पूछना शायद मुमकिन ही नहीं है कि उनकी पार्टी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से बात करके सिंकियांग के मुसलमानों को रोजा नमाज़ की पाबन्दी हटाने की बात क्यों नहीं करती? क्यों सिंकियांग में एक हज़ार साल से आबाद मुसलमानों को अरबी और तुर्की भाषा पढने और सीखने पर पाबंदी लगा दी है जो की उनकी पुरानी भाषाएं हैं? महताब आलम को शर्म आती होगी अपने नए साथियों से पूछने में कि लेनिन और स्टालिन ने एक करोड़ मुसलमानों की हत्या किस गुनाह में की थी और क्या आज का वामपंथ स्टालिन नरसंहार पर माफ़ी मांगने के लिए तैयार है? कोई कम्युनिस्ट पार्टी से ये सवाल क्यों नहीं करता कि आज भी रूस की राजधानी मास्को में चौथी मस्जिद बनाने पर पाबंदी क्यों है जबकि रोज-ब-रोज़ नए चर्च खोलने का सिलसिला जारी है. हम चर्च खोले जाने का स्वागत करते हैं लेकिन सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति रूस का व्यवहार समान क्यों नहीं है? जिन्हें रूस और चीन में रहने वाले मुसलमानों के बदतरीन हालात के बारे में नहीं मालूम है वे एक बार अपने रुसी और चीनी वामपंथी दोस्तों से इस पर चर्चा करके हमें भी बता दें. वामपंथ कब इस्लाम और मुसलमान दुश्मन विचारधारा में बदल गया किसी को नहीं मालूम, इसके बावजूद वैचारिक सतह पर भारत के वामपंथी दल शायद अपने रुसी और चीनी कम्युनिस्ट पार्टियों को अपना आदर्श नहीं मानती होंगी, अगर ऐसा है तो ये मुसलमानों के लिए एक अच्छी खबर है.
दूसरा सवाल ये है कि क्या संघ और बीजेपी के लोगों को किसी सेमिनार में बुलाने से जमात और SIO ने अपने उसूलों से समझौता किया है? महताब आलम शायद अपने मित्रों को ये बताना पसंद नहीं करेंगे कि जमात इस्लामी ने संघ परिवार और हिन्दू फासीवाद के खतरे पर अबतक क्या कुछ और कितना पढ़ा, लिखा और बोला है? सन 1995 में जमात के मुखपत्र ‘दावत’ ने हिंदुत्व पर अपना विशेष अंक निकाला था. मुस्लिम संगठनों में कोई बताए कि किसने संघ परिवार से वैचारिक लड़ाई लड़ी है. देवबंद, बरेलवी और अहले हदीस संगठनों को पहले एक दूसरे को काफिर कहने से फुर्सत मिले तब वे संघ परिवार के खतरे पर मुस्लिम समाज को समझाने का काम करें. महताब आलम बताएं अपने साथियों को कि जमात गुजरात दंगों से बहुत पहले ही लोगों को संघ की विचारधारा से खबरदार करने का काम कर रही है? जमात दीन से बेखबर मिस्टर और दुनिया से बेखबर मौलवियों का संगठन नहीं है. मुस्लिम समाज में अगर लोकतांत्रिक शैली से कोई संगठन काम कर रहा है तो वो सिर्फ और सिर्फ जमात-ए-इस्लामी है, जहां हर दो साल पर और चार साल पर चुनाव के द्वारा नेतृत्व बदलता है, जहां किसी एक खानदान की, किसी एक मौलाना की, किसी एक मिस्टर की, किसी एक मसलक की, किसी एक मदरसे की जागीरदारी नहीं है. यही वजह है की मुस्लिम समाज सबसे ज्यादा जमात-ए-इस्लामी पर भरोसा करता है और इसके द्वारा किये जा रहे कामों को मुस्लिम समाज के सभी तबकों से समर्थन भी मिलता है.
अगर जमात और SIO महताब आलम को अपने संगठन में शामिल करने और अपने संगठन के विभिन्न पदों पर ज़िम्मेदारी देने से नहीं बदली तो संघ परिवार के कुछ नेताओं से संवाद करने से भी नहीं बदलेगी. महताब आलम से कहना होगा कि बस इस बात की तकलीफ है कि आपने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए जमात और SIO पर ‘भक्ति’ का आरोप लगा दिया. हमारी दुआ है कि आप चमकें, आपका भविष्य चमके, आप अपने आप को सही साबित करने के लिए अब मौलाना वहीदुद्दीन खान को बीच में ला रहे हैं. ये बहुत ही अच्छी बात है. बताते चलें SIO के कार्यक्रमों में मौलाना खान हमेशा बुलाये जाते रहे हैं और उनके लेख छपते रहे हैं लेकिन इसका मतलब कहीं से भी ये नहीं निकाला गया कि उनके बहुत सारे विवादित मुद्दों पर SIO ने अपना मत बदल लिया और बता दें इससे पहले भी सिकंदर बख्त, के. आर मलकानी SIO के कार्यक्रमों में बुलाये जाते रहे हैं बिल्कुल वैसे ही जैसे दूसरे प्रोग्रेसिव और वामपंथी साथियों को बुलाया जाता रहा है.
आप जानते हैं कि SIO एक लोकतान्त्रिक संगठन है और उसकी कार्यकारिणी सभी कार्यक्रमों की निगरानी करती है. एक-एक काम का हिसाब होता है, यह सेमीनार सोचा समझा सेमिनार था और अभी इस तरह के और सेमीनार पूरे देश में किये जायेंगे. उद्देश्य है कि राष्ट्र निर्माण और समाज निर्माण में समाज में रहने वाले सभी तबकों के बीच में नफरत और वैमनस्य की असल वजह पहचान कर उसे दूर करने का प्रयास किया जाए. जिनको महताब आलम पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा है वो इस सेमीनार की रिकॉर्डिंग देखें कि जमात और SIO के लोगों ने अपने उसूलों और उद्देश्यों से किया समझौता किया है? आपको बहुत निराशा हाथ लगेगी.
[ज़रूर पढ़ें – SIO और BHU के बीच लटकती साम्प्रदायिक सौहार्द्र की हक़ीक़त]