‘फ़ारबिसगंज गोलीकांड’… अब भी ताज़ा हैं ज़ख़्म



अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net


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फारबिसगंज: अररिया से फारबिसगंज जाने वाली सड़क धूप में सोने की तरह चमचमाती है. फोर लेन की यह सड़क जहां ख़त्म होती है, वहीं से एक पुरानी कहानी का पुनर्जन्म होता है. इंटरनेशल इंजीनियरिंग कॉलेज से आगे चलकर नीचे उतरते ही कच्ची सड़कों पर इस कहानी के ज़ख़्म हम से रूबरू होना शुरू हो जाते हैं.

फारबिसगंज के इस भजनपुरा गांव से शायद ही कोई रूबरू न हो. आज भी वर्दी वाले गुंडों का नंगा नाच यहां लोगों के ज़ेहन में ताज़ा है और वो खून के धब्बे भी ताज़ा हैं, जो एक रास्ते की ख़ातिर इस गांव में रहने वालों के सीने पर गोलियों की शक़्ल में चिपका दिए गए थे.



दिपछी उर्फ़ रेहाना खातून के बाएं हाथ पर आज भी गोलियों के निशान मौजूद हैं. बायां हाथ अब काम नहीं करता. 3 जून 2011 की घटना को याद करते ही उनकी आंखें नम हो जाती हैं और बोलते-बोलते रो पड़ती हैं. इस गोलीकांड में उनके 8 महीने के नौशाद को दो गोली लगी थी. नौशाद ने पूर्णिया के अस्पताल में दम तोड़ दिया था. रेहाना का यह लाडला पहले से ही बीमार था और उसी का इलाज कराकर वो घर को लौट रही थी कि रास्ते में दो गोलियों ने उसके नौशाद को छलनी कर दिया.

रेहाना बताती हैं, ‘सरकार ने आज तक कोई इंसाफ़ नहीं किया. जांच कमिटी के लोग भी आज तक इनके पास नहीं आएं.’ वो बताती हैं कि उस वक़्त तो नेता खूब आते थे, अब तो कोई पूछने भी नहीं आता.

वोट देने के बारे में पूछने पर वो बताती हैं कि उन्हें तो पता भी नहीं कि वोट में कौन खड़ा है. आगे बताती हैं कि वोट देने से क्या भला होने वाला है. कहां इंसाफ़ मिलने वाला है. जिसको सब देंगे, उसको हम भी दे देंगे.



यह देखना अजीब है कि कभी इस गांव में नेताओं का तांता लगा रहता था, पर अब चुनाव के इस मौसम में भी कोई नेता यहां नहीं आया. संवेदनहीनता की हद यहां तक है कि इस गांव में किसी को वोट मांगने तक की फुर्सत तक नहीं है. इंसाफ़ की बात तो दूर, यहां के लोग अब इतने मायूस हो चुके हैं कि उन्हें इस बात से कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता कि निज़ाम रहे या बदले. यहां के लोगों ने मान लिया है कि सूबे का नेतृत्व चाहे किसी के हाथ में रहे, इनकी तक़दीर पर कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं है. सबकी ज़िन्दगी अभी भी वैसी ही है, जैसी 2011 में थी.

फटकन अंसारी का बेटा मो. मुस्तफ़ा भी उस दिन दुकान बंद करके घर आ रहा था. रास्ते में पुलिस की गोली का शिकार हो गया. फटकन बताते हैं, ‘पुलिस गोली मारने के बाद उन्हीं के बेटे के लाश पर कूद रही थी.’ फटकन को वो दिन भी याद है जब राहुल गांधी उनके घर पर आए थे. लालू ने भी उनसे आकर मुलाक़ात की थी पर अब कोई उन्हें पूछने नहीं आता. फिर भी वो अपना वोट राहुल या लालू के पार्टी को ही देंगे.

मो. मुस्तफ़ा की मां ताहिरन खातुन बताती हैं, ‘सरकार की ओर से कोई मुआवज़ा नहीं मिला. कम्पनी ने 1.75 लाख ज़रूर दिए थे. लालू यादव ने भी एक लाख रूपये देकर मदद की थी. इसलिए वो अपना वोट लालू को ही देंगी. नेताओं में उन्हें सिर्फ लालू ही पसंद हैं.’ जांच आयोग के बारे में मालूम करने पर वो बताती हैं कि जांच आयोग की टीम गांव में नहीं आई थी. उन्हें अररिया बुलाया गया था. वो अररिया जाकर अपना बयान दर्ज करा आई थीं.



फारूक़ की गर्भवती पत्नी साजमीन खातुन भी इस गोलीकांड में पुलिस की गोली की शिकार हुई थी. फ़ारूक़ का भी कहना है कि सरकार की ओर से उनके परिवार को कोई मुआवज़ा नहीं मिला. वो बताते हैं, ‘उस वक़्त तो देश के तमाम बड़े नेता आए थे. बड़े-बड़े वादे किए थे पर हमें इंसाफ़ नहीं मिला. जीत उन्हीं की हुई. अब तो कोई छोटा नेता भी इस गांव को झांकने तक को नहीं आता.’ फ़ारूक़ को कांग्रेस पार्टी पसंद है. वो इस बार वोट कांग्रेस को ही देंगे. फिर वही खुद बताते हैं कि –क्योंकि कांग्रेस महागठबंधन में है, इसलिए वो वोट महागठबंधन से खड़े उम्मीदवार को ही देंगे.

18 साल का मुख़्तार अंसारी काम करके घर लौट रहा था, भीड़ देखकर वह भी वहीं रूक गया. पुलिस वालों के गोली का शिकार वह भी हुआ. पिता फारूक़ अंसारी का कहना है, ‘सरकार की तरफ़ से आज तक कोई मदद नहीं मिली. बल्कि सरकार यह पूछने तक को नहीं आई कि हमारा परिवार कैसे चल रहा है.’



लेकिन मुख़्तार के बहनोई मो. फ़िरोज़ अंसारी बताते हैं कि सरकार की ओर से कोई मुआवज़ा तो नहीं मिला. लेकिन कम्पनी वालों ने गांव वालों के साथ समझौता करके मृतक के परिवार को 1.75 लाख और घायल को 35 हज़ार रूपये ज़रूर दिए थे. इसके एवज़ में उन्होंने वो रास्ता भी ले लिया, जिसको लेकर सारा विवाद था.

गांव के और भी कई लोगों की अपनी-अपनी कहानी है. और सच तो यह है कि इन लोगों से थोड़ी देर बात करना भी इनके ज़ख़्मों को कुरेदने जैसा है. पुरानी बातें बयान करके इनकी आंखें भर आती हैं. सीने का घाव वक़्त की सुर्ख रोशनी में खुलकर चमकने लगता है, मगर इसकी फ़िक्र किसे है?

नेताओं को वोट चाहिए. फारबिसगंज का ये भजनपुरा गांव तो वोट के इस गणित में भी फिट नहीं बैठता है. यही वजह है कि यहां के रहने वाले अपनी आंखों में पुराना दर्द जमाए हुए सिर्फ़ वक़्त बीतने का इंतज़ार कर रहे हैं. मुमकिन है कि वक़्त हर ज़ख्म को भर देता होगा. लेकिन भजनपुरा का ज़ख़्म तो अभी भी हरा है, शायद आने वाले दिनों में भर जाए…



क्या है फारबिसगंज गोलीकांड?

3 जून, 2011 को अररिया ज़िला के फारबिसगंज में भजनपुरा गांव के लोगों द्वारा एक सड़क के विवाद को लेकर विरोध-प्रदर्शन में पुलिस ने फायरिंग की, जिसमें चार लोगों की मौत हुई और कई घायल हुए. इस घटना में पुलिस का वो वीडियो भी वायरल हुआ, जिसमें एक पुलिस वाला अपनी दरिंदगी की मिसाल पेश करते हुए घायल मुस्तफ़ा के छाती पर कूद रहा था, जिससे उसकी मौत हो गई. महिलाओं को भी बाल के सहारे ज़मीन पर घसीटा गया. जबकि इनका कसूर सिर्फ इतना था कि वे अपनी पुश्तैनी रास्ते को, जिसे एक कम्पनी वाला बंद कर रहे था, को बचाना चाह रहे थे. यह ज़मीन किसानों से लेकर बियाडा ने एक कम्पनी को अपनी फैक्ट्री लगाने के लिए दिया था, जिसका सही मुआवज़ा भी किसानों को सरकार ने नहीं दी थी.

दरअसल, ये गोलीकांड राजनीतिक साज़िश के तहत तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की सरपरस्ती में ऑरो सुन्दरम् कम्पनी के पक्ष में अंजाम दिया गया था. भाजपा विधायक अशोक अग्रवाल इस कम्पनी के पार्टनर हैं.



फारबिसगंज गोलीकांड न्यायिक जांच आयोग

इस गोली कांड के जांच के लिए बिहार सरकार ने जुलाई 2011 में ही एक न्यायिक जांच आयोग भी गठित की थी. आयोग ने तय अवधि में अपनी रिपोर्ट नहीं दी, तो इसे 31 अगस्त तक के लिए अवधि विस्तार दे दिया गया. लेकिन आज तक इसकी रिपोर्ट पेश नहीं की जा सकी है. इंसाफ़ के नाम पर 23 फरवरी 15 को प्रशासन ने फैक्टरी निदेशक व गांव के लोगों के बीच आपसी समझौता ज़रूर करा दिया है. गांव के लोग इसे अपने साथ नाइंसाफ़ी बता रहे हैं.

आयोग से जुड़े एक अधिकारी के मुताबिक़ जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट पूरी कर ली है. चुनाव ख़त्म होते ही इसे पेश किया जा सकता है. आयोग के अध्यक्ष एकल सदस्य पटना हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति माधवेंद्र शरण हैं.

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