[किस तरह जांच एजेंसियों ने बेबुनियाद तथ्यों और गवाहों की आड़ में भारतीय न्यायिक प्रक्रिया को खेल का विषय बना दिया?]
By अबू बकर सब्बाक़ सुबहानी,
साल 2010, तारीख 13 फरवरी : पुणे एक बड़े बम धमाके का निशाना बना. यह धमाका कोरेगांव पार्क स्थित जर्मन बेकरी नामक रेस्तरां में हुआ था. इस दुर्घटना में 17 लोग मारे गए और 58 लोग घायल हुए थे. जांच की जि़म्मेदारी से एटीएस को सौंप दी गई. एटीएस ने 7 सितम्बर को पुणे रेलवे स्टेशन से हिमायत बेग की गिरफ़्तारी दिखाई. यूएपीए कानून के तहत हिमायत बेग को एक माह की रिमांड पर एटीएस को दे दिया गया. एटीएस ने 4 दिसम्बर 2010 को हिमायत बेग के खिलाफ़ पुणे सेशन कोर्ट में चार्जशीट दाखिल कर दी. इसके उलट हिमायत बेग के अनुसार उसकी गिरफ़्तारी 18 अगस्त 2010 को उदगीर से हुई और उसे 20 दिनों तक गैरकानूनी हिरासत में टार्चर किया गया.
दूसरी तरफ 21 नवम्बर को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने क़तील सिद्दीकी को आनंद विहार बस स्टेशन से जाली नोटों और विस्फोटक सामग्री के साथ एफआईआर नं. 54/2011 के तहत गिरफ़्तार किया, जबकि क़तील सिद्दीकी के अनुसार अमुक तारीख के तीन दिन पहले यानी 19 नवम्बर 2011 को पहाड़गंज से उसका अपहरण किया गया था, जब वह अपनी पत्नी और बच्ची को डॉक्टर के पास ले जा रहा था. हिरासत के दौरान उसे जामा मस्जिद फायरिंग (एफआईआर 65/2010) और जामा मस्जिद कार बम धमाके (एफआईआर 66/2010) का भी आरोपी बना दिया गया. इन तीनों आरोपों के तहत लगातार तीन महीने की पुलिस रिमांड मिलती रही. दिल्ली स्पेशल सेल की रिमांड खत्म होने के तुरंत बाद सेंट्रल क्राइम ब्रांच बंगलुरू (सीसीबी) ट्रांजि़ट रिमांड पर क़तील सिद्दीकी को चिन्ना स्वामी स्टेडियम बम धमाके के आरोप में बंगलुरू ले गई.
(Courtesy: globalmarathi.com)
यहां ध्यान देने की बात यह है कि स्टेडियम में एक ही समय में एक ही थानाक्षेत्र में पांच धमाके हुए फिर भी पांच अलग-अलग एफआईआर (92 से 96/2010) दर्ज की गयी, जिनके हिसाब से चार्जशीट भी अलग-अलग दाखिल की गई. मालूम हो कि उक्त चार्जशीट करीब 30 हज़ार पेज की है. विधि के अनुसार चार्जशीट को मुल्जि़म की भाषा में उपलब्ध कराना अनिवार्य है, फिर भी बंगलुरू सीसीबी ने कन्नड़ भाषा में चार्जशीट उपलब्ध करवाई जो आरोपी को इंसाफ से वंचित रखती है.
घटनाक्रम में आगे बढ़ें तो 22 नवम्बर 2011 को महाराष्ट्र एटीएस के अधिकारियों के निर्देश पर एटीएस अफ़सर दिनेश कदम क़तील सिद्दीकी से पूछताछ करने मुम्बई से दिल्ली आए. पूछताछ के दौरान कतील सिद्दीकी ने स्पेशल सेल और बंगलुरू सीसीबी को दिए गए बयानों का उल्लेख किया, अपने और यासीन भटकल के लिप्त होने की पुष्टि की. जांच पूरी होने के बाद इंस्पेक्टर दिनेश कदम वापस मुम्बई गए. हिमायत बेग के खिलाफ़ 4 दिसम्बर 2010 को ही एटीएस अपनी चार्जशीट दाखिल कर चुकी थी. इसलिए 9 फरवरी 2011 को कतील सिद्दीकी के खिलाफ़ एक नया मुकदमा दायर किया गया. इसके अनुसार 13 फरवरी 2010 को कतील सिद्दीकी ने गणेश मंदिर में बम रखने की कोशिश की थी, जिसमें वह नाकाम रहा था. यह एफआईआर पूरे 22 महीने बाद दर्ज हुई थी. अब एफआईआर दर्ज करने के करीब छः महीने बाद 2 मई 2012 को एटीएस महाराष्ट्र कतील सिद्दीकी को अपनी तफतीश के लिए पुलिस रिमांड पर लेती है. इस केस में दिनेश कदम शिकायतकर्ता और एसीपी समद शेख आईओ (विवेचक) हैं. 4 जून 2012 को दिल्ली न्यायालय से पेशी वारंट जाता है, 8 जून को कतील सिद्दीकी का दिल्ली आना तय होता है. फिर भी बहुत रहस्यमय तरीके से पुणे की यरवदा जेल की हाई सेक्योरिटी ज़ोन की अंडा सेल में क़तील सिद्दीकी की हत्या हो जाती है. इस हत्या के कुछ रहस्य क़तील सिद्दीकी के साथ दफन नहीं हो सके, जो मुम्बई की अदालत में बहस का विषय बने हुए हैं.
दिल्ली स्पेशल सेल ने अपनी चार्जशीट (एफआईआर नम्बर 54/2011) के पेज 11, पैरा नम्बर 3 में कतील सिद्दीकी के खिलाफ जर्मन बेकरी ब्लास्ट पुणे और चिन्ना स्वमी स्टेडियम बंगलुरू धमाकों का आरोप लगाया है. सेंट्रल क्राइम ब्रांच बंगलुरू (सीसीबी) ने भी अपनी चार्जशीट (एफआईआर 92-96/2010) दिनांक 11 जुलाई 2012 में कतील सिद्दीकी के खिलाफ जर्मन बेकरी ब्लास्ट पुणे और चिन्ना स्वामी स्टेडियम बंगलुरू धमाकों का आरोप लगाया. फिर भी पुणे सेशन कोर्ट में एटीएस महाराष्ट्र ने न तो उन तथ्यों का उल्लेख किया और न ही कतील सिद्दीकी का कथित इकबालिया बयान प्रस्तुत किया, जो उसने इंस्पेक्टर दिनेश कदम को दिया था.
हिमायत बेग के बारे में एटीएस की तरफ से दाखिल चार्जशीट के अनुसार ‘हिमायत बेग लश्करे-तैयबा का कैडर है जो आईएम के सक्रिय सहयोग से भारत सरकार का तख्ता पलटकर इस्लामी शासन लाना चाहता था. इसलिए यह मार्च 2008 में कोलम्बो (श्रीलंका) जाता है. जहां साजि़श तैयार करने के मकसद से अबू जिंदाल, फैयाज़ कागज़ी और भटकल भाइयों के साथ हिमायत बेग एक महत्वपूर्ण मीटिंग में शामिल होता है. साजि़श रची जाती है, हिमायत करेंसी लेकर भारत वापस आता है, अपना गांव छोड़कर उदगीर चला जाता है, उदगीर में हिमायत का नाम यूसुफ सर में बदल जाता है. इसके अलावा वह एक इंटरनेट कैफे (ग्लोबल इंटरनेट कैफे) शुरू करता है साथ में अलसबा कोचिंग सेंटर में बच्चों को ट्यूशन के साथ-साथ क्षेत्र में लश्करे-तैयबा के प्रोग्राम में हसन के नाम से व्याख्यान देता है. जनवरी 2010 में यासीन भटकल के साथी हिमायत के कैफे में आते हैं, जर्मन बेकरी की साजि़श तैयार करके वापस चले जाते हैं. 8 से 11 फरवरी तक हिमायत और यासीन मुम्बई में रहते हैं. वहां से नोकिया 1100 मॉडल फोन खरीदते हैं.
11 फरवरी की शाम वापस उदगीर के लिए निकलते हैं, 12 फरवरी की रात ग्लोबल कैफे में बम तैयार करके 13 फरवरी की सुबह दोनों तैयार किया हुआ बम लेकर प्राइवेट कार से उदगीर से लातूर आते हैं (जो तीन घंटे की यात्रा है). फिर वहां से महाराष्ट्र स्टेट ट्रांस्पोर्ट की बस से पुणे आते हैं. पुणे रेलवे स्टेशन से आटोरिक्शा द्वारा जर्मन बेकरी पहुंचते हैं (यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि आटोरिक्शा ड्राइवर शिवाजी गोरे, जो कि अभियोजन का गवाह नम्बर 93 है, पांच मिनट की दूरी तय करने वाले यात्रियों की शक्ल दो साल तक याद रखता है). यासीन अंदर जाता है, हिमायत बेग मोटरसाईकिल से वापस औरंगाबाद मात्र चार घंटों में आ जाता है.’ यहां यह बात उल्लेखनीय है कि यह यात्रा कम से कम सात घंटे की है. इसके अलावा इस दौरान हिमायत बेग के दोनों ही मोबाइल सीडीआर रिपोर्ट के अनुसार औरंगाबाद में ही रहे हैं.
इस केस को ध्यान से देखने पर कुछ महत्वपूर्ण कानूनी और सैद्धान्तिक अनियमितताएं सामने आती हैं, जिनकी न्यायालय और जांच एजेंसियां अनदेखी करती हुई प्रतीत होती हैं. मिसाल के तौर पर एटीएस महाराष्ट्र की चार्जशीट के अनुसार साजि़श कोलम्बों में तैयार की गई. कोलम्बो में हुई साजिश और मीटिंग की तारीख, स्थान, गवाह-सबूत किसी चीज़ का उल्लेख नहीं. केवल हिमायत बेग के पासपोर्ट पर कोलम्बो की मुहर मौजूद है. वहां कोई जांच नहीं हुई. इस स्थिति में उस बुनियादी नियम का उल्लंघन हुआ है जो कि क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की धारा 188 में विस्तार के साथ ज़िक्रमंद है कि ‘यदि कोई भी अपराध या अपराधिक साजि़श भारतीय नागरिक द्धारा विदेश में की जाती है तो उस अपराध की जांच या अदालती कारवाई से पहले केंद्र सरकार से विधिवत अनुमति लेना अनिवार्य है. कोई भी अदालत केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना किसी तरह की जांच या अदालती व विधिक कारवाई के लिए सक्षम नहीं है.’ लेकिन इस केस में अब तक केंद्र सरकार की तरफ से किसी भी तरह की अनुमति प्राप्त नहीं की गई. साथ ही अब्दुल रज़ा मेमन बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र केस में सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले में निर्धारित सिद्धान्तों और नियमों की भी अदालत ने अनदेखी कर दी.
जर्मन बेकरी धमाकों से दो साल पहले 2008 में हमारी संसद ने एनआईए एक्ट पास किया था. एनआईए एक्ट की धारा 6 की उपधारा 3 के तहत राज्य सरकार द्वारा प्राप्त जानकारियों के केन्द्र में केवल केंद्र सरकार ही को यह अधिकार प्राप्त है कि तय करे कि संबंधित मामला यूएपीए के तहत अपराध की श्रेणी में आएगा या नहीं (अर्थात यूएपीए राज्य सरकार या संस्थाएं लागू नहीं कर सकती बल्कि यह केवल केंद्र सरकार का अधिकार क्षेत्र है). यह बात ध्यान में लाने की ज़रूरत है कि इस मामले में केंद्र सरकार की तरफ से यूएपीए लगाने की अनुमति प्राप्त नहीं की गई.
एनआईए एक्ट की धारा 6 की उपधारा 4 और अन्य उपधाराओं के अनुसार ‘यदि केंद्र सरकार इस अपराध में यूएपीए की किसी भी धारा के प्रयोग की अनुमति देती है तो केवल राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ही उस केस की जांच करने में सक्षम होगी न कि कोई अन्य प्रान्तीय या केंद्रीय एजेंसी. बल्कि यह केस स्वतः एनआईए के अधिकार क्षेत्र में चला जाएगा और उससे सम्बंधित तमाम दस्तावेज़ों को एनआईए के हवाले कर दिया जाएगा. दूसरी स्थिति में यह केस यूएपीए के तहत दर्ज करने की अनुमति मिलने तक संबंधित पुलिस स्टेशन का प्रभारी ही इस केस की विवेचना करेगा.’ इस मामले में इन तमाम कानूनी पहलुओं को दरकिनार कर दिया गया, जो हमारे नियमों व कानून के तहत बाध्यकारी थे. इसलिए इस दृष्टिकोण से एटीएस द्वारा तैयार की गई चार्जशीट ही गैरकानूनी थी.
यूएपीए कानून की धारा 2 की उपधारा D के तहत इस कानून के तहत दर्ज़ मुकदमों की सुनवाई का अधिकार केवल एनआईए की विशेष अदालत को ही होगा, किसी दूसरी स्थिति में सेशन कोर्ट के जज का अधिकार क्षेत्र होगा. इसके बावजूद हिमायत बेग के मामले में सभी अदालती या पुलिस रिमांड के आदेश मजिस्ट्रेट ने दिए. जबकि यह उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर और नियमों के बिलकुल खिलाफ़ था.
एटीएस महाराष्ट्र का दावा है कि उसके पास ‘होटल ओ’ के सीसीटीवी कैमरे से ली गई फुटेज है, जिसमें यासीन भटकल को बम रखते या ले जाते देखा गया है. एनआईए द्वारा बार-बार फुटेज की मांग किये जाने के बाद भी न तो वह वीडियो अभी तक एनआईए को सुपुर्द किया गया है – जो कि एनआईए एक्ट की धारा 6 की उपधारा 6 के अनुसार अनिवार्य था – और न ही उसे बचाव पक्ष के वकील को दिया गया, जो कि उसका अधिकार था. वीडियो मीडिया को भी नहीं दिया गया, जो कि हमारी पुलिस और एजेंसियों परंपरा और पसंदीदा तरीका रहा है. यहां यह बात भी अहम है कि जर्मन बेकरी और होटल ओ के बीच तकरीबन सौ फीट चौड़ा हाईवे है. इसके अलावा जर्मन बेकरी के चारों तरफ लगभग साढ़े सात फीट ऊंची दीवार है, जिसके बाद भी अंदर का वीडियो होटल के कैमरे से तैयार होना एक काल्पनिक दावा मालूम होता है. रोचक बात है कि इस बात का समर्थन पुलिस की कार्यप्रणाली भी करती है.
पड़ताल और रपट में आरडीएक्स की बरामदगी का दावा किया गया था, जिसकी शक्ल पाउडरनुमा बताई गई थी. इसी आधार पर विस्फोटक अधिनियम की धारा 7 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया और यही दावा अदालत में भी किया गया. इस तथ्य को पुलिस और अदालत ने बेख्याली में स्वीकार भी कर लिया, जबकि आरडीएक्स हमेशा जमी हुई शक्ल में हो सकता है. इस तरह अदालत ने अपनी ग़फलत या भेदभाव की आड़ में पुलिस की बातों को आंख बंद करके स्वीकार कर लिया. इसके अतिरिक्त जहां से आरडीएक्स के बरामदगी दिखाई गयी है, वह एक खुला हुआ बग़ैर ताले वाला कमरा था, जहां कोई भी आ जा सकता था. इसके उलट विस्फोटक अधिनियम की आवश्यक शर्त है कि उसका कब्ज़ा निश्चित और पूरी जानकारी के साथ हो. इसके अलावा अभियोजन के गवाह के अनुसार हिमायत बेग मस्जिद में ही रहता था.
नोकिया 1100 के प्रयोग को साबित करने में भी अभियोजन पूरी तरह नाकाम रहा है और न सीएफएसएल की महत्वपूर्ण रिपोर्ट को ही अहमियत दी गई. हिमायत 13 फरवरी 2010 को सुबह साढ़े आठ बजे से साढ़े नौ बजे के बीच औरंगाबाद में ही था. इसी दावे को पुख्ता करने के लिए सरकारी गवाह नम्बर 96 का बयान भी काफी था, गवाह नम्बर 97 का बयान भी सरकारी कहानी को गलत साबित कर रहा है. फिर भी इस तथ्य को न्यायाधीश ने अनदेखा कर दिया.
आठ हज़ार यूरो करेंसी का क्या हुआ, करेंसी कहां बदली गई, किस इस्तेमाल में आई, क्या इस आरोप का कोई गवाह या सबूत मौजूद नहीं है? एटीएस के साथ-साथ हमारे न्यायालय ने जिस कर्तव्य का निर्वाह किया वह जनता की नज़र में संदिग्ध और भेदभावपूर्ण है.
यासीन भटकल उदगीर आया. ग्लोबल कैफ़े में बम बनाया गया, इस आरोप का भी न तो कोई गवाह है और न किसी तरह का कोई सबूत अभियोजन के वकील प्रस्तुत करने में सफल हुए. पुलिस की कहानी के अनुसार हिमायत बेग और यासीन भटकल उदगीर से प्राइवेट कार द्वारा लातूर पहुंचे. लेकिन कार कौन-सी थी, किसकी थी, कैसी थी, कार का मालिक कौन था? इस तरह की कोई जानकारी या विस्तृत मालूमात पुलिस या अदालत के पास नहीं है, और न ही अदालत में कोई गवाह या सबूत पेश किया गया.
लातूर से पुणे वे किस बस से गए, ग्यारह घंटे की यात्रा की, कोई गवाह न मिल सका, कोई गवाह या सबूत पेश नहीं किया जा सका. लेकिन पुणे बस स्टैंड से जर्मन बेकरी तक की कुछ मिनटों की दूरी तय करने वाला आटो ड्राइवर दो साल बाद भी हिमायत बेग और यासीन भटकल को पूरी तरह पहचानने में कामयाब रहा. इस बाबत अदालत को कोई आशंका या आश्चर्य नहीं हुआ.
इस पूरे केस की सुनवाई के दौरान न तो बचाव पक्ष के किसी गवाह को बुलाया गया और न ही बचाव पक्ष के किसी वकील की जिरह हो सकी. इस बाबत अदालत ने भी कोई आपत्ति ज़ाहिर नहीं की. अभियोजन के अनुसार भी वह प्रत्यक्ष रूप से धमाके में लिप्त नहीं था. हालांकि साजि़श में शामिल था. इन सभी तथ्यों के बावजूद केवल परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर अदालत ने पांच बार फांसी और छः बार उम्र कैद का फैसला सुना दिया.
इस पूरे केस में पहली चिन्ता की कड़ी वह थी जब एक मराठी समाचार पत्र ‘दैनिक सकाळ’ ने 25 मई 2010 के दिन के अंक में यह दावा किया कि जर्मन बेकरी बम धमाका का मास्टरमाइंड व प्लान्टर अब्दुस्समद गिरफ़्तार हो गया, केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने इस शानदार कामयाबी पर तारीफ के पुल बांध दिए और मुम्बई पुलिस कमिश्नर ने पदक और कैश इनाम की बारिश कर दी. बहरहाल असल मुद्दा तो तब सामने आता है जब अब्दुस्समद की 28 दिनों की पुलिस रिमांड होती है और इसी दौरान अब्दुस्समद के पिता मीडिया में एक वीडियो पेश करते हैं जिसमें अब्दुस्समद को धमाके वाले दिन 13 फरवरी 2010 को शादी में शामिल दिखाया गया था. इसके बाद एटीएस ने माफी के साथ अब्दुस्समद को रिहा कर दिया. रिमांड के दौरान अब्दुस्समद को टार्चर करते समय जो बिजली के झटके और नारको टेस्ट के लिए जो इंजेक्शन दिए गए थे, तीन साल बाद भी वे अपना असर दिखाते रहे. अब्दुस्समद हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात द्वारा भारत के हवाले किए गए गिरफ़्तार यासीन भटकल (डीएनए, 31 अगस्त 2013) का सगा छोटा भाई है. अगर यह कहा जाए कि जज अपना फैसला सुनाते समय क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम और इंडियन एविडेंस एक्ट के आधारभूत सिद्धान्तों की अनदेखी करते हुए कई गवाहों के बयानों में से कुछ तथ्यों को अपने विवके से नकारते गए और कुछ बिंदुओं को आंख बंद करके अपने फैसले का आधार बनाते गए, यह निश्चित रूप से कुछ संदेह को जन्म देने की गुंजाइश रखता है. भारत के नियम कानून की रोशनी में हर कोई दावा कर सकता है कि हिमायत बेग को केवल और केवल कल्पनाजन्य व परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर पांच बार फांसी और छः बार सश्रम आजीवन कारावास और अन्य 22 वर्ष सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गयी. यह हास्यास्पद फैसला हमारी अदालती व्यवस्था और विधिक प्रक्रिया के हवा में उड़ जाने की आशंका को यकीन में बदलने पर मजबूर करता महसूस होता है.
18 अप्रैल 2013 को पुणे सेशन कोर्ट ने जब यह फैसला सुनाया तो हिमायत बेग ने रोते हुए अदालत से कहा था ‘अगर धमाके के दिन सत्रह व्यक्तियों का खून हुआ था तो आज मैं अट्ठारहवां व्यक्ति हूं जो इस धमाके की भेंट चढ़ाया गया हूं.’
विगत 17 जुलाई को एनआईए ने देश में इंडियन मुजाहिदीन की कथित विधिविरुद्ध गतिविधियों के सिलसिले में दिल्ली की एक अदालत में अपनी 57 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की, जिसमें यासीन भटकल का नाम जर्मन बेकरी धमाके में बतौर मुल्जि़म नामज़द किया, लेकिन उस पूरी चार्जशीट में हिमायत बेग का उल्लेख नहीं है जो कि इंडियन मुजाहिदीन के नाम पर गिरफ़्तार लोगों में पहला सज़ायाफ़्ता व्यक्ति है. इस चार्जशीट में एनआईए ने दिल्ली पुलिस, बंगलुरू पुलिस, राजस्थान एटीएस और अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के द्वारा की गई इंडियन मुजाहिदीन के तमाम कथित बम धमाकों की जांच का उल्लेख किया गया लेकिन महाराष्ट्र एटीएस के द्वारा जर्मन बेकरी धमाका पुणे या मुम्बई 13 जुलाई केस की किसी भी विवेचना की अहमियत या उल्लेख को जगह नहीं दी. कतील सिद्दीकी, जो कि दिल्ली व बंगलुरू पुलिस की चार्जशीट में जर्मन बेकरी केस का आरोपी था, महाराष्ट्र की पुणे जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में मार दिया गया. यासीन भटकल ने भी अपनी गिरफ़्तारी के बाद एनआईए को दिए गए बयानों में हिमायत बेग की किसी भी भूमिका का इंकार करके महाराष्ट्र एटीएस व पुणे सेशन कोर्ट की कार्यप्रणाली पर संदेह पैदा कर दिया है.
यहां हिमायत बेग के उस पत्र का उल्लेख भी कम महत्वपूर्ण नहीं होगा, जो उसने जेल से गत 31 अगस्त 2013 को हाईकोर्ट मुम्बई के न्यायाधीशों को लिखा है. हिमायत बेग ने अपने पत्र में महाराष्ट्र एटीएस द्वारा अपनी उस गैरकानूनी गिरफ़्तारी और टार्चर का उल्लेख किया जब वह बीस दिन की गैरकानूनी हिरासत में था. इस दौरान उसके गुप्तांगों पर करेंट लगाया गया, अमानवीय व्यवहार किया गया, सादे पन्नों पर हस्ताक्षर लिए गए, जख्मों पर खुद ही एटीएस के लोगों ने थाने में टांके लगाए, इनकाउंटर की धमकियां दी गयीं, ए रहमान के रूप में एटीएस ने उसे अपना वकील करने पर मजबूर किया, ए रहमान के वकालतनामे पर एटीएस के लोगों ने ही ज़बरदस्ती उसके हस्ताक्षर करवाए जो उससे केवल एक बार ही मिले. वकील के बार-बार कहने के बावजूद चार्जशीट उसको नहीं दी गयी और न ही उसके बताए हुए बिंदुओं को अदालत में कभी पेश किया. हिमायत बेग ने न्यायिक व्यवस्था पर अपनी आस्था की दुहाई देते हुए हाईकोर्ट के सम्मानित न्यायधीशों से विनती की है कि पूरे केस की फिर से एनआईए से जांच करवाई जाए और केस की नए सिरे से सुनवाई के दौरान उसे हाजि़र होकर अपनी बात कहने का अवसर दिया जाए.
यह पूरा केस आज हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था, जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली, समाज के जि़म्मेदार व्यक्तियों के व्यवहार के परिप्रेक्ष्य में कई सवालों को जन्म देता है. आज हमें खुद तय करना होगा कि हम किस दिशा में अपने देश और उसके महत्वपूर्ण अंग ‘न्यायपालिका’ को ले जा रहे है. क्या इन हालात में हमारे कंधों पर भी जि़म्मेदारियां आती हैं? हम अपने देश के निर्माण या विध्वंस में से किस जि़म्मेदारी का चयन करना अपने लिए पसंद करते हैं?
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(सब्बाक़ मानवाधिकार व जनाधिकार संरक्षण के लिए कार्यरत संस्था एपीसीआर से जुड़े हुए हैं.)